Tuesday, 28 January 2025

1857 की जनक्रांति

 1857 की जनक्रांति के जनक कोतवाल धनसिंह गुर्जर पर इतिहास लेखन: (डॉ सुशील भाटी)

10 मई 1857 को मेरठ से, ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरोध में, शुरू हुई जनक्रांति के विस्फोट में मेरठ की सदर कोतवाली में तैनात धन सिंह कोतवाल की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका थी| धन सिंह कोतवाल की इस क्रन्तिकारी भूमिका पर अनेक लेखको ने रेखांकित किया हैं| उपलब्ध स्त्रोतों के आधार पर, धन सिंह कोतवाल पर इतिहास लेखन का, वर्ष 2002 तक का क्रमवार सिलसिला निम्नवत हैं|
1. ई. बी. जोशी ने सर्वप्रथम धन सिंह कोतवाल की भूमिका का उल्लेख मेरठ डिस्ट्रिक्ट गजेटेयर, गवर्नमेन्ट प्रेस, 1965, के पृष्ठ संख्या 52 पर किया था “The Indian troops as well as the police including the kotwal, Dhanna Singh, made common cause against the British. About midnight the villagers attacked the gaol, released its 839 prisoners and set fire to the building. The 720 prisoners in the old jail were also released by some Indian soldiers. Thousands of Gujars from the neighbouring villages came to Mcerut, set fire to the lines of the sappers and miners, destroyed other parts of the cantonment ...…On July 4, the Risala which was armed with two guns surrounded and attacked the Gujar villages (particularly Panchli Ghat and Nagla) about five miles from Meerut, killing some of the inhabitants, making some prisoners and burning the villages.”
2. जे. ए. बी. पामर ( J A B Palmer) ने 1966 में कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से छपी अपनी पुस्तक “म्युटिनी आउटब्रेक एट मेरठ इन 1857” धन सिंह की भूमिका के विषय में लिखा था| नार्थ-वेस्टर्न प्राविन्सिस की मिलेट्री पुलिस के कमिश्नर मेजर विलयम्स द्वारा मेरठ के विद्रोह के विस्फोट में पुलिस की भूमिका की जांच की गई थी तथा इस विषय पर एक स्मरण पत्र (मैमोरेन्डम) तैयार किया गया था| जे. ए. बी. पामर ने धन सिंह कोतवाल की भूमिका के विषय में इस स्मरण पत्र का हवाला दिया हैं|
3. यतीन्द्र कुमार वर्मा ने मयराष्ट्र मानस ग्रन्थ में ‘स्वतंत्रता की प्रथम ज्योति’ नामक अपने लेख में 10 मई 1857 को मेरठ में हुए क्रांति के विस्फोट में धन सिंह कोतवाल की भूमिका के विषय में पृष्ठ संख्या 48 पर लिखा हैं, कि “11 वी व 20 वी नेटिव इन्फेंटरी, जेल से रिहाई पाने वाली भीड़ व् देहात की जनता शहर कोतवाल चो. धनसिंह गूजर के नेतृत्व में आस पास के गाँवो से उसके भाई बंद पुलिस के सिपाही योरोपियनो के खून के प्यासे हो गए......योरोपियन मार डाले गए, बंगले जला दिए गए|”
4. गणपति सिंह ने वर्ष 1986 में फरीदाबाद से प्रकाशित ‘गुर्जर वीर वीरांगनाए” नामक अपनी पुस्तक में धन सिंह कोतवाल के इतिहास पर ‘धन सिंह गूजर कोतवाल” के नाम से तीन पृष्ठ का एक पूरा लेख लिखा हैं| धन सिंह कोतवाल के विषय में वे लिखते हैं कि “मेरठ के समीप चपराने गूजरों का पांचली गाँव हैं| वहां का निवासी चौ. धन सिंह मेरठ सिटी का कोतवाल है वह बड़ा देशभक्त और और स्वाधीनता प्रिय पुलिस अफसर था|.......पुलिस कोतवाल होने के नाते उसका दायित्व था कि वह अंग्रेजी सरकार को सहयोग देता और विद्रोहियों का दमन करता लेकिन उसने विद्रोहियों का सहयोग दिया और नेतृत्व किया| उसने मेरठ के आस-पास के के गूजरों के गांवों में सन्देश भिजवाकर मेरठ जेल पर हमले की योजना बनाई| अंग्रेजी हुकूमत को को पता नहीं चला कि स्वाधीनता की चिंगारी उन चिंगारी उनके जिला प्रशासन के पुलिस महकमे के कोतवल के दिल में घर कर गई हैं| तीस हज़ार गूजर, घाट पांचली के चपराने, सीकरी के चंदीले, नंगला और भौपुरा के कसाने गूजर व् अन्य ग्रामीण एकत्र होकर मेरठ पहुंचे| कोतवाल धन सिंह उनके स्वागत के लिए प्रतीक्षा कर रहा था|.............उन्होंने ने पहला धावा मेरठ की नई जेल पर बोला दिया| इन्होने जेल से 839 कैदियों को मुक्त कराया और वे भी मुक्त होकर धाड़ के साथ हो गए|..............”मारो फिरंगी को” को बस यही उद्घोष सुनने में आता था| ...................पांचली गाँव के 80 गूजरों को फाँसी दी गई और 400 गूजरों को गोली से उड़ाया गया|”
5. हाकिम मोहम्मद सईद (Hakim Mohmmad Said) वर्ष 1990 में छपी अपनी पुस्तक ‘रोड टू पाकिस्तान’ के पृष्ट संख्या 545 में लिखते हैं “The state of confusion that ensued was worsened when the riff-raffs from the town started plundering and the Gujars who had come in numbers because theacting Kotwal, Dhanna Singh, belonged to that tribe, joined them. “
6. स्वामी वासुदेवानंद तीर्थ ने वर्ष 1991 में मेरठ (बागपत) से प्रकशित अपनी पुस्तक ‘आर्य समाज एवं स्वतंत्रता सेनानी’ धन सिंह कोतवाल की भूमिका को रेखांकित करते हुए ‘राव कदम सिंह व चौ. धन सिंह’ नामक एक दो पृष्ठ का पूरा अध्याय लिखा हैं| वे लिखते हैं कि “स्वतंत्रता विद्रोह से पूर्व मह्रिषी दयानंद सरस्वती मेरठ नगर के शिव मंदिर में चार दिन ठहरे थे, वहां श्री धन सिंह शहर कोतवाल और राव कदम सिंह आदि अनेक व्यक्ति उनसे गुप्त रूप से मिले|…..मेरठ के सैनिको ने अंग्रेजो के आदेशो को अंगीकार नहीं किया क्योकि कारतूस पर गाय और सूअर की चर्बी लगी हुई थी कारतूस को दांत से तोडा जाता था|.....अंग्रेज कर्नल ने सैनिको के हाथो में हथकड़ी और पैरो में बैडी डलवाकर जेल भेज दिया| गुर्जर जनता एवं रांघड मुसलमानों ने राव कदम सिंह व् धन सिंह की आज्ञा मिलते ही मेरठ शहर पर धावा बोलकर अंग्रेजो के जान-माल को नष्ट कर दिया क्योकि 50 हज़ार विद्रोही संघर्ष कर रहे थे और अंग्रेज सैनिको व उनके समर्थको के पैर नहीं टिक सके| अंग्रेज इतने घबरा गए की अपनी जान बचाकर शहर से भागने लगे| उधर जनता ने जेल पर हमला कर दिया|”
7. वेदानंद आर्य ने वर्ष 1993 में प्रकाशित अपनी पुस्तक “1857 का मुक्ति संग्राम तथा उसका ऐतिहासिक स्वरुप” में पृष्ट संख्या 98 पर लिखते हैं कि धन सिंह कोतवाल ने देहाती अंचलो से आये क्रांतिकारियों के एक दल का नेतृत्व किया| वे लिखते हैं कि “सैनिको की बेड़िया काटने के उद्देश्य से ये सीधे कारागार गए| इस काफिले में छावनी के सैनिको के अतिरिक्त देहाती आंचलो से आये क्रन्तिकारी दल संम्मिलित थे| जिनमे से एक दल का नेतृत्व धनसिंह गुर्जर पांचली निवासी, जोकि तत्कालीन मेरठ नगर के कोतवाल थे, कर रहे थे| धन सिंह एक स्वाधीनता प्रेमी पुलिस अधिकारी थे|
8. आचार्य दीपांकर ने वर्ष 1993 में मेरठ से प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘स्वाधीनता संग्राम और मेरठ’ में पृष्ठ 143 पर लिखते हैं, “ घाट पांचली का धनसिंह गूजर विशेष रूप से क्रन्तिकारी था| उसी के नेतृत्व में 10 हज़ार से अधिक किसानो और मजदूरों ने मेरठ जेल में ठीक उसी समय धावा मारा था जब मेरठ के सैनिक अपने 85 बंदी साथियो को रिहा कराने गए थे| उनकी रिहाई के बाद धन सिंह गूजर ने सभी 1400 कैदियों को रिहा कर दिया तथा जेल के रजिस्टर भी जला दिए| बाद में प्रतिक्रांति का दौर प्रारम्भ होने पर गूजरों को दमन का विशेष सामना करना पड़ा| पांचली गाँव को विशेष दमन का शिकार होना पड़ा जहाँ के 80 लोगो को फाँसी पर चढ़ाया गया|”
10 मई 1857 को विद्रोह के विस्फोट से लगभग एक माह पहले अप्रैल में अयोध्या से एक हिन्दू फ़क़ीर मेरठ आया था| यह फ़क़ीर विद्रोही सैनिको के संपर्क में था| सदर कोतवाल इस फ़क़ीर से 24 अप्रैल को मिला था| आचार्य दीपंकर ने अपनी इस पुस्तक में इस हिन्दू फ़क़ीर की पहचान स्वामी दयानंद सरस्वती के रूप में की हैं| इस सम्बन्ध में उन्होंने अपनी पुस्तक में पृष्ठ संख्या 120- 131 पर “1857 की क्रांति में यह साधू कौन था? नामक “एक अध्याय लिखा हैं|
9. डॉ देवेन्द्र सिंह ने वर्ष 1995 में एक लेख में धन सिंह कोतवाल के विषय में लिखा हैं जोकि एक अख़बार में छपा था| लेख मुझे उपलब्ध नहीं हो सका हैं|
10. सुशील भाटी ने वर्ष 2000 में “1857 की क्रांति के जनक धन सिंह कोतवाल” नामक शोध पत्र लिखा जिसमे कोतवाल धन सिंह को पहली बार ‘1857 की क्रांति का जनक’ कहा गया और उसे क्रांति की शुरुआत करने का श्रेय दिया गया| लेख में तर्क रखा गया कि 1857 की क्रान्ति की शुरूआत करने का श्रेय उसी व्यक्ति को दिया जा सकता है जिसने 10 मई1857 के दिन मेरठ में घटित क्रान्तिकारी घटना में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो। इस लेख के अनुसार ऐसी सक्रिय क्रान्तिकारी भूमिका धन सिंह कोतवाल ने 10 मई 1857 के दिन मेरठ में निभाई थी। लेख के आरम्भ में ही कहा गया हैं कि “इतिहास की पुस्तकें कहती हैं कि1857 की क्रान्ति का प्रारम्भ '10 मई 1857' की संध्या को मेरठ में हुआ। हम तार्किक आधार पर कह सकते हैं कि जब 1857 की क्रान्ति का आरम्भ '10 मई 1857' को 'मेरठ' से माना जाता है, तो क्रान्ति की शुरूआत करने का श्रेय भी उसी व्यक्ति को दिया जा सकता है जिसने 10 मई 1857 के दिन मेरठ में घटित क्रान्तिकारी घटना में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो। ऐसी सक्रिय क्रान्तिकारी भूमिका धन सिंह कोतवाल ने 10 मई 1857 के दिन मेरठ में निभाई थी। 10 मई 1857 को मेरठ में विद्रोही सैनिकों और पुलिस फोर्स ने अंग्रेजों के विरूद्ध साझा मोर्चा गठित कर क्रान्तिकारी घटनाओं को अंजाम दिया। सैनिकों के विद्रोह की खबर फैलते ही मेरठ की शहरी जनता और आस-पास के गांव विशेषकर पांचली, घाट, नंगला, गगोल इत्यादि के हजारों ग्रामीण मेरठ की सदर कोतवाली क्षेत्र में जमा हो गए। इसी कोतवाली में धन सिंह कोतवाल (प्रभारी) के पद पर कार्यरत थे। मेरठ की पुलिस बागी हो चुकी थी। धन सिंह कोतवाल क्रान्तिकारी भीड़ (सैनिक, मेरठ के शहरी, पुलिस और किसान) में एक प्राकृतिक नेता के रूप में उभरे.........उन्होंने क्रान्तिकारी भीड़ का नेतृत्व किया और रात दो बजे मेरठ जेल पर हमला कर दिया। जेल तोड़कर 839 कैदियों को छुड़ा लिया और जेल में आग लगा दी। जेल से छुड़ाए कैदी भी क्रान्ति में शामिल हो गए। उससे पहले पुलिस फोर्स के नेतृत्व में क्रान्तिकारी भीड़ ने पूरे सदर बाजार और कैंट क्षेत्र में क्रान्तिकारी घटनाओं को अंजाम दिया। रात में ही विद्रोही सैनिक दिल्ली कूच कर गए और विद्रोह मेरठ के देहात में फैल गया।“
लेख में यह तर्क भी प्रमुखता से रखा गया कि 1857 का महाविद्रोह मात्र सैनिक विद्रोह नहीं था बल्कि यह साम्राज्यवाद के खिलाफ एक जनक्रांति थी, जिसमे जनता की सहभागिता की शुरुआत धन सिंह कोतवाल के नेतृत्व 10 मई को मेरठ से हुई थी, अतः धन सिंह कोतवाल इस क्रांति के जनक हैं| लेख में कहा गया हैं कि “1857 की क्रान्ति की औपनिवेशिक व्याख्या, (ब्रिटिश साम्राज्यवादी इतिहासकारों की व्याख्या), के अनुसार 1857 का गदर मात्र एक सैनिक विद्रोह था जिसका कारण मात्र सैनिक असंतोष था। इन इतिहासकारों का मानना है कि सैनिक विद्रोहियों को कहीं भी जनप्रिय समर्थन प्राप्त नहीं था। ऐसा कहकर वह यह जताना चाहते हैं कि ब्रिटिश शासन निर्दोष था और आम जनता उससे सन्तुष्ट थी। अंग्रेज इतिहासकारों, जिनमें जौन लोरेंस और सीले प्रमुख हैं ने भी 1857 के गदर को मात्र एक सैनिक विद्रोह माना है..........राष्ट्रवादी इतिहासकार वी0 डी0 सावरकर और सब-आल्टरन इतिहासकार रंजीत गुहा ने 1857 की क्रान्ति की साम्राज्यवादी व्याख्या का खंडन करते हुए उन क्रान्तिकारी घटनाओं का वर्णन किया है, जिनमें कि जनता ने क्रान्ति में व्यापक स्तर पर भाग लिया था, इन घटनाओं का वर्णन मेरठ में जनता की सहभागिता से ही शुरू हो जाता है।.............1857 का गदर मात्र एक सैनिक विद्रोह नहीं वरन् जनसहभागिता से पूर्ण एक राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम था। परन्तु 1857 में जनसहभागिता की शुरूआत कहाँ और किसके नेतृत्व में हुई? इस जनसहभागिता की शुरूआत के स्थान और इसमें सहभागिता प्रदर्शित वाले लोगों को ही1857 की क्रान्ति का जनक कहा जा सकता है। क्योंकि 1857 की क्रान्ति में जनता की सहभागिता की शुरूआत धन सिंह कोतवाल के नेतृत्व में मेरठ की जनता ने की थी। अतः ये ही 1857 की क्रान्ति के जनक कहे जा सकते हैं।“
सुशील भाटी ने अपने लेख में क्रांति की पूर्व योज़ना को स्वीकार किया तथा सदर कोतवाल धन सिंह के अयोध्या से आये हिन्दू फ़क़ीर से मुलाकात की बात कही हैं| “10 मई, 1857 को मेरठ में क्रांति का विस्फोट एक पूर्व योजना के तहत एक निश्चित कार्यवाही थी| नवम्बर 1858 में मेरठ के कमिश्नर एफ0 विलियम द्वारा इसी सिलसिले से एक रिपोर्ट नोर्थ - वैस्टर्न प्रान्त (आधुनिक उत्तर प्रदेश) सरकार के सचिव को भेजी गई। रिपोर्ट के अनुसार मेरठ की सैनिक छावनी में ”चर्बी वाले कारतूस और हड्डियों के चूर्ण वाले आटे की बात“ बड़ी सावधानी पूर्वक फैलाई गई थी। रिपोर्ट में अयोध्या से आये एक साधू की भूमिका की ओर भी इशारा किया गया था| विद्रोही सैनिक तथा सदर पुलिस कोतवाली का कोतवाल इस फ़कीर के संपर्क में थे। मेजर विलियम्स को दो गयी गवाही (डेपोजीशन 😎 के अनुसार सदर कोतवाल स्वयं इस साधू से उसके सूरजकुण्ड स्थित ठिकाने पर मिले थे। सदर कोतवाल फ़कीर के साथ देशव्यापी क्रान्तिकारी योजना में शामिल हो गए।“
यह लेख सर्वप्रथम वर्ष 2002 में लघु पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हुआ था| इस लघु पुस्तिका का विमोचन, मेरठ कमिश्नरी चौराहे पर लगी शहीद धन सिंह कोतवाल की प्रथम मूर्ति के अनावरण कार्यक्रम के मुख्य अथिति चौ. हुकुम सिंह, तत्कालीन कैबिनेट मंत्री, उ. प्र. सरकार ने किया था|
सन्दर्भ
The first expedition of this corps (4th of July) was in company with small force of regulars against a number of Gujar villages about six miles from Meerut, of which chief were Pancli Ghat and Nangla. The inhabitants of these villages, beside bearing a conspicuous part in sack of the station and the murder of the Europeans on the night of 10th of May, had since made them notorious by the number and heinousness of their crime. The principal villages were successfully surrounded, a little after day break, by different parties told of for the purpose. A considerable number of men were killed in the attack, and of 46 prisoners taken, out of which forty were subsequently brought to trial, and suffered to extreme penalty of the law for their misdeeds. The villages were burned. एडविन टी. एटकिनसन, स्टैटिस्टिकल डिस्क्रिप्टिव एंड हिस्टोरिकल अकाउंट ऑफ़ नार्थ वेस्टर्न प्रोविन्सेज़, खंड III, मेरठ डिवीज़न, भाग II., नार्थ वेस्टर्न प्रोविन्सेज़ गवर्नमेंट प्रेस, इलाहाबाद, 1876, पृष्ठ 331
ई0 बी0 जोशी, मेरठ डिस्ट्रिक्ट गजेटेयर, गवर्नमेन्ट प्रेस, 1965पृष्ठ संख्या 52
मयराष्ट्र मानस, मेरठ।
जे. ए. बी. पामर, म्युटिनी आउटब्रेक एट मेरठ इन 1857, कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, 1966
हाकिम मोहम्मद सईद (Hakim Mohmmad Said) ‘रोड टू पाकिस्तान’, 1990, पृष्ट संख्या 545
स्वामी वासुदेवानंद तीर्थ, आर्य समाज एवं स्वतंत्रता सेनानी, मेरठ, 1991
गणपति सिंह, 1857 के गूजर शहीद: भारतीय इतिहास का शानदार अध्याय, 1984, पृष्ठ संख्या 37
गणपति सिंह, गुर्जर वीर वीरांगनाए, फरीदाबाद, 1986
वेदानंद आर्य, 1857 का मुक्ति संग्राम तथा उसका ऐतिहासिक स्वरुप, 1993, पृष्ट 98
आचार्य दीपांकर, स्वाधीनता संग्राम और मेरठ, जनमत प्रकाषन, मेरठ 1993
डॉ सुशील भाटी, 1857 की जनक्रांति के जनक धन सिंह कोतवाल, मेरठ, 2002

सज्जन ताम्रपत्र राजौर शिलालेख सिरूर शिलालेख बडोदा ताम्रपत्र बगुम्रा-ताम्रपत्र चैदिराजा कर्ण का गोहखा अभिलैख

 संकलन:- #एडवोकेटदिवाकरबिधूडीगुर्जर

• Kanishk Singh Tanwar October 2018 at 09 :31 AM
�गुर्जर प्रतिहार फोर फादर ऑफ़ राजपूत
• गुर्जर प्रतिहार राजपूत कबीले के पूर्व पिता हैं
• Gurajr Pratiharas are the fore father of rajput clan
• इतिहासकार सर जर्वाइज़ एथेलस्टेन बैनेस ने गुर्जर को सिसोदियास, चौहान, परमार, परीर, चालुक्य और राजपूत के पूर्वज थे।
• विन्सेंट स्मिथ का मानना था कि गुर्जर वंश, जिसने 6 वीं से 11 वीं शताब्दी तक उत्तरी भारत में एक बड़े साम्राज्य पर शासन किया था, और शिलालेख में "गुर्जर-प्रतिहार" के रूप में उल्लेख किया गया है, निश्चित रूप से गुर्जरा मूल का था।
• स्मिथ ने यह भी कहा कि अन्य उत्पनीला क्षत्रिय कुलों की उत्पत्ति होने की संभावना है।
• डॉ के। जमानदास यह भी कहते हैं कि प्रतिहार वंश गुर्जरों से निकला है, और यह "एक मजबूत धारणा उठाता है कि अन्य राजपूत समूह भी गुर्जरा या संबद्ध विदेशी आप्रवासियों के वंशज हैं।
• डॉ० आर० भण्डारकर प्रतिहारों की गुर्जरों से उत्पत्ति मानते हुए अन्य अग्निवंशीय राजपूतों को भी विदेशी उत्पत्ति का कहते हैं।
• नीलकण्ठ शास्री विदेशियों के अग्नि द्वारा पवित्रीकरण के सिद्धान्त में विश्वास करते हैं क्योंकि पृथ्वीराज रासो से पूर्व भी इसका प्रमाण तमिल काव्य 'पुरनानूर' में मिलता है। बागची गुर्जरों को मध्य एशिया की जाति वुसुन अथवा 'गुसुर 'मानते हैं क्योंकि तीसरी शताब्दी के अबोटाबाद - लेख में 'गुशुर 'जाति का उल्लेख है।
• जैकेसन ने सर्वप्रथम गुर्जरों से अग्निवंशी राजपूतों की उत्पत्ति बतलाई है। पंजाब तथा खानदेश के गुर्जरों के उपनाम पँवार तथा चौहान पाये जाते हैं। यदि प्रतिहार व सोलंकी स्वयं गुर्जर न भी हों तो वे उस विदेशी दल में भारत आये जिसका नेतृत्व गुर्जर कर रहे थे।
• Gurajr Pratiharas are the fore father of rajput clan
• shilalekha se bada koi proof nh 💪
• नीलकुण्ड, राधनपुर, देवली तथा करडाह शिलालेख में प्रतिहारों को गुर्जर कहा गया है।
• राजौर शिलालेख में प्रतिहारों को गुर्जर कहा गया है।। बादामी के चालुक्य नरेश पुलकेशियन द्वितीय के एहोल अभिलेख में गुर्जर जाति का उल्लेख आभिलेखिक रूप से सर्वप्रथम रूप से हुआ है।
• गुर्जर जाति का एक शिलालेख राजोरगढ़ (अलवर जिला) में प्राप्त हुआ है
• )। मार्कंदई पुराण और पंचतंत्र में, गुर्जर जनजाति का एक संदर्भ है।
• समकालीन अरब यात्री सुलेमान ने गुर्जर सम्राट मिहिरभोज को भारत में इस्लाम का सबसे बड़ा दुश्मन करार दिया था, क्योंकिभोज राजाओं ने 10वीं सदी तक इस्लाम को भारत में घुसने नहीं दिया था। मिहिरभोज के पौत्र महिपाल को आर्यवृत्त का महान सम्राट कहा जाता था। गुर्जर संभवतः हूणों और कुषाणों की नई पहचान थी।अतः हूणों और उनके वंशज गुर्जरों ने हिन्दू धर्म और संस्कृति के संरक्षण एवं विकास में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इस कारण से इनके सम्राट मिहिरकुलहूण औरमिहिरभोज गुर्जर को समकालीन हिन्दू समाज द्वारा अवतारी पुरुष के रूप में देखा जाना आश्चर्य नहीं होगा। निश्चित ही इन सम्राटों ने हिन्दू समाज को बाहरी और भीतरी आक्रमण से निजाद दिलाई थी इसलिए इनकी महानता के गुणगान करना स्वाभाविक ही था। लेकिन मध्यकाल में भारत के उन महान राजाओं के इतिहास को मिटाने का भरपूर प्रयास किया गया जिन्होंने यहां के धर्म और संस्कृति की रक्षा की। सचमुच सम्राट मिहिरकुल सम्राट अशोक से भी महान थे।
• मेहरौली, जिसे पहले मिहिरावाली के नाम से जाना जाता था, का मतलब मिहिर का घर, गुर्जर-प्रतिहार वंश के राजा मिहिर भोज द्वारा स्थापित किया गया था।
• मेहरौली उन सात प्राचीन शहरों में से एक है जो दिल्ली की वर्तमान स्थिति बनाते हैं। लाल कोट किला का निर्माण गुर्जर तनवार प्रमुख अंंगपाल प्रथम द्वारा 731 के आसपास किया गया था और 11 वीं शताब्दी में अनांगपाल द्वितीय द्वारा विस्तारित किया गया था, जिसने अपनी राजधानी को कन्नौज से लाल कोट में स्थानांतरित कर दिया था। गुर्जर तनवार 12 वीं शताब्दी में चौहानों द्वारा पराजित हुए थे। पृथ्वीराज चौहान ने किले का विस्तार किया और इसे किला राय पिथोरा कहा। उन्हें 11 9 2 में मोहम्मद घोरी ने पराजित किया, जिन्होंने अपना सामान्य कुतुब-उद-दीन अयबाक को प्रभारी बना दिया और अफगानिस्तान लौट आया।.................
• इतिहासकार डॉ ऑगस्टस होर्नले का मानना है कि तोमर गुर्जरा (या गुज्जर) के शासक वंश में से एक थे।
• राम सरप जून लिखते हैं कि ... गुजराती इतिहास के लेखक अब्दुल मलिक मशर्मल लिखते हैं कि गुजर इतिहास के लेखक जनरल सर ए कनिंघम के अनुसार, कानाउज के शासकों गुजर (गुजर पी -213 का इतिहास) 218)। उनका गोत्रा तोमर था और वे हुन चीफ टोरमन के वंशज हैं।
• ab rajput tm dikhao shilalekha hona chaiye ko lekh nh googal par koi kuch bhi bna dta bina proof ke koi kuch bhi likh dta hai, par shilalekha se bada koi proof nh hai sirf shilalekha 12 century phele ka ho
• ram ram🙏�Reply…….��
Kanishk Singh Tanwar October 1,2018 at 10:13 AM
�ha rajput ab khege ki partihar ku lga tha unke sth to uska bhi proof hai koi googal par apni taraf se likha hua nh 9th century phele ka dekh lena or fir mat bolna or apko pta chal ki india ke real king gurjar vansh tha
• lo padho thang se or check kr lna pakka proof hai
• वीर गुर्जर - प्रतिहार राजाओ के ऐतिहासिक अभिलैख प्रमाण
• **********************************
• 1. सज्जन ताम्रपत्र (871 ई. ) :---
• अमोघ वर्ष शक सम्वत
• 793 ( 871 ई . ) का
• सज्जन ताम्र पञ ) :---- I
• इस ताम्रपत्र अभिलेख मे लिखा है। कि राष्ट्र कूट शासक दन्तिदुर्ग ने 754 ई. मे "हिरण्य - गर्भ - महादान " नामक यज्ञ किया तो इस शुभ अवसर पर गुर्जर आदि राजाओ ने यज्ञ की सफलता पूर्वक सचालन हेतु यज्ञ रक्षक ( प्रतिहार ) का कार्य किया । ( अर्थात यज्ञ रक्षक प्रतिहारी का कार्य किया )
• ( " हिरणय गर्भ राज्यनै रुज्जयन्यां यदसितमा प्रतिहारी कृतं येन गुर्जरेशादि राजकम " )
• { सन्दर्भ :--एपिग्राफिक इडिका -- 18 , पृष्ठ 235 , 243 - 257 }
• ye hai wo tamarpatra rashtkut rajao ka jb gurjar rajao ko partihar ke upaadi mili ye just ek upaadi hai ok bhaiy
• or bhi record hai wo check kr lo pta chal jayga or us time sare raja gurjar vansh ke the 🙏
• 2. सिरूर शिलालेख ( :----
• यह शिलालेख गोविन्द - III के गुर्जर नागभट्ट - II एवम राजा चन्द्र कै साथ हुए युद्ध के सम्बन्ध मे यह अभिलेख है । जिसमे " गुर्जरान " गुर्जर राजाओ, गुर्जर सेनिको , गुर्जर जाति एवम गुर्जर राज्य सभी का बोध कराता है।
• ( केरल-मालव-सोराषट्रानस गुर्जरान )
• { सन्दर्भ :- उज्जयिनी का इतिहास एवम पुरातत्व - दीक्षित - पृष्ठ - 181 }
• 3. बडोदा ताम्रपत्र ( 811 ई.) :---
• कर्क राज का बडोदा ताम्रपत्र शक स. 734 ( 811-812 ई ) इस अभिलेख मे गुर्जरैश्वर नागभट्ट - II का उल्लेख है ।
• ( गोडेन्द्र वगपति निर्जय दुविदग्ध सद गुर्जरैश्वर -दि गर्गलताम च यस्या नीतवा भुजं विहत मालव रक्षणार्थ स्वामी तथान्य राज्यदद फलानी भुडक्तै" )
• { सन्दर्भ :- इडियन एन्टी. भाग -12 पृष्ठ - 156-160 }
• 4. बगुम्रा-ताम्रपत्र ( 915 ई. )
• इन्द्र - तृतीय का बगुम्रा -ताम्र पत्र शक सं. 837 ( 915 ई )
• का अभिलेख मे गुर्जर सम्राट महेन्द्र पाल या महिपाल को दहाड़ता गुर्जर ( गर्जदै गुर्जर - गरजने वाला गुर्जर ) कहा गया है ।
• ( धारासारिणिसेन्द्र चापवलयै यस्येत्थमब्दागमे । गर्जदै - गुर्जर -सगर-व्यतिकरे जीणो जनारांसति।)
• { सन्दर्भ :-
• 1. बम्बई गजेटियर, भाग -1 पृष्ट - 128, नोट -4
• 2. उज्जयिनी इतिहास तथा पुरातत्व, दीक्षित - पृष्ठ - 184 -185 }
• 5. खुजराहो अभिलेख ( 954 ई. ) :----
• चन्दैल धगं का वि. स . 1011 ( 954 ई ) का खुजराहो शिलालैख सख्या -2 मे चन्देल राजा को मरु-सज्वरो गुर्जराणाम के विशेषण से सम्बोधित किया है ।
• ( मरू-सज्वरो गुर्जराणाम )
• { एपिग्राफिक इडिका - 1 पृष्ठ -112- 116 }
• 6. गोहखा अभिलेख :--
• चैदिराजा कर्ण का गोहखा अभिलैख मे गुर्जर राजा को चेदीराजालक्ष्मणराजदैव दवारा पराजित करने का उल्लेख किया गया हे ।
• ( बगांल भगं निपुण परिभूत पाण्डयो लाटेरा लुण्ठन पटुज्जिर्जत गुज्जॆरेन्द्र ।
• काश्मीर वीर मुकुटाचित पादपीठ स्तेषु क्रमाद जनि लक्ष्मणराजदैव )
• { सन्दर्भ :- 1. एपिग्राफिक इडिका - 11 - पृष्ठ - 142
• 2. कार्पस जिल्द - 4 पृष्ठ -256, श्लोक - 8 }
• 7. बादाल स्तम्भ लैख:--
• नारायण पाल का बादाल सत्म्भ लैख के श्लोक संख्या 13 के अनुसार गुर्जर राजा राम भद्रदैव ( गुर्जर - नाथ) के समय दैवपाल ने गुर्जर- प्रतिहार के कुछ प्रदेश पर अधिकार कर लिया था ।
• ( उत्कीलितोत्कल कुलम हत हूण गर्व खव्वीकृत द्रविड गुर्जर-नाथ दप्पर्म )
• { सन्दर्भ :--एपिग्राफिक इडिका - 2 पृष्ठ - 160 - श्लोक - 13 }
• 8. राजोरगढ अभिलेख ( 960 ई. ) :--
• गुजॆर राजा मथन दैव का वि. स. ( 960 ई ) का राजोर गढ ( राज्यपुर ) अभिलेख मे महाराज सावट के पुत्र गुर्जर प्रतिहार मथनदैव को गुर्जर वंश शिरोमणी तथा समस्त जोतने योग्य भूमि गुर्जर किसानो के अधीन उल्लेखित है ।
• ( श्री राज्यपुराव सिथ्तो महाराजाधिराज परमैश्वर श्री मथनदैवो महाराजाधिरात श्री सावट सूनुग्गुज्जॆर प्रतिहारान्वय ...... स्तथैवैतत्प्रतयासन्न श्री गुज्जॆर वाहित समस्त क्षैत्र समेतश्च )�Reply ……….��
• Kanishk Singh Tanwar October 14 , 2018 at 02:11 AM�The Gujarat was known as 'Anarchant' (Land in West) during Mahabharat period. Before 6th century this region was known as Surat, Saurashtra and Kathiawad,Later on it was known as 'Gujjar Pradesh' (Land of Gurjar). From the word 'Gurjar Pradesh'GurjaratraThe name Gujarat has come from Gurjarata. The Gujjars' empire was known from 6th to 12th centuries as Gurjarata or Gujjar-land. Gurjar is a community.
• The ancient Mahakavi Rajashekhar has related the relation of the Gujjars to Suryavansh or Raghuvansh.Some scholars also tell them the Aryans from Central Asia. Gujarat is known as the land of Gujjars. In this way, Gujratra was distorted-it was converted into Gujarat�Reply…….��
• �Kanishk Singh Tanwar October 14 ,2018 2:13 AM�राजस्थान
• राजपूताना या रजवाड़ा भी कहलाता है।
• ये प्रारम्भ में गुर्जरो का देश था तथा गुर्जरत्रा (गुर्जरो से रक्षित देश), गुर्जरदेश, गुर्जरधरा आदि नामों से जाना जाता था।गुर्जरों का साम्राज्य यहाँ12वीं सदी तक रहा है।
• गुर्जरों के बाद यहा राजपूतों की राजनीतिक सत्ता आयी तथा ब्रिटिशकाल में यह राजपूताना (राजपूतों का देश) नाम से जाने जाना लगा। इस प्रदेश का आधुनिक नाम राजस्थान है, जो उत्तर भारत के पश्चिमी भाग में अरावली की पहाड़ियों के दोनों ओर फैला हुआ है। इसका अधिकांश भाग मरुस्थल है। यहाँ वर्षा अत्यल्प और वह भी विभिन्न क्षेत्रों में असमान रूप से होती है। यह मुख्यत: वर्तमान राजस्थान राज्य की भूतपूर्व रियासतों का समूह है, जो भारत का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।�Reply ……��
• श्री गाजण माता यूथ ब्रिगेड राजस्थान January 21 , 2019 at 10:22 PM�शिलालेख of Pratihar
• प्रतिहार क्षत्रिय राजवंश का गुर्जर देश (वर्तमान गुजरात व राजस्थान का भाग) पर राज्य होने के कारण उन्हें इतिहास में गुर्जर नरेश संबोधित किया गया| इसी संबोधन को लेकर कुछ गुर्जर भाइयों को भ्रम हुआ कि प्रतिहार क्षत्रियों की उत्पत्ति गुर्जरों से हुई है और वे इसका जोर-शोर से प्रचार करने में लगे है, जबकि खुद प्रतिहार सम्राटों ने सदियों पहले लिखवाये शिलालेखों ने अपने आपको क्षत्रिय लिखवाया है| इस सम्बन्ध में इतिहास देवीसिंह मंडावा ने अपनी पुस्तक “प्रतिहारों का मूल इतिहास” में उनकी उत्पत्ति से सम्बन्धित लिखा है-
• इतिहास से प्राप्त साक्ष्यों के अनुसार प्रतिहारों में मण्डोर (राजस्थान) के प्रतिहारों का पहला राजघराना है जिसका शिलालेखों से वर्णन मिलता है। मण्डोर के प्रतिहारों के कई शिलालेख मिले हैं जिनमें से तीन शिलालेखों में पड़िहारों की उत्पति और वंश क्रम का वर्णन प्राप्त है। उनका वर्णन इस प्रकार है-
• वि. सं. 894 चैत्र सुदि 5 ईसवी 837 का शिलालेख जोधपुर शहर पनाह की दीवार पर लगा हुआ है। यह शिलालेख पहले मण्डोर स्थित भगवान विष्णु के किसी मन्दिर में था। यह शिलालेख मण्डोर के शासक बाउक पड़िहार का है।
• �Reply …………��
श्री गाजण माता यूथ ब्रिगेड राजस्थान
January 21 2019 at 10:23 PM �वि. सं. 918 चैत्र सुदि 2 ईस्वी के दोनों ही घटियाला के शिलालेख हैं एक संस्कृत में लिखित है तथा दूसरा उसी भाषा का अनुवाद है। ये दोनों शिलालेख मण्डोर के पड़िहार के है।1 इन तीनों ही शिलालेखों में रघुकुल तिलक श्री रामचन्द्र के भाई लक्ष्मण से इस प्रतिहारों कुल की उत्पत्ति होना वर्णित किया है। सम्बन्धित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं। बाउक पड़िहार का जोधपुर का अभिलेख
• स्वभ्रात्त्रा रामभद्रस्य प्रतिहार कृतं यतः, श्री प्रतिहार वड्शो यमतक्ष्चोन्नति माप्नुयात।3,4।
• अर्थात्-अपने भाई के रामभद्र ने प्रतिहारी का कार्य किया। इससे यह प्रतिहारों का वंश उन्नति को प्राप्त करें। घटियाला अभिलेख
• रहुतिलओपडिहारो आसीसिरि लक्खणोंतिरामस्य, तेण पडिहारवन्सो समुणईएन्थसम्पती।
• अर्थात्-रघुकुल तिलक लक्ष्मण श्रीराम का प्रतिहार था। उससे प्रतिहार वंश सम्पति और समुन्नति को प्राप्त हुआ। इसी अभिलेख में दिया हैं कि संवत् 918 चैत्र माह में जब चन्द्रमा हस्त नक्षत्र में था, शुक्ल पक्ष की द्वितीया बुधवार को श्री कक्कुक ने अपनी कीर्ति की वृद्धि करने हेतु रोहिन्सकूप ग्राम में एक बाजार बनवाया जो महाजनों, विप्रों, क्षत्रियों एवं व्यापारियों से भरा रहता था।
• भोज प्रतिहार की ग्वालियर प्रशस्ति
• प्रतिहारों की उत्पति के विषय में ग्वालियर में मिली हुई कन्नोज के प्रतिहार सम्राट भोज के समय की प्रशस्ति में लिखा है कि –
• मन्विक्षा कुक्कुस्थ (त्स्थ) मूल पृथव: क्ष्मापाल कल्पद्रुमाः।2।।
• तेषां वंशे सुजन्मा क्रमनिहतपदे धाम्नि वजैषु घोरं,
• रामः पौलस्त्य हिन्श्रं (हिस्रं) क्षतविहित समित्कर्म्म चक्रे पलाशेः ।
• श्लाघ्यस्तस्यानुजो सौ मधवमदमुषो मेघनादस्य संख्ये,
• सौमित्रिस्तीव्रदंडः प्रतिहरण विर्धर्यः प्रतिहार आसीत् ।।3।।
• तावून्शे प्रतिहार केतन भृति त्रैलोक्य रक्षा स्पदे
• देवो नागभटः पुरातन मुने मूर्तिब्बमूवाभिदुत्तम ।।2
• अर्थात् ‘सूर्यवंश में मनु, इक्ष्वाकु, काकुस्थ आदि राजा हुए, उनके वंश में पौलस्त्य (रावण) को मारने वाले राम हुए, जिनका प्रतिहार उनका छोटा भाई सौमित्र (लक्ष्मण) था, उसके वंश में नागभट्ट हुआ। आगे चलकर इसी प्रशस्ति में वत्सराज को इक्ष्वाकु वंश को उन्नत करने वाला कहा है। इसी प्रशस्ति के सातवें श्लोक में वत्सराज के लिये लिखा है कि उस क्षत्रिय पुगंव ने बलपूर्वक भडिकुल का साम्राज्य छीनकर इक्ष्वाकु कुल की उन्नति की।
• कवि राजशेखर सम्राट भोज, महेन्द्रपाल और महीपाल के दरबार में कन्नोज में था। वह महेन्द्रपाल का गुरु भी था। उसने विद्धशाल भंजिका नाटक में अपने शिष्य महेन्द्रपाल को रघुकुल तिलक लिखा है। बाल भारत में रघुग्रामणी लिखा और बालभारत नाटक में महेन्द्रपाल के पुत्र महीपाल को रघुवंश मुतामणि लिखा है।3
• रघुकुल तिलको महेन्द्रपाल: (विद्धशाल भंजिका, 1/6)
• देवा यस्य महेन्द्रपालनृपतिः शिष्यो रघुग्रामणिः (बालभारत, 1/11)
• तेन (महीपालदेवेन) च रघुवंश मुक्तामणिना (बालभारत)�Reply ……..��
श्री गाजण माता यूथ ब्रिगेड राजस्थान January 21,2019 at 10:24 PM�चाटसू का बालादित्य गुहिल का वि. सं. 870 ईस्वी 813 का प्राप्त लेख है। इस अभिलेख में गुहिल वंश और उसके शासकों के वर्णनों में सुमन्त्र भट्ट की युद्ध वीरता, पराक्रम, शौर्य आदि के साथ कला प्रेमी होने की तुलना रघुवंशी काकुत्स्थ की समानता से की गई है। (रघुवंशी काकुत्स्थ भीनमाल के नागभट्ट प्रतिहार प्रथम का भतीजा था तथा उसके बाद भीनमाल का शासक हुआ।)
• चौहानों के शेखावाटी के हर्षनाथ (पहाड़) के मन्दिर की वि. सं. 1030 ईस्वी 973 की विग्रहराज की प्रशस्ति में इसके पिता सिंहराज के वर्णन में लिखा है कि इस विजयी राजा ने सेनापति होने के कारण उद्धत बने हुए तोमर नायक सलवण को तब तक कैद में रखा जब तक कि सलवण को छुड़ाने के लिये पृथ्वी पर का चक्रवर्ती रघुवंशी स्वयं उसके यहाँ नहीं आया। इस रघुवंशी चक्रवर्ती का तात्पर्य कन्नोज के प्रतिहार सम्राट से हैं।
• तोमरनायक सलवण सैन्याधिपत्योद्धतं
• यद्धे येन नरेश्वराः प्रतिदिशं विन्ने (णार्णा) र्शिता जिष्णुना ।
• कारावेश्मनि भूरयश्रुच विधृतास्तावद्धि यावद्गृहे
• तन्मुक्तयर्थमुपागतो रघुकुले भू चक्रवर्ती स्वयम्।।4
• ओसियां के महावीर मन्दिर का लेख जो कि वि. सं. 1013 ईस्वी 956 का है तथा संस्कृत और देवनागरी लिपि में है उसमें उल्लेख किया गया है कि-
• तस्या काषत्किल प्रेम्णालक्ष्मणः प्रतिहारताम्।
• ततो अभवत् पतिहार वंशो राम समुवः ।।6।।
• तद्वंद्भशे सबशी वशी कृत रिपुः श्री वत्स राजोऽभवत।5
• अर्थात् लक्ष्मण ने प्रेमपूर्वक उनके प्रतिहारी का कार्य किया, अनन्तर श्री राम से प्रतिहार वंश की उत्पत्ति हुई। उस प्रतिहार वंश में शत्रुओं को अपने वश में करने वाला श्री वत्सराज हुआ। जिसके द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों आदि की रक्षा की गई।
• मंडौर के प्रतिहार क्षत्रिय वंश के, कन्नौज के प्रतिहार सम्राटों के, चाटसू के गहलोतों के, साम्भर के चौहान आदि के लेख प्रतिहारों को रघुवंशी सम्राट रामचन्द्र के लघुभ्राता लक्ष्णम के वंशज होना सिद्ध कर रहे हैं।
• सन्दर्भ :
• ज. रा. ए. सो, इस्वी-1895 पृष्ठ 517-18
• आर्कियालाजिक सर्वे ऑफ़ इंडिया, एन्युअल रिपोर्ट ईस्वी सन 1903 पृष्ठ 280
• राजपूताने का इतिहास, प्रथम भाग- पृष्ठ 65, ओझा
• एपियाग्राफिका इन्डिका, जिल्द-2, पृष्ठ 121-122
• राजस्थान के प्रमुख अभिलेख, सं. सुखवीरसिंह गहलोत पृष्ठ 122�Reply…..��
• Kanishk Singh Tanwar March 2019 , 10:52 AM�गुर्जरदेश
• यशोधर्मन विक्रमादित्य" मालवा या उज्जैन के गुर्जर शासक थे। उनकी राजधानी मंदसौर में थी।
• वह गुर्जरों के चाप वंश से था। उसने गुप्त राजाओं के सामंत के रूप में मालवा पर शासन किया। इस चैप राजवंश ने बाद में सामंतों के रूप में वल्लभी के मैत्रिकों की सेवा की।
• प्रसिद्ध कवि कालीदास उनके दरबार में थे। (और चंद्रगुप्त -2 के दरबार में नहीं।) कुछ विद्वानों का दावा है कि कालिदास का विक्रमादित्य यह यशोधर्मन ही था।
• यशोधरमन द्वारा "गुर्जरदेश" नाम की स्थापना 480 ई। में की गई थी (पहले यह गुजरात था), वह अपने उपनाम से चप था जैसा कि वसंतगढ़ में स्तंभ के शिलालेख में लिखा गया था। मंदसौर और नालंदा के पिल्लर शिलालेखों के अनुसार, उन्हें गुर्जरदेश के संस्थापक के रूप में उल्लेख किया गया था। उन्होंने 528 ईस्वी में हुना राजा मिहिरगुल को हराने के बाद नरपति गुर्जर की उपाधि ली।
• �Reply…..��
• Kanishk Singh Tanwar March 2019 10:58 AM
• �चीनी यात्री हेन सांग ने भीनमाल का बड़े अच्छे रूप में वर्णन किया है। उसने लिखा है कि “भीनमाल का 20 वर्षीय नवयुवक क्षत्रिय राजा अपने साहस और बुद्धि के लिए प्रसिद्ध है और वह बौद्ध-धर्म का अनुयायी है। यहां के चापवंशी गुर्जर बड़े शक्तिशाली और धनधान्यपूर्ण देश के स्वामी हैं।”
• हेन सांग (629-645 ई.) के अनुसार सातवी शताब्दी में दक्षिणी गुजरात में भड़ोच राज्य भी विधमान था| भड़ोच राज्य के शासको के कई ताम्र पत्र प्राप्त हुए हैं, जिनसे इनकी वंशावली और इतिहास का पता चलता हैं| इन शासको ने स्वयं को गुर्जर राजाओ के वंश का माना हैं| मंडोर के प्रतिहारो और उनके समकालीन भड़ोच के गुर्जरों की वंशावली के तुलान्तामक अध्ययन से पता चलता हैं कि इन वंशो के नामो में कुछ समानताए हैं| भड़ोच के ‘गुर्जर नृपति वंश’ के संस्थापक का नाम तथा मंडोर के प्रतिहार वंश के संस्थापक हरिचन्द्र के चौथे पुत्र का नाम एक ही हैं- दद्द| कुछ इतिहासकार इन दोनों के एक ही व्यक्ति मानते हैं| दोनों वंशो के शासको के नामो में एक और समानता ‘भट’ प्रत्यय की हैं| भट का अर्थ योद्धा होता हैं| मंडोर के प्रतिहारो में भोग भट, नर भट और नाग भट हैं तो भड़ोच के गुर्जर वंश में जय भट नाम के ही कई शासक हैं| दोनों वंशो के शासको के नामो की समानताओ के आधार पर इतिहासकार भड़ोच के गुर्जर वंश को मंडोर के प्रतिहारो की शाखा मानते हैं| किन्तु इसमें आपत्ति यह हैं कि भड़ोच के गुर्जर अपने अभिलेखों में महाभारत के पात्र ‘भारत प्रसिद्ध कर्ण’ को अपना पूर्वज मानते हैं नाकि मंडोर के प्रतिहारो की तरह रामायण के पात्र लक्ष्मण को|
• Dono ne madore or Bhadauch ke Raja agar pratihar the to dono ne apne vansajo ko alag alag btaya to kya dono pratihar hote hue alag alag vansh ke the
• To bewkoof pratihar ek tital tha
• �Reply………��
• Kanishk Singh Tanwar March 3, 2019 10:59 AM
• �ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड में एक श्लोक है -
• क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह”
• अर्थात् क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होवे उसे राजपूत कहते हैं।
• वैश्य पुरुष और शूद्र कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।
• सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ व संस्कृत के विद्वान् पं० चिन्तामणि विनायक वैद्य के मतानुसार ई० सन् 800 से 1100 के बीच राजपुत्र बने हैं।
• Kanishk Singh Tanwar March 3 ,2019 11:00 AM
• प्राचीन ग्रन्थों में न तो राजपूत जाति का उल्लेख है और न राजपूताने*�गुर्जर दुनिया की एक महान जाति है। गुर्जर ऐतिहासिक काल से भारत पर शासन कर रहे थे, बाद में कुछ गुर्जर की औलाद को मध्यकाल में राजपूत कहा जाता था। राजपूत, मराठा, जाट और अहीर, क्षत्रियों के उत्तराधिकारी हैं। वे विदेशी नहीं हैं। हम सभी को छोड़कर कोई भी समुदाय क्षत्रिय नहीं कहलाता है। उस क्षत्रिय जाति को कैसे खत्म किया जा सकता है जिसमें राम और कृष्ण पैदा हुए थे। हम सभी राजपूत, मराठा, जाट और अहीर सितारे हैं, जबकि गुर्जर क्षत्रिय आकाश में चंद्रमा हैं। गुर्जर की गरिमा मानव शक्ति से परे है .. (शब्द - ठाकुर यशपाल सिंह राजपूत
• गुर्जर तंवर राजाओ की औलाद से तंवर राजपूत और तोमर राजपूत बने(शब्द महेंदर सिंह खेतासर राजपूत)���
Kanishk Singh Tanwar March 3,2019 11:01 AM
�प्रतिहार एक उपाधि(tital) थी जो राष्ट्रकूट राजा ने गुर्जर राजा को दी थी👇👇👇👇👇👇👇
• 1. सज्जन ताम्रपत्र (871 ई. ) :---
• अमोघ वर्ष शक सम्वत
• 793 ( 871 ई . ) का
• सज्जन ताम्र पञ ) :---- I
• इस ताम्रपत्र अभिलेख मे लिखा है। कि राष्ट्र कूट शासक दन्तिदुर्ग ने 754 ई. मे "हिरण्य - गर्भ - महादान " नामक यज्ञ किया अवांछित और खंडित दासवतारा गुफा शिलालेख का उल्लेख है कि दांतिदुर्ग ने उज्जैन में उपहार दिए थे और राजा का शिविर गुर्जरा महल उज्जैन में स्थित था (मजूमदार और दासगुप्त, भारत का एक व्यापक इतिहास)।
• अमोगवरास (साका संवत 793 = एडी 871) के संजन तांबे की प्लेट शिलालेख दांतिदुर्ग को उज्जैनिस दरवाजे के रखवाले (एल, वॉल्यूम XVIII, पृष्ठ 243,11.6-7)तो इस शुभ अवसर पर गुर्जर आदि राजाओ ने यज्ञ की सफलता पूर्वक सचालन हेतु यज्ञ रक्षक ( प्रतिहार ) का कार्य किया । ( अर्थात यज्ञ रक्षक प्रतिहारी का कार्य किया )और प्रतिहार नाम दिया
• ( " हिरणय गर्भ राज्यनै रुज्जयन्यां यदसितमा प्रतिहारी कृतं येन गुर्जरेशादि राजकम " )
• Pad le or sun Akela ek Gurjar vansh nh tha wha par padhna thang
• Kanishk Singh Tanwar March 3,2019 at 11:02AM
• �गुर्जर जाति ने अनेक स्थानों को अपना नाम दिया। गुर्जर जाति के आधिपत्य के कारण आधुनिक राजस्थान सातवीं शताब्दी में गुर्जर देश कहलाता था। गुर्जर राज्य हर्षवर्धन (606-647 ई.) के दरबारी कवि बाणभट्ट ने हर्षचरित नामक ग्रन्थ में हर्ष के पिता प्रभाकरवर्धन का गुर्जरों के राजा के साथ संघर्ष का ज़िक्र किया हैं। संभवतः उसका संघर्ष गुर्जर देश के गुर्जरों के साथ हुआ था। अतः गुर्जर छठी शताब्दी के अंत तक गुर्जर देश (आधुनिक राजस्थान) में स्थापित हो चुके थे। हेन सांग ने 641 ई. में सी-यू-की नामक पुस्तक में गुर्जर देश का वर्णन किया हैं। हेन सांग ने मालवा के बाद ओचलि, कच्छ, वलभी, आनंदपुर, सुराष्ट्र और गुर्जर देश का वर्णन किया हैं। गुर्जर देश के विषय में उसने लिखा हैं कि ‘वल्लभी के देश से 1800 ली (300 मील) के करीब उत्तर में जाने पर गुर्जर राज्य में पहुँचते हैं| यह देश करीब 5000 ली (833 मील) के घेरे में हैं। उसकी राजधानी भीनमाल 33 ली (5 मील) के घेरे में हैं। ज़मीन की पैदावार और रीत-भांत सुराष्ट्र वालो से मिलती हुई हैं। आबादी घनी हैं लोग धनाढ्य और संपन्न हैं। वे बहुधा नास्तिक हैं, (अर्थात बौद्ध धर्म को नहीं मानने वाले हैं)। बौद्ध धर्म के अनुयाई थोड़े ही हैं। यहाँ एक संघाराम (बौद्ध मठ) हैं, जिसमे 100 श्रवण (बौद्ध साधु) रहते हैं, जो हीन यान और सर्वास्तिवाद निकाय के मानने वाले हैं। यहाँ कई दहाई देव मंदिर हैं, जिनमे भिन्न संप्रदायों के लोग रहते हैं। राजा क्षत्रिय जाति का हैं। वह २० वर्ष का हैं। वह बुद्धिमान और साहसी हैं। उसकी बौद्ध धर्म पर दृढ आस्था हैं और वह बुधिमानो का बाद आदर करता हैं।भीनमाल के रहने वाले ज्योत्षी ब्रह्मगुप्त ने शक संवत 550 (628 ई.) में अर्थात हेन सांग के वह आने के 13 वर्ष पूर्व ब्रह्मस्फुट नामक ग्रन्थ लिखा जिसमे उसने वहाँ के राजा का नाम गुर्जर सम्राट व्याघ्रमुख चपराना और उसके वंश का नाम चप (चपराना, चापोत्कट, चावडा) बताया हैं| हेन सांग के समय भीनमाल का राजा व्याघ्रमुख अथवा उसका पुत्र रहा होगा। भीनमाल का इतिहास गुर्जरों का नाता कुषाण सम्राट कनिष्क से जोड़ता हैं। प्राचीन भीनमाल नगर में सूर्य देवता के प्रसिद्ध जगस्वामी मन्दिर का निर्माण काश्मीर के राजा कनक (सम्राट कनिष्क) ने कराया था। मारवाड़ एवं उत्तरी गुजरात कनिष्क के साम्राज्य का हिस्सा रहे थे। भीनमाल के जगस्वामी मन्दिर के अतिरिक्त कनिष्क ने वहाँ ‘करडा’नामक झील का निर्माण भी कराया था। भीनमाल से सात कोस पूर्व ने कनकावती नामक नगर बसाने का श्रेय भी कनिष्क को दिया जाता है। कहते है कि भिनमाल के वर्तमान निवासी देवड़ा/देवरा लोग एवं श्रीमाली ब्राहमण, कनक के साथ ही काश्मीर से आए थे। देवड़ा/देवरा, लोगों का यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि उन्होंने जगस्वामी सूर्य मन्दिर बनाया था। राजा कनक से सम्बन्धित होने के कारण उन्हें सम्राट कनिष्क की देवपुत्र उपाधि से जोड़ना गलत नहीं होगा। सातवी शताब्दी में यही भीनमाल नगर गुर्जर देश की राजधानी बना। ए. कनिघंम ने आर्केलोजिकल सर्वे रिपोर्ट 1864 में कुषाणों की पहचान आधुनिक गुर्जरों से की है और उसने माना है कि गुर्जरों के कसाना गौत्र के लोग कुषाणों के वर्तमान प्रतिनिधि है गुर्जर देश से गुर्जरों ने पूर्व और दक्षिण की तरफ अपना विस्तार किया। 580 ई के लगभग दद्दा गुर्जर I ने दक्षिणी गुजरात के भडोच इलाके में एक राज्य की स्थापना कर ली थी। अपने अधिकांश शासन काल के दौरान भडोच के गुर्जर वल्लभी के मैत्रको के सामंत रहे। भगवान जी लाल इंद्र के अनुसार वल्लभी के मैत्रक भी गुर्जर थे। गुर्जर मालवा होते हुए दक्षिणी गुजरात पहुंचे और भडोच में एक शाखा को वह छोड़ते हुए समुन्द्र के रास्ते वल्लभी पहुंचे। मैत्रको के अतरिक्त चावडा यानि चप (चपराना) गुर्जर भी छठी शताब्दी में समुन्द्र के रास्ते ही गुजरात पहुंचे थे। गुजरात में चावडा सबसे पहले बेट-सोमनाथ इलाके में आकर बसे। छठी शताब्दी के अंत तक चालुक्यो ने दक्कन में वातापी राज्य की स्थापना कर ली थी। होर्नले के अनुसार वो हूण गुर्जर समूह के थे। मंदसोर के यशोधर्मन और हूणों के बीच मालवा में युद्ध लगभग 530 ई. में हुआ था। होर्नले का मत हैं कि यशोधर्मन से मालवा में पराजित होने के बाद हूणों की एक शाखा नर्मदा के पार दक्कन की तरफ चली गई। जिन्होने चालुक्यो के नेतृत्व वातापी राज्य की स्थापना की।��
• Kanishk Singh Tanwar March 3,2019 at 11:03 AM�जिस देश के व्यक्ति शत्रुओं के आक्रमणों और परिश्रम आदि को नष्ट करने वाले हों उन साहसी सूरमाओं को गुर्जर कहा जाता है। शत्रु के लिए युद्ध में भारी पड़ने के कारण इन्हें पहले गुरुतर कहा गया, किसी के मतानुसार बड़े व्यक्ति के नाते गुरुजन कहकर अपभ्रंश स्वरूप ‘गुर्जर’ शब्द का चलन हुआ। पं० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के अनुसार प्राचीनकाल में गुर्जर नामक एक राजवंश था। अपने मूल पुरुषों के गुणों के आधार पर इस वंश का नाम गुर्जर पड़ा था। उस पराक्रमी गुर्जर के नाम पर उनके अधीन देश ‘गुर्जर’, ‘गुर्जरात्रा’ और ‘गुर्जर देश’ प्रसिद्ध हुए।��
• �Kanishk Singh Tanwar , March 3 , 2019 at 11:04 AM�श्री के० एम० मुन्शी ने स्वीकार किया है कि छठी शताब्दी के प्रारम्भ से पहले अर्थात् शकराजा रुद्रदामा आदि के समय गुर्जर प्रदेश, गुर्जरात्रा अर्थात् गुजरात नाम का कोई प्रदेश नहीं था, और यह भी स्वीकार किया है कि सन् 500 ई० के तुरन्त पश्चात् ही आबू पर्वत के चारों ओर का विस्तृत क्षेत्र ‘गुर्जर प्रदेश’ के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हो गया। उस समय आबू के चारों ओर ऐसे कुलों का समूह बसता था, जिनका रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, भाषा एवं रीति-रिवाज एक थे, और वह शुद्ध आर्य संस्कृति से ओत-प्रोत थे। उनके प्रतिहार, परमार, चालुक्य (सोलंकी) व चौहान आदि वंशों के शासक, वीर विजेता अपनी विजयों के साथ अपनी मातृभूमि गुर्जर देश या गुर्जरात्रा आदि का नाम (गुर्जर) चारों ओर के भूखण्डों में ले गये। गुर्जर देश गुर्जरात्रा या गुजरात की सीमाएं स्थायी नहीं थीं, बल्कि वे गुर्जर राजाओं के राज्य विस्तार के साथ घटती बढती रहती थीं। उससे भी गुर्जर जाति ही सिद्ध होती है और देश (गुर्जर देश) की सीमाएं उक्त जाति के राज्य विस्तार के साथ ही घटती बढती रहती थीं1।
• गूजर शब्द पहली बार सन् 585 ई० में सुना गया, जब हर्षवर्धन के पिता प्रभाकरवर्धन ने इनको पराजित किया। उससे पहले गूजर नाम प्रकाशित नहीं था। गुजरात प्रान्त का नाम भी दसवीं शताब्दी के बाद पड़ा, इससे पहले इस प्रान्त का नाम लॉट था।
• प्रस्तुति:- एडवोकेट दिवाकर बिधूडी गुर्जर। 🌹🙏

1857 की जनक्रांति

  1857 की जनक्रांति के जनक कोतवाल धनसिंह गुर्जर पर इतिहास लेखन: (डॉ सुशील भाटी) 10 मई 1857 को मेरठ से, ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरोध में, शु...