Thursday, 24 November 2016

मारवाड़ का इतिहास history of marwar

मारवाड़ का इतिहास
राजस्थान की  अरावली पर्वतमाला के पष्चिमी भाग को ‘मारवाड़‘ के नाम से जाना जाता है, जिसमें मुख्यतः जोधपुर, बीकानेर, जालौर, नागौर, पाली, एवं आसपास के क्षेत्र शामिल होते हैं । इस भू-विभित्र काल – खण्डों  में अलग – अलग लोगो का शासन रहा। यहा के इतिहास की विश्वसनीय जानकारी छठी शताब्दी से उपलब्ध होती है। यहा प्रमुख राजवंषों का संक्षिप्त-अध्ययन निम्र प्रकार है।
गुर्जर – प्रतिहार:-
1.    उत्तरी – पष्चिमी भारत मे गुर्जर प्रतिहार वंष का षासन मुख्यतः आठवी से 10वीं सदी तक रहा। प्रारंभ मंे इनकी षक्ति का मुख्य केंद्र मारवाड़ था। उस समय राजपूताना का यह क्षेत्र गुर्जरात्रा (गुर्जर प्रदेष) कहलाता था। गुर्जर क्षेत्र के स्वामी होने  के कारण प्रतिहारों को गुर्जर-प्रतिहार कहा जाने लगा था। इसी कारण तत्कालीन मंदिर-स्थापत्य की प्रमुख कला षैली को गुर्जर-प्रतिहार शैली की संज्ञा दी गई है।
2.    आठवीं से दसवीं सी तक राजस्थान के गुर्जर-प्रतिहारों की तुलना में कोई प्रभावी  राजपुत वंष नही था। इनका आधिपत्य न केवल राजस्थान के पर्याप्त भू-भाग पर था बल्कि सुदूर ‘कन्नौज‘ नगर पर अधिकार हेतु 100 वर्षो तक गुर्जर प्रतिहारों, बंगाल के पालों एंव दक्षिण राष्ट्र कूटों के मध्यय अनवरत संघर्ष (त्रिपक्षीय संघर्ष) चलता रहा जिसमें अंततः विजयश्री गुर्जर प्रतिहारों को ही मिली है।
राजस्थान में गुर्जर-प्रतिहार की दो शाखाओं का अस्तित्व था-
1.मंडोर शाखा   2.भीनमाल (जालौर) शाखा
राजस्थान मे  गुर्जर-प्रतिहार की प्रारंभिक राजधानी मेडोर (जोधपुर) थंी। प्रतिहार षासन नागभट्ट प्रथम ने  आठवी शताब्दी में भीनमाल पर अधिकार कर उसे अपनी राजधानी बनाया ।बाद में इन्होने उज्जैन को अपने अधिकार में कर लिया एवं उज्जैन इनकी षक्ति का पुमुख केन्द्र हो गया । नागभट्ट प्रथम के उत्तराधिकारी कक्कुक एंव देवराज थे, परन्तु इनका षासनकाल महत्वपूर्ण नहीं था।
 वत्सराज (778-781 ई,):-
1.    देवराज का पुत्र वत्सराज गुर्जर-प्रतिहार वंष का प्रतापी शासन हुआ। उसने माण्डी वंष की पराजित किया तथा बंगाल के धर्मपाल को भी पराजित कियां। वत्सराज को ‘रणहस्तिन्‘  कहा गया है।
 नागभट्ट  द्वितीय (815 -833 ई.)
1.    वत्सराज का उत्तराधिकारी  उसकी पुत्र नागभट्ट द्वितीय सन् 815 मंे गद्दी पर बैठा। उसने 816 ई. मंे कत्रौज पर  आक्रमण पर चक्रायुद्ध (धर्मपाल द्वारा नामजाद षासक) को पराजित किया तथा। कत्रौज को प्रतिहार वंष की राजधानी बनाया तथा 100 वर्षाे से चले आ रहे त्रिपक्षीय संघर्ष को समाप्त किया। उसने बंगाल के पाल षासक धर्मराज  को पराजित कर मुंगेर पर अधिकार कर लिया । उसके समय प्रतिहाार उत्तरी भारत की सबसे षक्तिषाली राज्य बन चुका था। नागभट्ट द्वितीय ने अरब आक्रमणों को रोके रखने में महत्त्वपुर्ण भूमिका निभाई । उसने सन् 833 ई.  गंगा  में जल समाधि ली । नागभट्ट द्वितीय के समय प्रतिहार साम्राज्य का विस्तार राजपूताना के एक बडे़ भाग, आधुनिक उत्तर  प्रदेष के वृहत् क्षेत्र, मध्य भारत, उत्तरी काठियावाड़ एवं आसपास के क्षेत्रों तक हो गया था। नागभट्ट द्वितीय के बाद उसके पुत्र रामभद्र ने 833 ई. में षासन की बागडोर संभाली। परन्तु उसके अल्प षासनकाल (3 वर्ष) में कोई उल्लेखनीय कार्य नही हुआ प्रतिहारों की क्षति क्षीण हुई।
मिहिर भोज (836 – 885 ई.):
रामभद्र के उत्तराधिकारी मिहिर भोज (या मिहिर) के षासनकाल में प्रतिहारों की षक्ति अपने चरमोत्कर्ष पर पहुॅची। उसने बुन्देलखण्ड तक अपने वंश का राज्य पुनः स्थापित किया। इसका षासन पूर्वी पंजाब, अधिकांश राजपुताना उत्तर प्रदेश का अधिकांष भाग, सालवा, सौराष्ट्र एवं ग्वालियर तक विस्तृत हो गया ता। अरब यात्री ‘सुलेमान‘ ने (851 ई.) मिहिर भोज के कुषल प्रषासन एवं षक्तिषाली सेना की प्रशंसा की है राष्ट्रकूट षासक ध्रुव के मिहिर भोज के दक्षिणी क्षेत्रों में विजय अभियान पर रोक लगाई। परन्तु बाद में भोज ने राष्ट्रकूट षासन कृष्णा तृतीय को पराजित कार मालवा पर अधिकार कर लिया था । मिहिरभोज ने आदिवराह, प्रभास आदि विरूद धारण किये।
महेन्द्रपाल प्रथम: (885 – 910 ई.)
महेन्द्रपाल प्रथम के बाद षासन पर अधिकार हेतु संधर्ष छिड़ गया। महिपाल ने षासन की बागडोर संभाली। लेकिन तंब तक राष्ट्रकूट नरेष इन्द्र तृतीय ने प्रतिहारो को हराकर कत्रौज को नष्ट कर दिया उसके समय अरब यात्री ‘अल मसूदी‘ उसके राज्य में यात्रा पर आया था।
अंतिम प्रतिहार षासकों में एक षासक राज्यपाल था जिसके षासनकाल मंे सन् 1018 ई. मंे महमूद गजनवी ने  कन्नौज पर आक्रमण किया परन्तु राज्यपाल  मुकाबला करने के स्थान पर क़त्रौज छोड़कर सुरक्षित स्थान पर क़त्रौज  छौड़कर सुरक्षित स्थान पर अन्यत्र चला गया। उसके इस कायरतापुर्ण कार्य के फलस्वरूप चन्देल राजा गंड तथा उसके पुत्र विद्याधर ने उस पर आक्रमण कर उसे मार डाला। अन्ततः 11वीं सदी के पूर्वार्द्ध मंे ही गहड़वालों ने कत्रौज पर अधिकार कर अपना षासन स्थापित कियां। सन् 1036 ई. के एक अभिलेख में उल्लिखित यषपाल देव संभवतः अंतिम गुर्जर प्रतिहार षासन था। प्रारंभिक प्रतिहार षासकों की जानकारी भोज प्रतिहार की ग्वालियर प्रषस्ति, उद्योतन सूरी रचित ‘कुवलयमाला‘ पुरातन प्रबंध संग्रह एवं हरिवंष पुराण से मिलती है।
प्रतिहारों की मंडोर षाखा के एक षासक ने मेड़ता (मेड़न्तक) को अपनी राजधानी बनाया था इसी षाखा के षासक कक्क ने कत्रौज के प्रतिहार षासन नागभट्ट द्वितीय की और से बंगाल (गौड़ क्षेत्र) के षासक धर्मपाल के विरूद्ध युद्ध
आबू के परमार
परमार वंश का षासन राजस्थान माउन्टआबू एवं उसके आसपास के क्षेंत्रों पर था। इस वंश मूल पुरूष धुंधक था। इसी वंश के राजा धुंधक ने आबू का दण्डपति महाजन विमलषाह को बनाया, जिसने दिलवाड़ा के प्रसिद्ध आदिनाथ जैन मंदिर (विमलशाही) का निर्माण 1031 ई. में करवाया।
आबू के अलावा जालौर, वागड़ तथा मालवा पर भी परमारों के षासन का उल्लेख मिलता है वागड़ में इनकी राजधानी आर्थूणा थी, यहा इन्होंने कई मंदिर का निर्माण करवाया जो आज भी इनके वैभव की कहानी कहते है। मालवा का राजा भोज परमार एक प्रतापी षासक हुआ है जिसने स्वयं अनेक ग्रथों की रचना की एंव साहित्य तथा संगीत के उत्थान मंे योगदान दिया। 13वीं सदी के अंत तक परमार षासन का अंत हो गया था।
राठौड़ वंश:-
राजस्थान के राठौड़ों की उत्पत्ति के संबंध मं विभित्र मत हैं। मुणोत ने इन्हें कत्रौज के शासक जयचन्द गड़हवाल का वंषज माना है दयालदास की बीकानेर रा राठौड़ौ री ख्यात, जोधपुर की ख्यात, पृथ्वीराज रासौ आदि में भी इसी मत का समर्थन किया गया है जबकि पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा इन्हें  बदायु के राठोडों का वंषज मानते है। कुछ इतिहासकार इन्द्र दक्षिण  के राष्ट्रकूटों से उत्पन्न मानते है। परन्तु अधिकांष इतिहासकार मुहणात नैणसी के मत के पक्षधर है । इनके अनुसार जब मुहम्मद गौरी ने 1193 ई. मे कत्रौज पर आक्रमण कर राठौड़ जयचन्द गहड़वाल  को हराकर उसका राज समाप्त कर दिया तक कुछ वर्षाे बाद जयचन्द्र के पौत्र सीहाजी अपने कुछ राठौड़ सरादारों के साथ 13वीं सदी में राजस्थान का गये और पाली के उत्तर-पश्चिम में अपना छोटा सा राज्य स्थापित किया। सीहा के  उत्तराधिकारियों ने धीर-धीरे अपने का विस्तार किया। इस प्रकार राव सीहा मारवाड़ के राठौड़ वंश  के संस्थापक एवं आदि पुरूष थे।
राव चूडा :
राव सीहा के वंषज वीरमदेव का पुत्र राव चूडा इस वंष का प्रथम प्रतापी षासक हुआ, जिसने  माॅडू के सूबेदार से मंडोर दुर्ग छीनकर उसे अपनी राजधानी बनाया। उसने अपना राज्य विस्तार नाडौल, डीडवाना, नागौर आदि क्षेत्रों तक कर लिया। राव चूॅडा द्वारा अपने ज्येष्ट पुत्र को अपना उत्तराधिकारी न बनाये जाने पर उनका ज्येष्ट पुत्र रणमल मेवाड़ नरेष महाराणा लाखा की सेवा मंे चला गया । वहा उसने  अपनी बहन हंसाबाई का विवाह राणा लाखा से इस षर्त पर किया की उसने उत्पत्र पुत्र ही मेवाड़ का उत्तराधिकारी होगा।कुछ समय पष्चात रणमल ने मेवाड़ की सेना लेकर मंडोर पर आक्रमण किया और सन् 1426 में उसे अपने अधिकार में ले लिया । महाराणा लाखा के बाद उनके पुत्र मोकल तथा उनके बाद महाराणा कुंभा के अल्पवयस्क काल तक मेवाड़ के षासन की देखरेख रणमल के हाथों में ही रही। परंतु कुछ सरदारों के बहकावे में आकर महाराणा कुंभा ने सत् 1438 ई. में रणमल की हत्या करवा दी ।
राव जोधा (1438-1489 ई.)
अपने पिता रणमल की हत्या हो जाने के तुरंत बाद उनके पुत्र राव रोधा चुपचाप मेवाड़ से निकल भगा परंतु मेंवाड़ की सेना ने स्व. महाराणा मोकल के ज्येष्ठ भ्राता रावत चूॅडा के नेतृत्त्व में उनका पीछा किया औश्र मंडोर के किले पर मेवाड़ का अधिकार कर लिया। राव जोधा ने सन् 1453 ई. मे पुनः मडोर एवं आसपास के क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया। सन् 1459 में राव जोधा चिडि़याटूॅक महाड़ी पर जोधपुर दुर्ग (मेहरानगढ़) का निर्माण करवाया और इसके पास वर्तमान जोधपुर षहर बसाया। उनके समय जोधपुर राज्य का अत्यधिक विस्तार हो चुका था। 1489 में राव जोधा की मृत्यु हो गई।
राव मालदेव (1531-1562):
अपने पिता राव गांगाजी की मृत्यु के बाद राव मालदेव 5 जून, 1531 को जोधपुर को सिंहासन पर बिठाने में पूरी सहायता  प्रदाान की । उन्होने सन्् 1541 में बीकानेर नरेष राव जैतसी को हरा बीकानेर पर अधिकार कर लिया। मुगल बादषाह हूमायॅॅू षेरषाह सूरी से हारने के बाद इनकी सहायता लेने के उद्देष्य से 1542 ई. में मारवाड़ आया था। राव मालदेव ने उसका उचित सत्कार कर सहायता का वचन दिय परंतु बाद में हुमायूॅ अमरकोट की तरफ चला गया।
गिरि सुमेल युद्ध -1543
1543 ई. में दिल्ली के अफगान बादषाह षेरषाह सूरी  ने मालदेव पर चढ़ाई की। जैतारण जिला पाली के निकट गिरि-सुमेल नामक स्थान पर जनवरी, 1544 में दानों  की सेनाओं के मध्य युद्ध हुआ जिसमें षेरषाह सूरी की बड़ी कठिनाई से विजय हुई। तब उसने कहा था कि ‘‘मुट्टी भर बाजरी के लिए मैनंे हिन्दुस्तान की बादषाहत खो दी होती ।‘‘ इस युद्ध मंे मालदेव के सबसे विष्वसस्त वीर सेनानायक जैता एंव कूॅपा मारे गए थे । इसके बाद षेरषाह के दुर्ग पर आक्रमण कर अपना अधिकार कर लिया तथा वहाॅ का प्रबन्ध खवास खाॅ को संभला दिया। मालदेव ने कुछ समय बाद पुनः समस्त क्षेत्र पर अपना अधिकार लिया था। 7 नवम्बर, 1562 को उसकी मृत्यु हो गई। मालेव न केवल  एक योद्धा एवं प्रतापी षासक ही था बल्कि एक भवन निर्माता भी था। उसने पोकरण का किला, कालकोट किला (मेड़ता), सोजत, सारन, रीया आदि किलों का निर्माण करवाया।
राव चन्द्रसेन  (1562-1581 ई.)
राव चन्द्रसेन मारवाड नरेश राव मालव के छठे पुत्र थे। इनका जन्म 16 जलाई, 1541 को हुआ। राव मालदेव के देहान्त के बाद उन्हों की इच्छानुसार उनका कनिष्ठ पुत्र राव चन्द्रसेन 1562 में जोधपुर की गद्दी पर बैठा। उस समय राव चंद्रसेन के तीनों बडे़ भाइयों  में सबसे बडे़ भाई  रामसिंह  अपनी जागीर गूॅदोच में, दूसरे रायमल्ल सिवाना में और तीसरे उदयसिंह फलोदी में थे। इस राज्यारोहण से असंतुष्ट सामंतों ने राव चंद्रसेन के भाइयों मंे कलह उत्पत्र कर दी । सन् 1563 में राव चन्द्रसेन ने  अपने  भाई रामंसिह  पर चढ़ाई  की । राम अपनी विजय की आषा न देखकर नागौर के षाही हाकिम हुसैन कुली बेग के पास चला गया और सहायता मांगी ।राव चंद्रसेन व उनके भाइयों की कलह का लाभ मुगल बादषाह  अकबर न उठाया। अकबर ने नागौर में अपने हाकिम हुसैनकुली बेग को राव चंद्रसेन पर चढ़ाई कर  जोधपुर का किला छीनने का आदेश दिया। युद्ध के दौरान राव चंद्रसेन परिवार सहित महल से चले गए 1564 ई. मं जोधपुर किले पर मुगल सेना का अधिकार हो गया।
नागौर दरबार:-
नवम्बर, 1570 ई.  में अकबर अजमेर से नागोर पहुॅचा और वहा कुछ समय तक अपना दरबार लगाया। राजस्थान के कई राजपूत  राजा उसकी सेवा में वहाॅ उपस्थित हुए और अकबर  की अधीकता स्वीकार की जिनमें जैसलमेर नरेष रावल हरराय जी, बीकानेर  नेरष कल्याण मल जी व उनके पुत्र रायसिंह जी तथा राव चंद्रसेन के बड़े भाई उदयसिंह जी प्रमुख थे। राव चंद्रसेन जी भी भाद्रजूण से नागौर दरबार में आये  थे परंतु अन्य राजाओं की तरह उन्होने अकबर की गुलामी स्वीकार नहीं की एवं चुपचाप वहा से भाद्राजूण चले गये । इस पर अकबर उनसे नाराज हो गए और उनको अपने अधीन करने के लिए सन् 1574 ई. में जलाल खाॅ व 1576-77 में षाहबाज खाॅ के नेतृत्व में अपनी सेनाएॅ भाद्राजूण भेजी। भाद्राजूण पर अकबर की सेना का अधिकार हो गया और राव चंद्रसेन वहाॅ से सिवाणा की तरफ निकल गये। इस प्रकार ‘नागौर दरबार‘ मारवाड़ की परतंत्रता की कड़ी मंे महत्त्वपूर्ण कड़ी साबित हुआ। अकबर ने इस दरबार के बाद जोधपुर का षासन बीकानेर के राजकुमार रायसिंह को संभला दिया।अकबर ने 30 अक्टूबर, 1572 ई. मंे बीकानेर के षासन कल्याणमल के पुत्र कुॅवर रायसिंह को जोधपुर का सूबेदार नियुक्त किया। अकबर ने सिवाणा पर भी एक मजबूत सेना भेज दी । इसमें षाहकुली खाॅ आदि मुसलमान  सेनानायाकांे के साथ ही  बीकानेर के राव रायसिंह जी, केषवदास मेड़तिया (जयमल का पुत्र,) जगतराय आदि हिन्दू नरेष और समंत थे। बादषाह की बड़ी इच्छा थी कि किसी तरह  राव चन्द्रसेन षाही  अधीनता  स्वीकार कर ले । यह सेना पहले  सोजत की तरफ गई और वहा पर इसने चन्द्रसेनजी के भतीजे कल्ला को हराया इसके बााद षाही सेना ने सीवाणा की तरफ प्रयाण किया। राव चन्द्रसेन अपने सेनापति  राठौड़ पत्ता को किले की रक्षा का भार सौपकर पीपलोद व काणूजा  पहाडि़यों  की तरफ  निकल गए। षाही सेना असफल रही । इसके बाद चन्द्रसेन जी को दबाने  के लिए 1574 इ. में जलाल खा को सिवाना भेजा गया लेकिन चन्द्रसेन के हाथों  वह मारा गया । फिर 1576-77 में षाहबाज खा के नेतृत्व में षाही सेना भेजी गई लेकिन चन्द्रसेन को पकड़ने में वह भी असफल रही।
राव चन्द्रसेन ने अंत में सारण के पर्वतों (सोजत) में अपना निवास कायम किया। यही पर सचियाप में 11 जनवरी 1581 को इनका अचानक स्वर्गवास  हो गया । सारण में जिस स्थान पर इनकी  दाह क्रिया की गई थी उस जगह इनकी संगमरमर की एक राव चन्द्रसेन की घोड़े पर सवार प्रतिमा अब तक विद्यमान है और उसके आगे 5 स्त्रियाॅ खड़ी है। इससे प्रकट होता है। कि उनके पीछे 5 सतिया हुई थी । राव चन्द्रसेनजी  ही अकबर कालीन राजस्थान के प्रथम मनस्वी वीर और स्वतंत्र प्रकृति के नरेष थे और  महाराणा प्रताप ने इन्हीं के दिखलाए मार्ग का अनुसरण किया था । वास्तव में उस समय राजपूताने  मे महाराणा प्रताप और राव  चन्द्रसेन यही दौ स्वाभिमानी  वीर  अकबर की आंखों के  कांटे बने थे।
राव चन्द्रसेन ऐसे प्रथम राजपूत षासक थे जिन्हों ने  रणनींंित में दूर्ग के स्थान पर जंगल और पहाड़ी क्षेत्र को अधिक महत्त्व दिया था। खुले युद्ध के स्थाप पर छापामार युद्ध प्रणाली  का महत्त्व स्थापित करने में राणा उदयसिंह के बाद वे दूसरे शासक थे। इस प्रणाली  का अनुसरण प्रताप ने किया था।
मोटाराजा राव उदयसिंह (1583-1595):-
राव चन्द्रसेन  के बडे़ भ्राता उदयसिंह नागौर दंरबार में अकबर की सेवा कर आ चुके थे, अतः इनकी वीरता व सेवा से प्रसन्न हो अकबर  ने उन्हें 4 अगस्त, 1583 को जोधपुर का षासक बना । दिया राव उदयसिंह  जोधपुर के प्रथम षासक थे जिन्होने मुगल  अधीनता स्वीकार कर अपनी पूत्री मानीबााई का विवाह षाहजादा सलीम से कर ंमुगलो से वैवाहिक संबंध स्थापित किये। राव उदयसिंह  ने अकबर  को अनेक युद्धों में विजय दिलवाई  और अन्ततः 1595 में लाहौर  में इनका   स्वर्गवास हुआ। मोटा राजा उदयसिंह ने मालदेव के समय प्रारंभ हुई सतत युद्ध की स्थिति को समाप्त कर जोधपुर  रियासत  को सुख शांति से जीने  का अवसर उपलब्ध कराया।
राव उदयसिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र षूरसिंह  जी सन् 1595 में जोधपुर के सिंहासन पर आसीन हुए। बादषाह अकबर ने षूरसिह  जी की वीरता से प्रसत्र हो 1604 ई. में इन्हेें ‘सवाई राजा‘ की उपाधि से सम्मानित किया। षाहजाा खुर्रम के मेवाड़ अभियान में षूरसिंह जी ने  उसका पूरा साथ दिया था। षूरसिंह  जी बड़े प्रतापी व बुद्धिमान राजा थे। राव मालदेव  के बाद इन्होने की मारवाड़ राज्य की वास्तविक उन्नति की । षूरसिंह के बाद उनके पुत्र राव राजसिंह को उपाधि दी एवं इनके घोडो को शाही  दाग से मुक्त कर दिया। सन् 1638 में आगरे में इनका देहान्त हो गया। वही यमुना किनारे इनकी अन्त्येष्टि की गई।
महाराजा जसवंतसिंह (1638-1678 ई.)ः-
महाराजा गजसिंह के बाद उनके प्रिय पुत्र जसवंतसिह जोधपुर के षासक बने तथा इनका राजतिलक किया गया। षाहजहाॅ ने इन्हें ‘महाराजा‘ की उपाधि देकर सम्मानित किया। 1656 ई. में षाहजहाॅ के बीमार हो जाने  पर उनके चारो पुत्र में उत्तराधिकार का संघर्ष हुआ। महाराजा  जसवंतसिंह ने षाहजहाॅ  के बड़े पुत्र दाराषिकोह का साथ दिया और औरंगजेब को हराने  के लिए उज्जैन  की तरफ सेना लेकर गए।
महाराजा जसवंसिंह को बाद  में औरंगजेब  ने षिवाजी  के विरूद्ध दक्षिण में भेजा, जहा इन्होने शिवाजी को मुगलों से संधि करने हेतु राजी किया तथा षिवाजी के पुत्र षम्भाजी को शहजादा मुअज्जम के पास  लाये और दोनों के मध्य षांति संधि करवाई । इन्होनें औरंगाबाद के निकट जसवंतपुरा नामक कस्बा बसाया था। 28 नवम्बर, सन् 1678 में महाराजा का जमरूद (अफगानिस्तान) में देहान्त हो गया। इनके मंत्री मुहणोत नेणसी ने ‘नैणसी री ख्यात‘ एवं  ‘मारवाड़ का परगना री विगत‘ नामक दो महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथ लिखे थे, परन्तु अंतिम दिनों में महाराजा से अनबन हो जाने के कारण नेणसी को कैदखाने  में डाल दिया गया, जहा उसने आत्महत्या कर ली।
महाराजा जसवंतसिंह की मृत्यु के समय इनकी रानी गर्भवती थी परंतु जीवित उत्तराधिकारी के अभाव में औरंगजेब ने जोधपुर राज्य को मुगल साम्राज्य में मिला लिया। जसवंतसिंह की मृत्यु पर औरंगजेब ने कहा था कि ‘‘आज कुफ्र (धर्म विरोध) का दरवाजा टूट गया हैं।
महाराजा अजीत सिंहं:-
 महाराजा जसवत सिंह  की गर्भवती  रानी ने राजकुमार अजीतसिंह  को 19 फरवरी, 1679 को लाहौर में जन्म दिया। जौधपुर के राठौड़ सरदार वीर दुर्गादास एवं अन्य सरदारों ने मिलकर औरंगजेब से राजकुुमार अजीतंिसंह को जोधपुर का षासक घोषित करने की मांग की थी पंरतु औरंगजैब ने राजकुमार एवं रानियों की परवरिष हेतु दिल्ली दिल्ली अपने पास बुला लिया। इन्हें वहाँ रूपसिंह राठौड़ की हवेली में रखा गया । उसके मन में पाप आ गया था और वह राजकुमार को समाप्त कर जोधपुर  राज्य को हमेषा के लिए हड़पना चाहता था। वीर दुर्गादास औरंगजब की चालाकी को समझ गये और वे अन्य सरदारों के साथ मिलकर चालाकी से राजकुमार अजीतसिंह एवं  रानियों को ‘बाघेली‘ नामक महिला की मदद से औरंगजेब  के चंगुल से बाहर निकाल लाये और गुप्त रूप से सिरोही के कालिन्दी स्थान पर जयदेव नामक ब्राह्यण के घर पर उनकी परवरिष की । दिल्ली  में एक अन्य बालक की नकली अजीतसिंह के रूप में रखा। बादषाह औरंगजेब ने बालक को असली अजीतसिंह समझते हुए उसका नाम ‘मोहम्मदीराज‘ रखा। मारवाड़ में भी अजीतसिंह को सुरक्षित न देखकर वीर राठौड़ दुर्गादास ने मेवाड़ में षरण ली । मेवाड़ महाराणा राजसिंह ने अजीतसिंह के निर्वाह के लिए दुर्गादास को केवला की जागीर‘प्रादान की ।
देबारी समझौता:-
राजकुमार अजीत सिंह कच्छवाहा ,राजा सवाई जयसिंह व मेवाड़ महाराणा अमरसिंह द्वितीय के मघ्य समझौता देबारी स्थान पर हुआ ,समझौता जिसके अनुसार अजीतसिंह की मारवाड़ में, सवाई जयसिंह को आमेर मे पदस्थापित करने तथा महाराणा अमरसिंह द्वितीय की पुत्री का विवाह सुवाई जयसिंह से करने एवं इस विवाह से उत्पन्न पुत्र की सवाई जयसिंह का उत्तराधिकारी घाषित करने पर सहमति हुई।
औरंगजेब की मृत्यु के बाद महाराजा अजीतसिंह ने वीर दुर्गादास व अन्य सैनिको की मदद से जोधपुर पर अधिकार कर लिया और 12 मार्च, 1707 को उन्होंने अपने पैतृक षहर जोधपुर में प्रवेष दिया। बाद में गलत लोंगों के बहकावे में आकर महाराजा अजीतसिंह ने वीर दुर्गादास जैसे स्वामीभक्त वीर  को अपने राज्य से निर्वासित कर दिया, जहाॅ से वीर दुर्गादास दुःखी मन से मेवाड़ कीी सेवा में चले गये । महाराजा अजीतसिंह ने मुगल बादषाह फरूखषियर(Farukhsiyar) के साथ संधि कर ली और अपनी उनकी इन्द्र कुमारी का विवाह बादषाह से कर दिया। 23 जून, 1724 को महाराजा अजीतसिंह की इनके छोटे पुत्र बख्तसिंह सोते हुए में हत्या कर दी।
वीर दुर्गादास राठौड़:-
जन्म 13 अगस्त, 1638 को महाराजा जसवंसिंह प्रथम के मंत्री आसकरण के यहाँ मारवाड़ा के सालवा गाॅव में हुआ। महाराजा जसंवतसिंह के देहान्त के बाद राजकुमार अजीतसिंह की रक्षा व उन्हें जोधपुर को राज्य पुनः दिलाने में वीर दुर्गादास राठौड़ का महती योगदान रहा। इन्होंने अनेक कष्ट सहते हुए भी कुंवर अजीत सिंह की परवरिश की एवं अंत में उन्हें जोधपुर का षासन दिलवाया।
राजस्थान के इतिहास में मेवाड़ की पन्नाधय के पष्चात् दुर्गादास दूसरे व्यक्ति है। जिनकी स्वामिभक्ति अनुकरणीय है। उन्होंने जीवन भर अपने स्वामी मारवाड़ के महाराजाओं की सेवा की । ऐसे साहसी, वीर और कूटनीतिज्ञ के कारण ही मारवाड़ का राज्य स्थाई रूप से मुगल साम्राज्य का अंग नहीं बन सका।
वीर दुर्गादास की मृत्यु उज्जैन में 22 नवम्बर, 1718 को हुई। यहाँ शिप्रा नदी के तट पर इनकी छतरी बनी हुई है । दुर्गादास के लिए कहा जाता है कि- ‘मायड एडो पूत जण, जाडो दुर्गादास ! ‘
महाराजा मानंसिंह:-
(1803-1843 ईः) 1803 में उत्तराधिकार युद्ध के बाद मानसिंह जोधपुर सिंहासन पर बैठे जब मानसिंह जालौर में मारवाड़ की सेना से धिरे हुए थे, तब गोरखनाथ सम्प्रदाय के गुरू आयस देवनाथ ने भविष्यवाणी की, कि मानसिंह षीघ्र ही जोधपुर के राजा बनेंगे। अतः राजा बनते ही मानसिंह ने देवनाथ को जोधपुर बुलाकर अपना गुरू बनाया तथा वहाॅ नाथ सम्प्रदाय के ‘महामंदिर‘ का निमार्ण करवाया।
गिंगोली का युद्ध:-
मेवाड़ महाराजा भीमंिसंह की राजकुमारी कृष्णा कुमारी के विवाह के विवाद में जयपुर राज्य के महाराजा जगतसिंह की सेना, पिंडारियों व अन्य सेनाओं ने संयुक्त रूप से जोधपुर पर मार्च 1807 में आक्रमण राज्य कर दिया तथा अधिकांष हिस्से पर कब्जा कर लिया।परंतु षीघ्र ही मानसिंह ने पुनः सभी इलाको पर अपना कब्जा कर लिया।
सन् 1817 में मानसिंह को षासन का कार्यभार अपने पुत्र छत्रंिसंह को सौंपना पड़ा। परंतु छत्रसिंह की जल्दी ही मृत्यु हो गई। सन् 1818 में 16 मारवाड़ ने अंग्रेजों से संधि कर मारवाड़ की सुरक्षा का भार ईस्ट इंडिया कम्पनी को सौप दिया।

Saturday, 22 October 2016

कर्नल जेम्स टोड द्वारा गुर्जर शिलालेखो का विवरण | Inscription of Gurjar History by Rajput Historian James Tod

कर्नल जेम्स टोड द्वारा गुर्जर शिलालेखो का विवरण | Inscription of Gurjar History by Rajput Historian James Tod

कर्नल जेम्स टोड द्वारा गुर्जर शिलालेखो का विवरण | INSCRIPTION OF GURJAR HISTORY BY RAJPUT HISTORIAN JAMES TOD 


• कर्नल जेम्स टोड कहते है कि राजपूताना कहलाने वाले इस विशाल रेतीले प्रदेश अर्थात राजस्थान में, पुराने जमाने में राजपूत जाति का कोई चिन्ह नहीं मिलता परंतु मुझे सिंह समान गर्जने वाले गुर्जरों के शिलालेख मिलते हैं।

• प्राचीन काल से राजस्थान व गुजरात का नाम गुर्जरात्रा (गुर्जरदेश, गुर्जराष्ट्र) था जो अंग्रेजी शासन मे गुर्जरदेश से बदलकर राजपूताना रखा गया।


पं बालकृष्ण गौड द्वारा गुर्जर शिलालेखो का विवरण | Description of Gurjar inscription by Pandit Balkrishna God

पं बालकृष्ण गौड द्वारा गुर्जर शिलालेखो का विवरण | Description of Gurjar inscription by Pandit Balkrishna God

पं बालकृष्ण गौड द्वारा गुर्जर शिलालेखो का विवरण


पं बालकृष्ण गौड लिखते है कि जिसको कहते है रजपूति इतिहास
तेरहवीं सदी से पहले इसकी कही जिक्र तक नही है और कोई एक भी ऐसा शिलालेख दिखादो जिसमे रजपूत शब्द का नाम तक भी लिखा हो। लेकिन गुर्जर शब्द की भरमार है, अनेक शिलालेख तामपत्र है, अपार लेख है, काव्य, साहित्य, भग्न खन्डहरो मे गुर्जर संसकृति के सार गुंजते है ।अत: गुर्जर इतिहास को राजपूत इतिहास बनाने की ढेरो सफल-नाकाम कोशिशे कि गई।
पं बालकृष्ण गौड द्वारा गुर्जर शिलालेखो का विवरण | Description of Gurjar inscription by Pandit Balkrishna God 




• कर्नल जेम्स टोड कहते है कि राजपूताना कहलाने वाले इस विशाल रेतीले प्रदेश अर्थात राजस्थान में, पुराने जमाने में राजपूत जाति का कोई चिन्ह नहीं मिलता परंतु मुझे सिंह समान गर्जने वाले गुर्जरों के शिलालेख मिलते हैं।

• प्राचीन काल से राजस्थान व गुर्जरात का नाम गुर्जरात्रा (गुर्जरदेश, गुर्जराष्ट्र) था जो अंग्रेजी शासन मे गुर्जरदेश से बदलकर राजपूताना रखा गया ।

• कविवर बालकृष्ण शर्मा लिखते है :

चौहान पृथ्वीराज तुम क्यो सो गए बेखबर होकर ।
घर के जयचंदो के सर काट लेते सब्र खोकर ॥
माँ भारती के भाल पर ना दासता का दाग होता ।
संतति चौहान, गुर्जर ना छूपते यूँ मायूस होकर ॥

गुर्जर सम्राट मिहिरकुल हूण | Gurjar Samrat Mihirkul hoon - The Great Emperor of Indian History

गुर्जर सम्राट मिहिरकुल हूण | Gurjar Samrat Mihirkul hoon - The Great Emperor of Indian History



गुर्जर सम्राट मिहिरकुल हूण  - गुर्जर हूण साम्राज्य के सबसे प्रतापी सम्राट

Gurjar Samrat | Gurjar Hoon Empire | Mihirkul Hoon | Gujjar | Medieval History of India | Huna | Hun | Torman | Shiv Worshiper 


Great Shiv Worshiper - Gurjar Samrat Mihirkul Hoon


मध्य में, ४५० इसवी के लगभग, हूण गांधार इलाके के शासक थे, जब उन्होंने वहा से सारे सिन्धु घाटी प्रदेश को जीत लिया| कुछ समय बाद ही उन्होंने मारवाड और पश्चिमी राजस्थान के इलाके भी जीत लिए| ४९५ इसवी के लगभग हूणों ने तोरमाण के नेतृत्व में गुप्तो से पूर्वी मालवा छीन लिया| एरण, सागर जिले में वराह मूर्ति पर मिले तोरमाण के अभिलेख से इस बात की पुष्टि होती हैं| जैन ग्रन्थ कुवयमाल के अनुसार तोरमाण चंद्रभागा नदी के किनारे स्थित पवैय्या नगरी से भारत पर शासन करता था| यह पवैय्या नगरी ग्वालियर के पास स्थित थी|

तोरमाण के बाद उसका पुत्र मिहिरकुल हूणों का राजा बना| मिहिरकुल तोरमाण के सभी विजय अभियानों हमेशा उसके साथ रहता था| उसके शासन काल के पंद्रहवे वर्ष का एक अभिलेख ग्वालियर एक सूर्य मंदिर से प्राप्त हुआ हैं| इस प्रकार हूणों ने मालवा इलाके में अपनी स्थति मज़बूत कर ली थी| उसने उत्तर भारत की विजय को पूर्ण किया और गुप्तो सी भी नजराना वसूल किया| मिहिरकुल ने पंजाब स्थित स्यालकोट को अपनी राजधानी बनाया|मिहिकुल हूण एक कट्टर शैव था| उसने अपने शासन काल में हजारों शिव मंदिर बनवाये| मंदसोर अभिलेख के अनुसार यशोधर्मन से युद्ध होने से पूर्व उसने भगवान स्थाणु (शिव) के अलावा किसी अन्य के सामने अपना सर नहीं झुकाया था| मिहिरकुल ने ग्वालियर अभिलेख में भी अपने को शिव भक्त कहा हैं| मिहिरकुल के सिक्कों पर जयतु वृष लिखा हैं जिसका अर्थ हैं- जय नंदी| वृष शिव कि सवारी हैं जिसका मिथकीय नाम नंदी हैं|

कास्मोस इन्दिकप्लेस्तेस नामक एक यूनानी ने मिहिरकुल के समय भारत की यात्रा की थी, उसने “क्रिस्टचिँन टोपोग्राफी” नामक अपने ग्रन्थ में लिखा हैं की हूण भारत के उत्तरी पहाड़ी इलाको में रहते हैं, उनका राजा मिहिरकुल एक विशाल घुड़सवार सेना और कम से कम दो हज़ार हाथियों के साथ चलता हैं, वह भारत का स्वामी हैं|मिहिरकुल के लगभग सौ वर्ष बाद चीनी बौद्ध तीर्थ यात्री हेन् सांग ६२९ इसवी में भारत आया , वह अपने ग्रन्थ “सी-यू-की” में लिखता हैं की सैंकडो वर्ष पहले मिहिरकुल नाम का राजा हुआ करता था जो स्यालकोट से भारत पर राज करता था | वह कहता हैं कि मिहिरकुल नैसर्गिक रूप से प्रतिभाशाली और बहादुर था|

हेन् सांग बताता हैं कि मिहिरकुल ने भारत में बौद्ध धर्म को बहुत भारी नुकसान पहुँचाया| वह कहता हैं कि एक बार मिहिरकुल ने बौद्ध भिक्षुओं से बौद्ध धर्म के बारे में जानने कि इच्छा व्यक्त की| परन्तु बौद्ध भिक्षुओं ने उसका अपमान किया, उन्होंने उसके पास, किसी वरिष्ठ बौद्ध भिक्षु को भेजने की जगह एक सेवक को बौद्ध गुरु के रूप में भेज दिया| मिहिरकुल को जब इस बात का पता चला तो वह गुस्से में आग-बबूला हो गया और उसने बौद्ध धर्म के विनाश कि राजाज्ञा जारी कर दी| उसने उत्तर भारत के सभी बौद्ध बौद्ध मठो को तुडवा दिया और भिक्षुओं का कत्ले-आम करा दिया| हेन् सांग कि अनुसार मिहिरकुल ने उत्तर भारत से बौधों का नामो-निशान मिटा दिया|

गांधार क्षेत्र में मिहिरकुल के भाई के विद्रोह के कारण, उत्तर भारत का साम्राज्य उसके हाथ से निकल कर, उसके विद्रोही भाई के हाथ में चला गया| किन्तु वह शीघ्र ही कश्मीर का राजा बन बैठा| कल्हण ने बारहवी शताब्दी में “राजतरंगिणी” नामक ग्रन्थ में कश्मीर का इतिहास लिखा हैं| उसने मिहिरकुल का, एक शक्तिशाली विजेता के रूप में ,चित्रण किया हैं| वह कहता हैं कि मिहिरकुल काल का दूसरा नाम था, वह पहाड से गिरते है हुए हाथी कि चिंघाड से आनंदित होता था| उसके अनुसार मिहिरकुल ने हिमालय से लेकर लंका तक के इलाके जीत लिए थे| उसने कश्मीर में मिहिरपुर नामक नगर बसाया| कल्हण के अनुसार मिहिरकुल ने कश्मीर में श्रीनगर के पास मिहिरेशवर नामक भव्य शिव मंदिर बनवाया था| उसने गांधार इलाके में ७०० ब्राह्मणों को अग्रहार (ग्राम) दान में दिए थे| कल्हण मिहिरकुल हूण को ब्राह्मणों के समर्थक शिव भक्त के रूप में प्रस्तुत करता हैं|


मिहिरकुल ही नहीं वरन सभी हूण शिव भक्त थे| हनोल ,जौनसार –बावर, उत्तराखंड में स्थित महासु देवता (महादेव) का मंदिर हूण स्थापत्य शैली का शानदार नमूना हैं, कहा जाता हैं कि इसे हूण भट ने बनवाया था| यहाँ यह उल्लेखनीय हैं कि भट का अर्थ योद्धा होता हैं |

हर हर महादेव का जय घोष भी हूणों से जुडा प्रतीत होता है क्योकि हूणों कि दक्षिणी शाखा को हारा-हूण कहते थे, संभवत हारा-हूण से ही हारा/हाडा गोत्र कि उत्पत्ति हुई हैं| हाडा लोगों के आधिपत्य के कारण ही कोटा-बूंदी इलाका हाडौती कहलाता हैं राजस्थान का यह हाडौती सम्भाग कभी हूण प्रदेश कहलाता था| आज भी इस इलाके में हूणों गोत्र के गुर्जरों के अनेक गांव हैं| यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रसिद्ध इतिहासकार वी. ए. स्मिथ, विलियम क्रुक आदि ने गुर्जरों को श्वेत हूणों से सम्बंधित माना हैं| इतिहासकार कैम्पबेल और डी. आर. भंडारकर गुर्जरों की उत्त्पत्ति श्वेत हूणों की खज़र शाखा से मानते हैं | बूंदी इलाके में रामेश्वर महादेव, भीमलत और झर महादेव हूणों के बनवाये प्रसिद्ध शिव मंदिर हैं| बिजोलिया, चित्तोरगढ़ के समीप स्थित मैनाल कभी हूण राजा अन्गत्सी की राजधानी थी, जहा हूणों ने तिलस्वा महादेव का मंदिर बनवाया था| यह मंदिर आज भी पर्यटकों और श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करता हैं| कर्नल टाड़ के अनुसार बडोली, कोटा में स्थित सुप्रसिद्ध शिव मंदिर पंवार/परमार वंश के हूणराज ने बनवाया था|

इस प्रकार हम देखते हैं की हूण और उनका नेता मिहिरकुल भारत में बौद्ध धर्म के अवसान और शैव धर्म के विकास से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं|

== Part - 2 ==

स्कंदगुप्त के काल में ही हूणों ने कंबोज और गांधार अर्थात बौद्धों के गढ़ संपूर्ण अफगानिस्तान पर अधिकार करके फिर से हिन्दू राज्य को स्थापित कर दिया था। लगभग 450 ईस्वीं में उन्होंने सिन्धु घाटी क्षेत्र को जीत लिया। कुछ समय बाद ही उन्होंने मारवाड़ और पश्चिमी राजस्थान के इलाके भी जीत लिए। 495 ईस्वीं के लगभग हूणों ने तोरमाण के नेतृत्व में गुप्तों से पूर्वी मालवा छीन लिया। एरण, सागर जिले में वराह मूर्ति पर मिले तोरमाण के अभिलेख से इस बात की पुष्टि होती है। जैन ग्रंथ 'कुवयमाल' के अनुसार तोरमाण चंद्रभागा नदी के किनारे स्थित पवैय्या नगरी से भारत पर शासन करता था।

इतिहासकारों के अनुसार पवैय्या नगरी ग्वालियर के पास स्थित थी। तोरमाण के बाद उसका पुत्र मिहिरकुल हूणों का राजा बना। (मिहिरकुल भारत में एक ऐतिहासिक श्वेत हुण शासक था। ये तोरामन का पुत्र था। तोरामन भारत में हुण शासन खा संस्थापक था। मिहिरकुल 510 ई। में गद्दी पर बैठा। संस्कृत में मिहिरकुल का अर्थ है - 'सूर्य के वंश से', अर्थात सूर्यवंशी।मिहिरकुल का प्रबल विरोधी नायक था यशोधर्मन। कुछ काल के लिए अर्थात् 510 ई। में एरण (तत्कालीन मालवा की एक प्रधान नगरी) के युद्ध के बाद से लेकर लगभग 527 ई। तक, जब उसने मिहिरकुल को गंगा के कछार में भटका कर क़ैद कर लिया था, उसे तोरमाण के बेटे मिहिरकुल को अपना अधिपति मानना पड़ा था। क़ैद करके भी अपनी माँ के कहने पर उसने हूण-सम्राट को छोड़ दिया था।).......... मिहिरकुल तोरमाण के सभी विजय अभियानों में हमेशा उसके साथ रहता था। उसने उत्तर भारत की विजय को पूर्ण किया और बौद्ध धर्मावलंबी गुप्तों से भी कर वसूल करना शुरू कर दिया। तोरमाण के बाद मिहिरकुल ने पंजाब स्थित स्यालकोट को अपनी राजधानी बनाया। मिहिरकुल हूण एक कट्टर शैव था। उसने अपने शासनकाल में हजारों शिव मंदिर बनवाए और बौद्धों के शासन को उखाड़ फेंका। उसने संपूर्ण भारतवर्ष में अपने विजय अभियान चलाए और वह बौद्ध, जैन और शाक्यों के लिए आतंक का पर्याय बन गया था, वहीं विक्रमादित्य और अशोक के बाद मिहिरकुल ही ऐसा शासन था जिसके अधीन संपूर्ण अखंड भारत आ गया था। उसने ढूंढ-ढूंढकर शाक्य मुनियों को भारत से बाहर खदेड़ दिया।

मिहिरकुल इतना कट्टर था कि जिसके बारे में बौद्ध और जैन धर्मग्रंथों में विस्तार से जिक्र मिलता है। वह भगवान शिव के अलावा किसी के सामने अपना सिर नहीं झुकाता था। यहां तक कि कोई हिन्दू संत उसके विचारों के विपरीत चलता तो उसका भी अंजाम वही होता, जो शाक्य मुनियों का हुआ। मिहिरकुल के सिक्कों पर 'जयतु वृष' लिखा है जिसका अर्थ है- जय नंदी। इन्दिकप्लेस्तेस नामक एक यूनानी ने मिहिरकुल के समय भारत की यात्रा की थी। उसने 'क्रिश्चियन टोपोग्राफी' नामक अपने ग्रंथ में लिखा है कि हूण भारत के उत्तरी पहाड़ी इलाकों में रहते हैं, उनका राजा मिहिरकुल एक विशाल घुड़सवार सेना और कम से कम 2 हजार हाथियों के साथ चलता है, वह भारत का स्वामी है।

मिहिरकुल के लगभग 100 वर्ष बाद चीनी बौद्ध तीर्थ यात्री ह्वेनसांग 629 ईस्वी में भारत आया, वह अपने ग्रंथ सी-यू-की में लिखता है कि कई वर्ष पहले मिहिरकुल नाम का राजा हुआ करता था, जो स्यालकोट से भारत पर राज करता था। ह्वेनसांग बताता है कि मिहिरकुल ने भारत में बौद्ध धर्म को बहुत भारी नुकसान पहुंचाया। ह्वेनसांग के अनुसार मिहिरकुल ने भारत से बौद्धों का नामो-निशान मिटा दिया। क्यों? इसके पीछे भी एक कहानी है। वह यह कि बौद्धों के प्रमुख ने मिहिरकुल का घोर अपमान किया था। उसकी क्रूरता के कारण ही जैन और बौद्ध ग्रंथों में उसे कलिराज कहा गया है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने लिखा है कि राजा बालादित्य ने तोरमाण के पुत्र मिहिरकुल को कैद कर लिया था, पर बाद में उसे छोड़ दिया था। यह बालादित्य के लिए नुकसानदायक सिद्ध हुआ।

मिहिरकुल ने हिमालय से लेकर लंका तक के इलाके जीत लिए थे। उसने कश्मीर में मिहिरपुर नामक नगर बसाया। कल्हण के अनुसार मिहिरकुल ने कश्मीर में श्रीनगर के पास मिहिरेश्वर नामक भव्य शिव मंदिर बनवाया था। उसने फिर से भारत में सनातन हिन्दू धर्म की स्थापना की थी। यदि शंकराचार्य, गुरुगोरक्षनाथ और मिहिरकुल नहीं होते तो भारत का प्रमुख धर्म बौद्ध ही होता और हिन्दुओं की हालत आज के बौद्धों जैसी होती। सवाल यह उठता है कि लेकिन क्या यह सही हुआ? ऐसा नहीं हुआ होता यदि बौद्ध भिक्षु देश गद्दारी नहीं करते। उस दौर में मिहिरकुल को कल्कि का अवतार ही मान लिया गया था, क्योंकि पुराणों में लिखा था कि कल्कि आएंगे और फिर से सनातन धर्म की स्थापना करेंगे। मिहिरकुल ने यही तो किया?

जैन व बौद्ध ग्रंथो ने मिहिरको कल्की अवतार माना है कल्की अवतार के बारे मै लिखा है वो तलवार ले कर बौद्ध जैन मलेच्छ को खत्म करेगे लेकिन मलेच्छ तो उस समय थे नही लेकिन मिहिर ने बौद्ध जैन को खत्म कर के कल्की अवतार  काम जरुर किया था

शुंग वंश के पतन के बाद सनातन हिन्दू धर्म की एकता को फिर से एकजुट करने का श्रेय गुप्त वंश के लोगों को जाता है। गुप्त वंश की स्थापना 320 ई। लगभग चंद्रगुप्त प्रथम ने की थी और 510 ई। तक यह वंश शासन में रहा। इस वंश में अनेक प्रतापी राजा हुए। नृसिंहगुप्त बालादित्य (463-473 ई।) को छोड़कर सभी गुप्तवंशी राजा वैदिक धर्मावलंबी थे। बालादित्य ने बौद्ध धर्म अपना लिया था। आरंभ में इनका शासन केवल मगध पर था, पर बाद में संपूर्ण उत्तर भारत को अपने अधीन कर लिया था। इसके बाद दक्षिण में कांजीवरम के राजा ने भी आत्मसमर्पण कर दिया था। गुप्त वंश के सम्राटों में क्रमश: श्रीगुप्त, घटोत्कच, चंद्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, रामगुप्त, चंद्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त प्रथम (महेंद्रादित्य) और स्कंदगुप्त हुए। स्कंदगुप्त के समय हूणों ने कंबोज और गांधार (उत्तर अफगानिस्तान) पर आक्रमण किया था। हूणों ने अंतत: भारत में प्रवेश करना शुरू किया। हूणों का मुकाबला कर गुप्त साम्राज्य की रक्षा करना स्कन्दगुप्त के राज्यकाल की सबसे बड़ी घटना थी। स्कंदगुप्त और हूणों की सेना में बड़ा भयंकर मुकाबला हुआ और गुप्त सेना विजयी हुई। हूण कभी गांधार से आगे नहीं बढ़ पाए, जबकि हूण और शाक्य जाति के लोग उस समय भारत के भिन्न- भिन्न इलाकों में रहते थे। स्कंदगुप्त के बाद उत्तराधिकारी उसका भाई पुरुगुप्त (468-473 ई।) हुआ। उसके बाद उसका पुत्र नरसिंहगुप्त पाटलीपुत्र की गद्दी पर बैठा जिसने बौद्ध धर्म अंगीकार कर राज्य में फिर से बौद्ध धर्म की पताका फहरा दी थी। उसके पश्चात क्रमश: कुमारगुप्त द्वितीय तथा विष्णुगुप्त ने बहुत थोडे़ समय तक शासन किया। 477 ई। में बुद्धगुप्त, जो शायद पुरुगुप्त का दूसरा पुत्र था, गुप्त-साम्राज्य का अधिकारी हुआ। ये सभी बौद्ध हुए। इनके काल में बौद्ध धर्म को खूब फलने और फूलने का मौका मिला। बुद्धगुप्त का राज्य अधिकार पूर्व में बंगाल से पश्चिम में मालवा तक के विशाल भू-भाग पर था। यह संपूर्ण क्षेत्र में बौद्धमय हो चला था। यहां शाक्यों की अधिकता थी। सनातन धर्म का लोप हो चुका था। जैन और बौद्ध धर्म ही शासन के धर्म हुआ करते थे।

== Part - 3 ===

 कल्कि पुराण में लिखा भी हैं कि कल्कि आएंगे और अनिश्वरवादी धर्मों (जैन और बौद्ध) का नाश कर देंगे। क्या मिहिरकुल ने ऐसा नहीं किया था?कश्मीरी ब्राह्मण विद्वान कल्हण के अनुसार मिहिरकुल वैदिक धर्म का अनुयायीथा। वह अनीश्वरवादियों के विरुद्ध लड़ाई लड़ता था। कल्हण ने 'राजतरंगिणी' नामक ग्रंथ में मिहिरकुल का वर्णन शिवभक्त के रूप में किया है। कल्हण कहताहै कि मिहिरकुल ने कश्मीर में मिहिरेश्वर शिव मंदिर का निर्माण करवाया।हूणों के शासन से पहले कश्मीर ही नहीं, वरन पूरे भारत में बौद्ध धर्म प्रबल था।भारत में बौद्ध धर्म के अवसान और सनातन धर्म के संरक्षण एवं विकास में मिहिरकुल हूण की एक प्रमुख भूमिका है। मिहिरकुल का शासन ईरान से लेकर बर्मा औरकश्मीर से लेकर श्रीलंका तक था।कुछ विद्वानों के अनुसार मिहिरकुल को कल्कि मानना इसलिए ठीक नहीं होगा, क्योंकिहूण तो विदेशी आक्रांता थे। उनको तो इतिहास में विधर्मी माना गया है। 'विधर्मी' का अर्थ होता है ऐसे व्यक्ति जिसने या जिसके पूर्वजों ने हिन्दू धर्म को त्यागकर दूसरों का धर्म अपना लिया हो।लेकिन ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार हूणविदेशी नहीं थे। उन्हें प्राचीनकाल मेंयक्ष कहा जाता था। वे सभी धनाढ्य लोग थे। हूण, कुषाण और शक सभी मूलत: भारतीय ही थे। ये सभी भारत से निकलकर बाहर गए औरफिर पुन: भारत में आकर राज करने लगे।इतिहासकारों के अनुसार वराह हूण और कुषाण लगभग 360 ई. में भारत के पश्चिमोत्तर में एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति बनकर उभरे थे। उन्होंने पंजाब से मालवा तक अपना शासन स्थापित कर लिया था।श्वेत हूण भी 5वीं शताब्दी में पश्चिमोत्तर भारत के शासक थे। 500 ई. लगभग जब तोरमाण ओर मिहिरकुल के नेतृत्व में जब हूणों ने मध्यभारत में साम्राज्य स्थापित किया, तब वे वैदिक धर्म और संस्कृति का एक हिस्सा थे, जबकि गुप्त सम्राट बालादित्य बौद्ध धर्म का अनुयायी था। इससे पहले मौर्य वंश भी बौद्ध धर्म के अनुयायी थे अतः हूणों और गुप्तों का टकराव दो भारतीय ताकतों का टकराव था।भारत के प्रथम शक्तिशाली हूण सम्राट तोरमाण के शासनकाल के पहले ही वर्ष का अभिलेख मध्यभारत के एरण नामक स्थान से वाराह मूर्ति से मिला है। हूणों के देवता वाराह थे।कालांतर में हूणों से संबंधित माने जाने वाले गुर्जरों के प्रतिहार वंश ने मिहिरभोज के नेतृत्व में उत्तर भारत में अंतिम हिन्दू साम्राज्य का निर्माणकिया और हिन्दू संस्कृति के संरक्षण में हूणों जैसी प्रभावी भूमिका निभाई।तोरमाण हूण की तरह गुर्जर-प्रतिहार सम्राट मिहिरभोज भी वाराह का उपासक था और उसने आदि वाराह की उपाधि भी धारण की थी। जाटों, गुर्जर-प्रतिहारों ने 7वीं शताब्दी से लेकर 10वीं शताब्दी तक अरब आक्रमणकारियों से भारत और उसकी संस्कृति की जो रक्षा की उससे सभी इतिहासकार परिचित हैं।समकालीन अरब यात्री सुलेमान ने गुर्जर सम्राट मिहिरभोज को भारत में इस्लाम का सबसे बड़ा दुश्मन करार दिया था, क्योंकिभोज राजाओं ने 10वीं सदी तक इस्लाम को भारत में घुसने नहीं दिया था। मिहिरभोज के पौत्र महिपाल को आर्यवृत्त का महान सम्राट कहा जाता था। गुर्जर संभवतः हूणों और कुषाणों की नई पहचान थी।अतः हूणों और उनके वंशज गुर्जरों ने हिन्दू धर्म और संस्कृति के संरक्षण एवं विकास में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इस कारण से इनके सम्राट मिहिरकुलहूण औरमिहिरभोज गुर्जर को समकालीन हिन्दू समाज द्वारा अवतारी पुरुष के रूप में देखा जाना आश्चर्य नहीं होगा। निश्चित ही इन सम्राटों ने हिन्दू समाज को बाहरी और भीतरी आक्रमण से निजाद दिलाई थी इसलिए इनकी महानता के गुणगान करना स्वाभाविक ही था। लेकिन मध्यकाल में भारत के उन महान राजाओं के इतिहास को मिटाने का भरपूर प्रयास किया गया जिन्होंने यहां के धर्म और संस्कृति की रक्षा की। फिर अंग्रेजों ने उनके इतिहास को विरोधामासी बनाकर उन्होंने बौद्ध सम्राटों को महान बनाया। सचमुच सम्राट मिहिरकुल सम्राट अशोक से भी महान थे। जारी...

=== Part - 4 ======

काश सम्राट मिहिरकुल ने ब्राह्मणों को संरक्षण दिया नही होता!
हूण सम्राट मिहिरकुल महान शिव भक्त था| मंदसोर अभिलेख के अनुसार यशोधर्मन से युद्ध होने से पूर्व उसने भगवान स्थाणु (शिव) के अलावा किसी अन्य के सामने अपना सिर नहीं झुकाया था| कर्नल टाड के अनुसार बडोली, राजस्थान के प्रसिद्ध मंदिर का निर्माण हूणराज मिहिरकुल ने कराया था| इसी प्रकार मिहिरकुल हूण ने भारत में कश्मीर स्थित मिहिरेश्वर नामक प्रसिद्ध शिव मंदिर सहित हजारो शिव मंदिरों का निर्माण कराया था| मिहिरकुल के सिक्कों पर जयतु वृष लिखा हैं | वृष शिव कि सवारी हैं जिसका नाम नंदी हैं| कल्हण कृत राजतरंगिणी के अनुसार मिहिरकुल हूण ने ब्राह्मणों को सात सौ गांव दान में दिए| कल्हण हूण सम्राट मिहिरकुल को ब्राह्मणों के समर्थक शिव भक्त के रूप में प्रस्तुत करता हैं|
बौद्ध चीनी यात्री हेन सांग ने भारत में बौद्ध धर्म के अवसान के लिए मिहिरकुल हूण को जिम्मेदार माना हैं| हेन सांग के अनुसार मिहिरकुल ने बौद्ध धर्म के विनाश कि राजाज्ञा जारी कर दी थी| उसने उत्तर भारत के सभी बौद्ध बौद्ध मठो को तुडवा दिया और भिक्षुओं का कत्ले-आम करा दिया| हेन् सांग कि अनुसार मिहिरकुल ने उत्तर भारत से बौधों का नामो-निशान मिटा दिया|
ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान में मिहिरकुल हूण अति महत्त्व पूर्ण भूमिका हैं| मिहिरकुल हूण द्वारा ग्रंथ जैन ओर बौद्ध धर्म के अनुयायियों के दमन ओर ब्राह्मण धर्म के संरक्षण की नीति का भारतीय समाज क्या प्रभाव हुआ इसका समुचित मूल्यांकन किये जाने की आवशकता हैं|

==== Part - 5 ====

डाँ सुशील भाटी जी के ब्लाँग जनइतिहास से साभार

ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार भगवान विष्णु के दस अवतारों की संकल्पना ग्यारहवी शताब्दी के पूर्वार्ध तक अपना निश्चित आकार ले चुकी थी| भगवान विष्णु के दस अवतार माने जाते हैं- मतस्य, क्रुमु, वाराह, नरसिंह, वामन, पशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध ओर कल्कि|  पुराणों के अनुसार कल्कि अवतार भगवान विष्णु के दस अवतारों में अंतिम हैं जोकि भविष्य में जन्म लेकर कलयुग का अंत करके सतयुग का प्रारंभ करेगा| अग्नि पुराण ने कल्कि अवतार का चित्रण तीर-कमान धारण किये हुए  एक घुडसवार के रूप में किया हैं| कल्कि पुराण के अनुसार वह हाथ में चमचमाती हुई तलवार लिए सफ़ेद घोड़े पर सवार होकर, युद्ध ओर विजय के लिए निकलेगा तथा बोद्ध, जैन ओर म्लेछो को पराजित करेगा|
परन्तु कुछ पुराण ओर कवि कल्कि अवतार के लिए भूतकाल का प्रयोग करते हैं| वायु पुराण के अनुसार कल्कि अवतार कलयुग के चर्मौत्कर्ष पर जन्म ले चुका हैं| मतस्य पुराण, बंगाली कवि जयदेव (1200 ई.) ओर चंडीदास के अनुसार भी कल्कि अवतार की घटना हो चुकी हैं| अतः कल्कि एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व हो सकता हैं|

जैन पुराणों में भी एक कल्कि नामक भारतीय सम्राट का वर्णन हैं| जैन विद्वान गुणभद्र नवी शताब्दी के उत्तरार्ध में लिखता हैं कि कल्किराज का जन्म महावीर के निर्वाण के एक हज़ार वर्ष बाद हुआ| जिन सेन ‘उत्तर पुराण’ में लिखता हैं कि कल्किराज ने 40 वर्ष राज किया और 70 वर्ष की आयु में उसकी मृत्यु हुई|  कल्किराज अजितान्जय का पिता था, वह बहुत निरंकुश शासक था, जिसने दुनिया का दमन किया और निग्रंथो के जैन समुदाय पर अत्याचार किये| गुणभद्र के अनुसार उसने दिन में एक बार दोपहर में भोजन करने वाले जैन निग्रंथो के भोजन पर भी टैक्स लगा दिया जिससे वो भूखे मरने लगे | तब निग्रंथो को कल्कि की क्रूर यातनाओ से बचाने के लिए एक दैत्य का अवतरण हुआ जिसने वज्र (बिजली) के प्रहार से उसे मार दिया ओर अनगिनत युगों तक असहनीय दर्द ओर यातनाये झेलने के लिए रत्नप्रभा नामक नर्क में भेज दिया|

प्राचीन जैन ग्रंथो के वर्णनों के अनुसार कल्कि एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं जिसका शासनकाल महावीर की मृत्यु (470 ईसा पूर्व) के एक हज़ार साल बाद, यानि कि गुप्तो के बाद, छठी शताब्दी ई. के प्रारभ में, होना चाहिए चाहिए| गुप्तो के बाद अगला शासन हूणों का था| जैन ग्रंथो में वर्णित कल्कि का समय और कार्य हूण सम्राट मिहिरकुल के साथ समानता रखते हैं| अतः कल्कि राज ओर मिहिरकुल (502- 542 ई.) के एक होने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता| इतिहासकार के. बी. पाठक ने सम्राट मिहिरकुल हूण की पहचान कल्कि के रूप में की हैं, वो कहते हैं कि कल्किराज मिहिरकुल को दूसरा नाम है|

जैन ग्रंथो ने कल्किराज के उत्तराधिकारी का नाम अजितान्जय बताया हैं| मिहिरकुल हूण के उत्तराधिकारी का नाम भी अजितान्जय था|

चीनी यात्री बौद्ध भिक्षु हेन सांग मिहिरकुल की मृत्यु के लगभग 100 वर्ष बाद भारत आया| उसके द्वारा लिखित सी यू की नामक वृतांत इस मामले में कुछ और प्रकाश डालता हैं| वह कहता हैं कि मिहिरकुल कि मृत्यु के समय भयानक तूफ़ान आया और ओले बरसे, धरती कांप उठी तथा चारो ओर गहरा अँधेरा छा गया| बौद्ध पवित्र संतो ने कहा कि अनगिनत लोगो को मारने ओर बुध के धर्म को उखाड फेकने के कारण मिहिरकुल गहरे नर्क में जा गिरा जहाँ वह अंतहीन युगों तक सजा भोगता रहेगा|  जैन धर्म पर प्रहार करने वाले निरंकुश कल्कि के गहरे नर्क में जाने ओर अनगिनत युगों तक दुःख ओर यातनाये झेलने का वर्णन,  बौद्ध धर्म पर प्रहार करने वाले निरंकुश मिहिरकुल के नर्क में गिरने के वर्णन से बहुत मेल खाता हैं| अतः जैन ग्रन्थ में वर्णित कल्कि राज के मिहिरकुल होने की सम्भावना प्रबल  हैं|
ब्राह्मण ग्रन्थ अग्नि पुराण ने कल्कि अवतार का चित्रण तीर-कमान धारण करने वाला एक घुडसवार के रूप में किया हैं| कल्कि पुराण के अनुसार वह हाथ में चमचमाती हुई तलवार लिए सफ़ेद घोड़े पर सवार होकर, युद्ध ओर विजय के लिए निकलेगा तथा  बोद्ध, जैन ओर म्लेछो को पराजित कर धर्म (ब्राह्मण/हिंदू धर्म) की पुनर्स्थापना करेगा|  इतिहास में हूण कल्कि की तरह श्रेष्ठ घुडसवार ओर धनुर्धर के रूप में विख्यात हैं तथा  कल्किराज/  मिहिरकुल हूण ने भी कल्कि की तरह  जैन  ओर बोद्ध धर्म के अनुयायियों का दमन किया था|  कश्मीरी ब्राह्मण विद्वान कल्हण के अनुसार मिहिरकुल ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था| कल्हण ने राजतरंगिणी नामक ग्रन्थ में मिहिरकुल का वर्णन ब्राह्मण समर्थक शिव भक्त के रूप में किया हैं| कल्हण कहता हैं कि मिहिरकुल ने कश्मीर में मिहिरेश्वर शिव मंदिर का निर्माण करवाया ओर ब्राह्मणों को 700 गांव (अग्रहार) दान में दिए| हूणों के शासन से पहले कश्मीर ही नहीं वरन पूरे भारत में बौद्ध धर्म प्रबल था| भारत में बौद्ध धर्म के अवसान ओर ब्राह्मण धर्म के संरक्षण एवं विकास में मिहिरकुल हूण की एक प्रमुख भूमिका हैं|
मिहिरकुल की संगति कल्कि अवतार के साथ करने में एक कठनाई ये हैं कि कुछ इतिहासकार हूणों को विधर्मी संस्कृति का विदेशी आक्रांता मानते हैं| किन्तु हूणों को विधर्मी ओर विदेशी नहीं कहा जा सकता हैं| ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार हारा हूण (किदार कुषाण) लगभग 360 ई. में भारत के पश्चिमीओत्तर में स्थापित राजनेतिक शक्ति थे| श्वेत हूण भी पांचवी शताब्दी में पश्चिमीओत्तर भारत के शासक थे| 500 ई. लगभग जब तोरमाण ओर मिहिरकुल के नेतृत्व में जब हूणों ने मध्य भारत में साम्राज्य स्थापित किया तब वो ब्राह्मण संस्कृति ओर धर्म का एक हिस्सा थे, जबकि गुप्त सम्राट बालादित्य बौद्ध धर्म का अनुयायी था| अतः हूणों ओर गुप्तो टकराव राजनैतिक सर्वोच्चता ओर साम्राज्य के लिए दो भारतीय ताकतों का संघर्ष था| भारत के प्रथम हूण सम्राट तोरमाण के शासन काल के पहले ही वर्ष का अभिलेख मध्य भारत के एरण नामक स्थान से वाराह मूर्ति से मिला हैं| हूणों के कबीलाई देवता वाराह का सामजस्य भगवान विष्णु के वाराह अवतार के साथ कर उसे ब्राह्मण धर्म में अवशोषित किया जा चुका था|  कालांतर में हूणों से सम्बंधित माने जाने वाले गुर्जरों के प्रतिहार वंश ने मिहिर भोज के नेतृत्व में उत्तर भारत में अंतिम हिंदू साम्राज्य का निर्माण किया ओर ब्राह्मण संस्कृति के संरक्षण में हूणों जैसी प्रभावी भूमिका निभाई| गुर्जर प्रतिहारो की राजधानी कन्नौज संस्कृति का उच्चतम केंद्र होने के कारण महोदय कहलाती थी|  तोरमाण हूण के तरह गुर्जर-प्रतिहार सम्राट मिहिरभोज भी वाराह का उपासक था ओर उसने आदि वाराह की उपाधि भी धारण की थी| संभवतः आम समाज के द्वारा मिहिरभोज को भगवान विष्णु का वाराह अवतार माना जाता था| गुर्जर- प्रतिहारो ने सातवी शताब्दी से लेकर दसवी शताब्दी तक अरब आक्रमणकारियों से भारत ओर उसकी संस्कृति की जो रक्षा की उससे सभी इतिहासकार परिचित हैं| समकालीन अरब यात्री सुलेमान ने गुर्जर सम्राट मिहिरभोज को भारत में इस्लाम का सबसे बड़ा शत्रु कहा हैं| मिहिरभोज ने आदि वाराह की उपाधि आर्य धर्म ओर संस्कृति के रक्षक होने के नाते ही धारण की थी| मिहिरभोज के पौत्र महिपाल को उसके गुरु राजशेखर ने आर्यवृत्त का सम्राट कहा हैं|  गुर्जर सभवतः हूणों ओर कुषाणों की नयी पहचान थी|
अतः हूणों ओर उनके वंशज गुर्जरों ने ब्राह्मण/हिंदू धर्म ओर संस्कृति के संरक्षण एवं विकास में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इस कारण से इनके सम्राट मिहिरकुल हूण ओर मिहिरभोज गुर्जर को समकालीन ब्राह्मण/हिंदू समाजो द्वारा अवतारी पुरुष के रूप में देखा गया हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं हैं|

==== Part 6 ====

पांचवी शताब्दी के मध्य में, ४५० इसवी के लगभग, हूण गांधार इलाके  के शासक  थे, जब उन्होंने वहा से सारे सिन्धु घाटी प्रदेश को जीत लिया| कुछ समय बाद ही उन्होंने मारवाड और पश्चिमी राजस्थान के इलाके भी जीत लिए| ४९५ इसवी के लगभग हूणों ने तोरमाण के नेतृत्व में गुप्तो से पूर्वी मालवा छीन लिया| एरण, सागर जिले में वराह मूर्ति पर मिले तोरमाण के अभिलेख से इस बात की पुष्टि होती हैं| जैन ग्रन्थ कुवयमाल के अनुसार तोरमाण चंद्रभागा नदी के किनारे स्थित पवैय्या  नगरी से भारत पर शासन करता था| यह पवैय्या नगरी ग्वालियर के पास स्थित थी|

तोरमाण के बाद उसका पुत्र मिहिरकुल हूणों का राजा बना| मिहिरकुल तोरमाण के सभी विजय अभियानों हमेशा उसके साथ रहता था|  उसके शासन काल के पंद्रहवे वर्ष का एक अभिलेख ग्वालियर एक सूर्य मंदिर से प्राप्त हुआ हैं| इस प्रकार हूणों ने मालवा इलाके  में अपनी स्थति मज़बूत कर ली थी| उसने उत्तर भारत की विजय को पूर्ण किया और गुप्तो सी भी नजराना वसूल किया| मिहिरकुल ने पंजाब स्थित स्यालकोट को अपनी राजधानी बनाया|मिहिकुल हूण एक कट्टर शैव था|  उसने अपने शासन काल में हजारों शिव मंदिर बनवाये| मंदसोर अभिलेख के अनुसार यशोधर्मन से युद्ध होने से पूर्व उसने भगवान स्थाणु (शिव) के अलावा किसी अन्य के सामने अपना सर नहीं झुकाया था| मिहिरकुल ने ग्वालियर अभिलेख में भी अपने को शिव भक्त कहा हैं| मिहिरकुल के सिक्कों पर जयतु वृष लिखा हैं जिसका अर्थ हैं- जय नंदी| वृष शिव कि सवारी हैं जिसका मिथकीय नाम नंदी हैं|

कास्मोस इन्दिकप्लेस्तेस नामक एक यूनानी ने मिहिरकुल के समय भारत की यात्रा की थी, उसने “क्रिस्टचिँन टोपोग्राफी” नामक अपने ग्रन्थ में लिखा हैं की हूण भारत के उत्तरी पहाड़ी इलाको में रहते हैं, उनका राजा मिहिरकुल एक विशाल घुड़सवार सेना और कम से कम दो हज़ार हाथियों के साथ चलता हैं, वह भारत का स्वामी हैं|मिहिरकुल के लगभग सौ वर्ष बाद चीनी बौद्ध तीर्थ यात्री हेन् सांग ६२९ इसवी में भारत आया , वह अपने ग्रन्थ “सी-यू-की” में लिखता हैं की सैंकडो वर्ष पहले  मिहिरकुल नाम का राजा हुआ करता था जो स्यालकोट से भारत पर  राज  करता था | वह  कहता हैं कि मिहिरकुल नैसर्गिक रूप से प्रतिभाशाली और बहादुर था|

हेन् सांग बताता हैं कि मिहिरकुल ने भारत में बौद्ध धर्म को बहुत भारी नुकसान पहुँचाया| वह कहता हैं कि एक बार मिहिरकुल ने बौद्ध भिक्षुओं से  बौद्ध धर्म के बारे में जानने कि इच्छा व्यक्त की| परन्तु बौद्ध भिक्षुओं ने उसका अपमान किया, उन्होंने उसके पास, किसी वरिष्ठ बौद्ध भिक्षु को भेजने की जगह एक सेवक को बौद्ध गुरु के रूप में  भेज दिया| मिहिरकुल को जब इस बात का पता चला तो वह गुस्से में आग-बबूला हो गया और उसने बौद्ध धर्म के विनाश कि राजाज्ञा जारी कर दी| उसने उत्तर भारत के  सभी बौद्ध बौद्ध मठो को तुडवा दिया और भिक्षुओं का कत्ले-आम करा दिया| हेन् सांग कि अनुसार मिहिरकुल ने उत्तर भारत से बौधों का नामो-निशान मिटा दिया|

गांधार क्षेत्र में मिहिरकुल के भाई के विद्रोह के कारण, उत्तर भारत का साम्राज्य उसके हाथ से निकल कर, उसके विद्रोही भाई के हाथ में चला गया| किन्तु वह शीघ्र ही कश्मीर का राजा बन बैठा| कल्हण ने बारहवी शताब्दी में “राजतरंगिणी” नामक ग्रन्थ में कश्मीर का इतिहास लिखा हैं| उसने मिहिरकुल का, एक शक्तिशाली विजेता के रूप में ,चित्रण किया हैं| वह कहता हैं कि मिहिरकुल काल का दूसरा नाम था, वह पहाड से गिरते है हुए हाथी कि चिंघाड से आनंदित होता था| उसके अनुसार मिहिरकुल ने हिमालय से लेकर लंका तक के इलाके जीत लिए थे| उसने कश्मीर में मिहिरपुर नामक  नगर बसाया| कल्हण के अनुसार मिहिरकुल ने कश्मीर में श्रीनगर के पास मिहिरेशवर नामक भव्य शिव मंदिर बनवाया था| उसने गांधार इलाके में ७०० ब्राह्मणों को अग्रहार (ग्राम) दान में दिए थे| कल्हण मिहिरकुल हूण को ब्राह्मणों के समर्थक शिव भक्त के रूप में प्रस्तुत करता हैं|

मिहिरकुल ही नहीं वरन सभी हूण शिव भक्त थे| हनोल ,जौनसार –बावर, उत्तराखंड में स्थित महासु देवता (महादेव) का मंदिर हूण स्थापत्य शैली का शानदार नमूना हैं, कहा जाता हैं कि इसे हूण भट ने बनवाया था| यहाँ यह उल्लेखनीय हैं कि भट का अर्थ योद्धा होता हैं |

हाडा लोगों के आधिपत्य के कारण ही कोटा-बूंदी इलाका हाडौती कहलाता हैं राजस्थान का यह हाडौती सम्भाग कभी हूण प्रदेश कहलाता था| आज भी इस इलाके में हूणों गोत्र के गुर्जरों  के अनेक गांव हैं| यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रसिद्ध इतिहासकार वी. ए. स्मिथ, विलियम क्रुक आदि ने गुर्जरों को श्वेत हूणों से सम्बंधित माना हैं| इतिहासकार कैम्पबेल और डी. आर. भंडारकर गुर्जरों की उत्त्पत्ति श्वेत हूणों की खज़र शाखा से मानते हैं | बूंदी इलाके  में रामेश्वर महादेव, भीमलत और झर महादेव हूणों के बनवाये प्रसिद्ध शिव मंदिर हैं| बिजोलिया, चित्तोरगढ़ के समीप स्थित मैनाल कभी हूण राजा अन्गत्सी की राजधानी थी, जहा हूणों ने तिलस्वा महादेव का मंदिर बनवाया था| यह मंदिर आज भी पर्यटकों और श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करता हैं| कर्नल टाड़ के अनुसार बडोली, कोटा में स्थित सुप्रसिद्ध शिव मंदिर पंवार/परमार वंश के हूणराज ने बनवाया था|

इस प्रकार हम देखते हैं की हूण और उनका नेता मिहिरकुल भारत में बौद्ध धर्म के अवसान और शैव धर्म के विकास से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं|
  सन्दर्भ ग्रन्थ

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14.  KRISHNA CHANDRA SAGAR, FOREIGN INFLUENCE ON ANCIENT INDIA http://books.google.co.in/books?

भोजेश्वर मंदिर | Bhojeshwar Mandir

भोजेश्वर मंदिर | Bhojeshwar Mandir

गुर्जर महाराजा भोज परमार का भोजेश्वर मंदिर 

भोजेश्वर मंदिर | गुर्जर महाराजा | भोज परमार | परमार गुर्जर वंश | राजा भोज | भोजपुर | परमार वंश 
 भोजपुर शिव मंदिर | बेतवा नदी | पार्वती गुफा | गुर्जर प्रतिहार राजवंश
भोजेश्वर मंदिर | राजा भोज

भोजेश्वर मंदिर' मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से 32 किलोमीटर की दूरी पर रायसेन ज़िले की गोहरगंज तहसील में है l इस मंदिर को यदि उत्तर भारत का सोमनाथ भी कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। भोजपुर गाँव में पहाड़ी पर यह विशाल शिव मंदिर स्थापित है। भोजपुर मंदिर तथा उसके शिवलिंग की स्थापना धार के प्रसिद्ध गुर्जर महाराजा भोज परमार द्वारा की गई थी। अत: गुर्जर महाराजा भोज के नाम पर ही इस स्थान को भोजपुर और मंदिर को भोजपुर मंदिर या 'भोजेश्वर मंदिर' कहा गया। बेतवा नदी के किनारे बना उच्च कोटि की वास्तुकला का यह नमूना राजा भोज के मुख्य वास्तुविद और अन्य विद्वान वास्तुविदों के सहयोग से तैयार हुआ। मन्दिर की विशालता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसका चबूतरा 35 मीटर लम्बा है।भोजपुर के शिव मंदिर की प्रसिद्धि यहाँ स्थापित शिवलिंग की वजह से और भी अधिक है। पुरातत्व विभाग द्वारा इस मंदिर को विश्व धरोहर में शामिल कराने के प्रयास जारी हैं। कला और संस्कृति के दृष्टि से यहाँ की धरती प्राचीन काल से ही महत्त्वपूर्ण रही है। स्थापत्य कला में भी भोजपुर नामक स्थान पर भोजेश्‍वर के नाम से विख्यात शिव मंदिर काफ़ी महत्त्वपूर्ण रहा है, जिस कारण इसे "पूर्व का सोमनाथ" कहा गया। मध्य काल के आरंभ में गुर्जर महाराजा भोज परमार ने 1010-1053 ई. में भोजपुर की स्थापना की तथा यहाँ पर भगवान शिव का एक भव्य मंदिर भी बनवाया। इस नगर को प्रसिद्धि देने में भोजपुर के भोजेश्वर शिव मंदिर का भी प्रमुख योगदान रहा है। यह मंदिर निर्माण कला का अदभुत उदाहरण है। मंदिर वर्गाकार है, जिसका बाह्य विस्तार बहुत बडा है। मंदिर चार स्तंभों के सहारे पर खड़ा है। देखने पर इसका आकार हाथी की सूंड के समान लगता है। यह मंदिर तीन भागों में विभाजित है। इसका निचला हिस्सा अष्टभुजाकार है, जिसमें फलक बने हुए हैं। शिव मंदिर के प्रवेश द्वार के दोनों पार्श्वों में दो सुंदर प्रतिमाएँ स्थापित हैं, जो सभी को आकृष्ट करती हैं। भोजपुर के शिव मंदिर का प्रसिद्धि शिवलिंग जिसकी ऊँचाई 18 फीट और गोलाई 7.5 फीट है


• भोजेश्वर मंदिर के निकट बेतवा नदी के किनारे बना बाँध :

राजा भोज के भोजेश्वर मंदिर के निकट बेतवा नदी के किनारे बना बाँध

भोजपुर शिव मंदिर' या 'भोजेश्वर मंदिर' मध्य प्रदेश के शिव मंदिरों में से मुख्य मंदिर है। इस मंदिर का विशाल एवं भव्य रूप देखकर हर कोई इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता। भोजेश्वर मंदिर के पश्चिम में कभी एक बहुत बड़ी झील हुआ करती थी। उस झील उस पर एक बाँध भी बना हुआ था, लेकिन अब सिर्फ उसके अवशेष ही यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। बाँध का निर्माण बहुत ही बुद्धिमतापूर्वक किया गया था। दो तरफ़ से पहाड़ियों से घिरी झील को अन्य दो ओर से बालुकाइम के विशाल पाषाण खंडों की मदद से भर दिया गया था। ये पाषाण खंड चार फीट लंबे और 2.5 फीट मोटे थे। छोटा बाँध लगभग 44 फीट ऊँचा था और उसका आधार तल तगभग 300 फीट चौड़ा तथा बड़ा बाँध 24 फीट ऊँचा और ऊपरी सतह पर 100 फीट चौड़ा था। उल्लेखनीय है कि यह बाँध तकरीबन 250 मील के जल प्रसार को रोके हुए था। इस झील को होशंगशाह ने (1405-1434 ई.) में नष्ट करवा दिया।

• भोजेश्वर मंदिर की पार्वती गुफा :



भोजेश्वर मंदिर की पार्वती गुफा | Parvati Cave of Bhojeshwar Temple

गौंड किंवदंती के अनुसार होशंगशाह की फौज को इस बाँध को काटने में तीन महीना का समय लग गया था। कहा जाता है कि इस अपार जलराशि के समाप्त हो जाने के कारण मालवा के जलवायु में परिवर्तन आ गया था। एक अन्य किंवदंती के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इस झील के समाप्त हो जाने के कारण मालवा की जलवायु में भी परिवर्तन हो गया था। इस प्रसिद्घ स्थल पर वर्ष में दो बार वार्षिक मेले का आयोजन किया जाता है, जो 'मकर संक्रांति' व 'महाशिवरात्रि पर्व' के समय होता है। इस धार्मिक उत्सव में भाग लेने के लिए दूर दूर से लोग यहाँ पहुँचते हैं। एक समय था, जब भोजपुर से भोपाल तक फैली झील के अन्तिम छोर पर भोजेश्वर मन्दिर खडा दिखाई देता था। मन्दिर निर्माण के लिये जिस पत्थर का प्रयोग किया गया था, उसे भोजपुर के ही पथरीले क्षेत्रों से प्राप्त किया गया था। मन्दिर के समीप और दूर तक पत्थरों और चट्टानों की कटाई के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। 'अर्ली स्टोन टेम्पल्स ऑफ़ ओडिसा' की लेखिका विद्या देहेजिया के अनुसार भोजपुर के शिव मन्दिर और भुवनेश्वर के 'लिंगराज मन्दिर' व कुछ और मन्दिरों के निर्माण में समानता दिखाई देती है। मन्दिर से कुछ दूर बेतवा नदी के किनारे पर माता पार्वती की गुफ़ा है। क्योंकि गुफ़ा नदी के दूसरी ओर है, इसलिये नदी पार जाने के लिये नौकाएँ उपलब्ध हैं। यद्यपि भोजपुर का प्रसिद्ध शिव मन्दिर वीरान पथरीले इलाके में खडा है, परन्तु आज भी यहाँ आने वाले श्रद्धालुओं की भीड़ में कोई कमी नहीं आई है। प्रतिवर्ष 'महाशिवरात्रि' पर यहाँ लगने वाला मेला देखने लायक़ होता है।

गुर्जर सम्राट मिहिर भोज, भोजपुरी भाषा और भोजपुर (बिहार) के बीच का संबंध

गुर्जर महाराजा भोज परमार | Gurjareshwar Raja Bhoj Parmar

गुर्जर राजा भोज परमार 

गुर्जरेश्वर | राजा भोज परमार | परमार वंश | भोज परमार । पंवार । भोजेश्वर मंदिर । महाराजा भोज परमार | इतिहास


Raja Bhoj Parmar | राजा भोज परमार
गुर्जर महाराजा भोज परमार मालवा के 'परमार' अथवा 'पवार वंश' का नौवाँ यशस्वी राजा था।परमार वंश गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य के अधीन गुर्जर वंश था।राजा भोज ने 1018-1060 ई. तक शासन किया। उसकी राजधानी धार थी। भोज परमार ने 'नवसाहसाक' अर्थात 'नव विक्रमादित्य' की पदवी धारण की थी। भोज ने बहुत-से युद्ध किए और पूर्णत: अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की, जिससे सिद्ध होता है कि उसमें असाधारण योग्यता थी। यद्यपि उसके जीवन का अधिकांश समय युद्धक्षेत्र में बीता, तथापि उसने अपने राज्य की उन्नति में किसी प्रकार की बाधा न उत्पन्न होने दी। राजा भोज ने मालवा के नगरों व ग्रामों में बहुत-से मंदिर बनवाए, यद्यपि उनमें से अब बहुत कम का पता चलता है। भोज स्वयं एक विद्वान था और कहा जाता है कि उसने धर्म, खगोल विद्या, कला, कोश रचना, भवन निर्माण, काव्य, औषधशास्त्र आदि विभिन्न विषयों पर पुस्तकें लिखीं, जो अब भी वर्तमान हैं।

• परिचय

भोज परमार गुर्जर वंश के नवें राजा थे। परमार वंशीय गुर्जर राजाओं ने मालवाकी राजधानी 'धारा नगरी' (धार) से आठवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया। राजा भोज वाक्पति मुंज के छोटे भाई सिंधुराज का पुत्र था। रोहक इसका प्रधानमंत्री और भुवनपाल मंत्री था। कुलचंद्र, साढ़ तथा तरादित्य इसके सेनापति थे, जिनकी सहायता से भोज ने राज्य संचालन सुचारु रूप से किया।
साम्राज्य विस्तार
अपने चाचा वाक्पति मुंज की ही भाँति भोज भी पश्चिमी भारत में एक साम्राज्य स्थापित करना चाहता था और इस इच्छा की पूर्ति के लिये इसे अपने पड़ोसी राज्यों से हर दिशा में युद्ध करना पड़ा। मुंज की मृत्यु शोकजनक परिस्थिति में हो जाने से परमार बहुत ही उत्तेजित थे और इसीलिये भोज बदला लेने के विचार से दक्षिण की ओर सेना लेकर चढ़ाई करने को प्रेरित हुआ। उसने दाहल के कलचुरीगांगेयदेव तथा तंजौर[2] के राजेंद्र चोल से संधि की ओर साथ ही साथ दक्षिण पर आक्रमण भी कर दिया, परंतु तत्कालीन राजा गुर्जरेश चालुक्य जयसिंह  द्वितीय ने बहादुरी से सामना किया और अपना राज्य बचा लिया। सन 1044 ई. के कुछ समय बाद जयसिंह के पुत्र सोमेश्वर द्वितीय ने परमार गुर्जरो से फिर शत्रुता कर ली और मालव राज्य पर आक्रमण कर भोज को भागने के लिये बाध्य कर दिया। धारानगरी पर अधिकार कर लेने के बाद उसने आग लगा दी, परंतु कुछ ही दिनों बाद सोमेश्वर ने मालव छोड़ दिया और भोज ने राजधानी में लोटकर फिर सत्ताधिकार प्राप्त कर लिया। सन 1018 ई. के कुछ ही पहले भोज ने इंद्ररथ नामक एक व्यक्ति को, जो संभवत: कलिंग के गांग राजाओं का सामंत था, पराजित किया।
भोज परमार ने राजस्थान में शाकंभरी के विरुद्ध भी युद्ध की घोषणा की और तत्कालीन राजा वीर्यराम को हराया। इसके बाद उसने चाहमानों के ही कुल के अनहिल द्वारा शालित नदुल नामक राज्य को जीतने की धमकी दी, परंतु युद्ध में परमार हार गए और उनके प्रधान सेनापति साढ़ को जीवन से हाथ धोना पड़ा। भोज ने गुजरात के चालुक्यों से भी, जिन्होंने अपनी राजधानी अनहिलपट्टण में बनाई थी, बहुत दिनों तक युद्ध किया। चालुक्य मूलराज प्रथम के पुत्र चामुण्डराय को वाराणसी जाते समय मालवा में भोज के हाथों अपमानित होना पड़ा था। उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी बल्लभराज को इस पर बड़ा क्रोध आया और उसने इस अपमान का बदला लेने की सोची। उसने भोज के विरुद्ध एक बड़ी सेना तैयार की और भोज पर आक्रमण कर दिया, परंतु दुर्भाग्यवश रास्ते में ही चेचक से उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद वल्लभराज के छोटे भाई दुर्लभराज ने सत्ता की बागडोर अपन हाथों में ली। कुछ समय बाद भोज ने उसे भी युद्ध में हराया। दुर्लभराज के उत्तराधिकारी भीम के राज्यकाल में भोज ने अपने सेनापति कुलचंद्र को गुजरात के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजा। कुलचंद्र ने पूरे प्रदेश पर विजय प्राप्त की तथा उसकी राजधानी अनहिलपट्टण को लूटा। भीम ने एक बार आबू पर आक्रमण कर उसके राजा परमार ढंडु को हराया था, जब उसे भागकर चित्रकूट में भोज की शरण लेनी पड़ी थी। जैसा के विदित है कि सन 1055 ई. के थोड़े ही पहले भीम ने कलचुरी कर्ण से संधि करके मालवा पर आक्रमण कर दिया था, परंतु भोज के रहते वे उस प्रदेश पर अधिकार न पा सके।

• रचनाएँ

भोज परमार ने कई विषयों के अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था। वह बहुत अच्छा कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी भी था। 'सरस्वतीकंठाभरण', 'शृंगारमंजरी', 'चंपूरामायण', 'चारुचर्या', 'तत्वप्रकाश', 'व्यवहारसमुच्चय' आदि अनेक ग्रंथ उसी के द्वारा लिखे हुए बतलाए जाते हैं। उसकी सभा सदा बड़े-बड़े पंडितों से सुशोभित रहती थी। उनकी पत्नी का नाम 'लीलावती' था, जो बहुत बड़ी विदुषी महिला थी। भोज परमार ने ज्ञान के सभी क्षेत्रों में रचनाएँ कीं। उसने लगभग 84 ग्रन्थों की रचना की थी। उनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं-
1. 'राजमार्तण्ड' (पतंजलि के योगसूत्र की टीका)
2. 'सरस्वतीकण्टाभरण' (व्याकरण)
3. 'सरस्वतीकठाभरण' (काव्यशास्त्र)
4. 'शृंगारप्रकाश' (काव्यशास्त्र तथा नाट्यशास्त्र)
5. 'तत्त्वप्रकाश' (शैवागम पर)
6. 'वृहद्राजमार्तण्ड' (धर्मशास्त्र)
7. 'राजमृगांक' (चिकित्सा)
डॉ. महेश सिंह ने भोज परमार की रचनाओं को विभिन्न विषयों के अन्तर्गत वर्गीकृत किया है-
1. धर्मशास्त्र, राजधर्म तथा राजनीति - भुजबुल (निबन्ध) , भुपालपद्धति, भुपालसमुच्चय या कृत्यसमुच्चय, चाणक्यनीतिः या दण्डनीतिः, व्यवहारसमुच्चय, युक्तिकल्पतरु, पुर्तमार्तण्ड, राजमार्तण्ड, राजनीति
2. संकलन - सुभाषितप्रबन्ध
3. शिल्प - समराङ्गणसूत्रधार
4. खगोल एवं ज्योतिष - आदित्यप्रतापसिद्धान्त, राजमार्तण्ड, राजमृगाङ्क, विद्वज्ञानवल्लभ (प्रश्नविज्ञान)
5. संगीत - संगीतप्रकाश
6. दर्शन - राजमार्तण्ड (योगसूत्र की टीका), राजमार्तण्द (वेदान्त), सिद्धान्तसंग्रह, सिद्धान्तसारपद्धति, शिवतत्त्व या शिवतत्त्वप्रकाशिका
7. प्राकृत काव्य - कुर्माष्टक
8. संस्कृत काव्य एवं गद्य - चम्पूरामायण, महाकालीविजय, शृंगारमञ्जरी, विद्याविनोद
9. व्याकरण - शब्दानुशासन
10. कोश - नाममालिका
11. चिकित्साविज्ञान - आयुर्वेदसर्वस्व, राजमार्तण्ड या योगसारसंग्रह राजमृगारिका, शालिहोत्र, विश्रान्त विद्याविनोद
महानता
* जब भोज जीवित थे, तब उनकी महानता के बारे में कहा जाता था कि-
अद्य धारा सदाधारा सदालम्बा सरस्वती।पण्डिता मण्डिताः सर्वे भोजराजे भुवि स्थिते॥
अर्थात "आज जब भोजराज धरती पर स्थित हैं तो धारा नगरी सदाधारा (अच्छे आधार वाली) है; सरस्वती को सदा आलम्ब मिला हुआ है; सभी पंडित आदृत हैं।"
* जब भोज परमार का देहान्त हुआ तो कहा गया कि-
अद्य धारा निराधारा निरालंबा सरस्वती।पण्डिताः खण्डिताः: सर्वे भोजराजे दिवं गते॥
अर्थात "आज भोजराज के दिवंगत हो जाने से धारा नगरी निराधार हो गयी है; सरस्वती बिना आलम्ब की हो गयी है और सभी पंडित खंडित हैं।"
पराजय तथा मृत्यु
भोज ने भोजपुर में एक विशाल सरोवर का निर्माण कराया था, जिसका क्षेत्रफल 250 वर्ग मील से भी अधिक विस्तृत था।
यह सरोवर पन्द्रहवीं शताब्दी तक विद्यमान था, जब उसके तटबन्धों को कुछ स्थानीय शासकों ने काट दिया।

 Dam in bank of betva River near Bhojeshwar Temple

अपने शासन काल के अंतिम वर्षों में भोज परमार को पराजय का अपयश भोगना पड़ा। गुजरात के चालुक्यराजा तथा चेदि नरेश की संयुक्त सेनाओं ने लगभग 1060 ई. में भोज परमार को पराजित कर दिया। इसके बाद ही उनकी मृत्यु हो गई।
गुर्जर प्रतिहार राजवंश के अधीन कई गुर्जर वंश आते थे।
जिनमे मुख्य चौहान वंश, चालुक्य वंश, परमार वंश, तंवर/तोमर वंश, गुहिल वंश, मैत्रक वंश, चंदेल वंश,चप वंश, खटाणा वंश, भडाणा वंश आदि, इन गुर्जर वंशो मे आपस मे युध्द होते रहते थे लेकिन बाहरी आक्रमणो के समय ये सब एक हो जाते थे।
गुर्जर प्रतिहार राजवंश के अघीन गुर्जर वंश | Gurjar Dynasties under Gurjara Pratihara 

गुर्जर सम्राट मिहिर भोज, भोजपुरी भाषा और भोजपुर (बिहार) के बीच का संबंध

गुर्जर सम्राट मिहिर भोज, भोजपुरी भाषा और भोजपुर (बिहार) के बीच का संबंध

गुर्जर सम्राट मिहिर भोज, भोजपुरी भाषा और भोजपुर (बिहार) के बीच का संबंध

उगता भारत ब्यूरो | इतिहास के पन्नो से | स्वर्णिम इतिहास | गुर्जर सम्राट मिहिर भोज | भोजपुरी भाषा और भोजपुर (बिहार) के बीच का संबंध |



Gurjar Samrat Mihir Bhoj | गुर्जर सम्राट मिहिर भोज

भोजपुर,बिहार जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, भोजपुरी भाषा बोलने वाला सांस्कृतिक क्षेत्र है। बिहार के अलावा पूर्वी उत्तर-प्रदेश का कुछ क्षेत्र भी इस सांसकृतिक पॉकेट का अभिन्न हिस्सा है।बिहार शायद एक अनोखा राज्य है जो अपने अलग-अलग सांस्कृतिक भू-भागों में अलग-अलग सांस्कृतिक धरोहरों के लिए विख्यात है। भोजपुरी क्षेत्र निष्कर्षत: लोक-संस्कृति प्रधान रहा है। भोजपुर क्षेत्र की सीमा को विद्वानों ने उत्तर में हिमालय पर्वतमाला की तराई, दक्षिण मध्यप्रान्त का जसपुर राज्य, पूर्व में मुजफ्फपुर की उत्तरी-पश्चिमी भाग और पश्चिम में बस्ती तक के विस्तार को माना है। इस प्रकार इसका क्षेत्रफल लगभग पच्चास वर्गमील है।

पृथ्वीसिंह मेहता अपनी पुस्तक बिहार एक ऐतिहासिक दिग्दर्शन में लिखते है कि गुर्जर प्रतिहार वंश के शासक गुर्जर सम्राट मिहिर भोज ने अपने नाम से भोजपुर किले की स्थापना की। लेखक पृथ्वीसिंह मेहता का मत है कि कन्नोज के गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज ने भोजपुर बसाया था। भोजपुर राजा भोज का बसाया है, यह बात जनता में आजतक प्रचलित है, लेकिन कन्नोज के गुर्जर सम्राट मिहिर भोज को भूल जाने के कारण लोग आज धार (मालवा) के राजा भोज परमार को उसका संस्थापक मान बैठे हैं। मालवा का राजा भोज परमार महमूद गजनवी का समकालीन था और बिहार से उसका कोई सम्बन्ध न था। उत्तरी भारत में के लगभग 836 ई0 गुर्जर सम्राट रामभद्र का बेटा गुर्जर सम्राट मिहिर भोज गद्दी पर बैठा। भोज के गद्दी पर बैठते ही स्थिति बदल गयी। देवपाल को हराकर उसने शीध्र ही कन्नौज वापस ले लिया और भिन्नमाल की जगह कन्नौज को ही अपना राजधानी बनाया। हिमालय में काश्मीर की सीमा तक का प्रदेश जीतकर ने अपने राज्य में शामिल कर लिया और अपनी पश्चिमी सीमा वहाँ मुलतान के अरब राज्य तक पहुँचा दी।

पूरब में गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के राज्य की सीमा बिहार तक थी। राजा देवपाल से उसने पश्चिमी बिहार (प्राचीन मल्ल देश) छीन लिया।गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के ग्वालियर प्रशस्ति (इपिग्राफिका इंडिका-भाग 12 , पृ0 156 ) से यह स्पष्ट होता है कि इसने धर्मपाल के पुत्र देवपाल को हराया था, साथ ही सारन जिले के दिवा-दुवौली ( इण्डियन एंटिक्वेरी – भाग 12 , पृष्ठ 112 ) नामक गाँव से पाये गये ताम्रपत्र से भी यह बात सिद्ध होती है कि प्रतिहार भोज का राज्य गोरखपुर तथा सारन तक था। पृथ्वीसिंह मेहता यह भी लिखते हैं कि पालों कि रोकथाम के लिए उन्होने शाहबाद जिले में अपने नाम से भोजपुर की स्थापना की। उसी भोजपुर नाम से आज पश्चिमी बिहार की जनता और उनकी बोली भोजपुरी कहलाती है। पृथ्वीसिंह मेहता का विचार अधिक प्रामाणिक है , क्योंकि कम से कम गुर्जर सम्राट मिहिर भोज का राज्य सारन तक तो रहा। इसकी संभावना भी है कि उसने पालों की रोकथाम के लिए भोजपुर में किले की स्थापना की गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के भोजपुर में किला बनवाने की बात ही सबसे अधिक कही जाती है।
प्रस्तुति : राकेश आर्य (बागपत)
http://www.ugtabharat.com/relation-of-mihir-bhoj-and-bhojpuri-language-and-bhojpur/

चंदेल गुर्जर वंश | History of Chandel Gurjar Dynasty

चंदेल गुर्जर वंश | History of Chandel Gurjar Dynasty

चन्देल गुर्जर वंश का इतिहास

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चन्देल गुर्जर वंश मध्यकालीन भारत का प्रसिद्ध गुर्जर राजवंश था। जिसने 08वीं से 12वीं शताब्दी तक स्वतंत्र रूप से यमुना और नर्मदा के बीच, बुंदेलखंड तथा उत्तर प्रदेश के दक्षिणी-पश्चिमी भाग पर राज किया। चंदेल वंश के शासकों का बुंदेलखंड के इतिहास में विशेष योगदान रहा है। उन्‍होंने लगभग 400 साल तक बुंदेलखंड पर शासन किया। चन्देल गुर्जर शासको न केवल महान विजेता तथा सफल शासक थे, अपितु कला के प्रसार तथा संरक्षण में भी उनका महत्‍वपूर्ण योगदान रहा। चंदेल गुर्जरो का शासनकाल आमतौर पर बुंदेलखंड के शांति और समृद्धि के काल के रूप में याद किया जाता है। चंदेलकालीन स्‍थापत्‍य कला ने समूचे विश्‍व को प्रभावित किया उस दौरान वास्तुकला तथा मूर्तिकला अपने उत्‍कर्ष पर थी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं खजुराहो के मंदिर।
खजुराहो का कंदरीय महादेव मंदिर
Khujrao Temple of Chandel Gurjar Dynasty | खुजराहो का मंदिर


• उत्पत्ति एवं परिचय 

इस वंश की उत्पत्ति का उल्लेख कई लेखों में है। कीर्तिवर्मन् के देवगढ़ शिलालेख में और चाहमान गुर्जर पृथ्वीराज तृतीय के लेख में "चन्देल" शब्द का प्रयोग हुआ है। गुर्जर वंश में नृप नंनुक हुआ जिसके पुत्र वा पति और पौत्र जयशक्ति तथा विजयशक्ति थे। विजय के बाद क्रमश: राहिल, हर्ष, यशोवर्मन् और धंग , गुर्जर राजा हुए। वास्तव में गुर्जर सम्राट नंनुक से ही इस वंश का आरंभ होता है और अभिलेख तथा किंवदंतियों से प्राप्त विवरणों के आधार पर उनका संबंध आरंभ से ही खजुराहो से रहा तथा गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य के अधीन रहे। अरब इतिहास के लेखक कामिल ने भी इनको "कजुराह" में रखा है। धंग से इस वंश के संस्थापक नंनुक की तिथि निकालने के लिय यदि हम प्रत्येक पीढ़ी के लिये 20-25 वर्ष का काल रखें तो धंग से छह पीढ़ी पहले नंनुक की तिथि से लगभग 120 वर्ष पूर्व अर्थात् 954 ई. - 120 = 834 ई. (लगभग 830 ई.) के निकट रखी जा सकती है। "महोबा खंड" में चंद्रवर्मा के अभिषेक की तिथि 225 सं. रखी गई है। यदि गुर्जर नरेश नंनुक का विरुद अथवा दूसरा नाम मान लिया जाय और इस तिथि को हर्ष संवत् में मानें तो नंनुक की तिथि (606 + 225) अथवा 831 ई. आती है। अत: दोनों अनुमानों से नंनुक का समय 831 ई. माना जा सकता है।

वाक्पति ने विंध्या के शत्रुओं को हराकर अपना राज्य विस्तृत किया। तृतीय गुर्जर नरेश जयशक्ति ने अपने ही नाम से अपने राज्य का नामकरण जेजाकभुक्ति किया। कदाचित् यह गुर्जर प्रतिहार सम्राट् मिहिर भोज का सामंत राजा था और यही स्थिति उसके भाई विजयशक्ति तथा पुत्र राहिल की भी थी। हर्ष और उसके पुत्र यशोवर्मन् के समय परिस्थिति बदल गई। गुर्जरों और राष्ट्रकूटों के बीच निरंतर युद्ध से अन्य शक्तियाँ भी ऊपर उठने लगीं। इसके अतिरिक्त गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के पुत्र महेंद्रपाल के बाद कन्नौज के सिंहासन के लिये गुर्जर सम्राट भोज द्वितीय तथा क्षितिपाल में संघर्ष हुआ। खजुराहो के एक लेख में हर्ष अथवा उसके पुत्र यशोवर्मन् द्वारा पुन: क्षितिपाल को सिंहासन पर बैठाने का उल्लेख है- (पुनर्येन श्री क्षितिपालदेव नृपसिंह: सिंहासने स्थापित:।)

 हर्ष के पुत्र यशोवर्मन् के समय चंदेलों का गौड़, कोशल, मिथिला, मालव, चेदि, के साथ संघर्ष का संकेत है।प्रशस्तिकार ने उसकी प्रशंसा बढ़ा चढ़ाकर की हो तब भी इसमें संदेह नहीं कि चंदेल गुर्जर राज्य धीरे धीरे शक्तिशाली बन रहा था। धंग के खजुराहों लेख में गुर्जर प्रतिहार सम्राट विनायकपाल का उल्लेख मिलता है। 
चंदेल गुर्जर शासको में धंगदेव सबसे प्रसिद्ध तथा शक्तिशाली राजा हुआ और इसने 50 वर्ष (950 से 1000 ई.) तक राज किया। उसके लंबे राज्यकाल में खजुराहो के दो प्रसिद्ध मंदिर विश्वनाथ तथा पार्श्वनाथ बने। पंजाब के राजा जयपाल की सहायता के लिये अजमेर और कन्नौज के गुर्जर राजाओं के साथ उसने गजनी के शासक सुबुक्तगीन के विरुद्ध सेना भेजी। उसके पुत्र गंड (1001-1017) ने भी अपने पिता की भाँति 'गुर्जर राजा आनंदपाल खटाणा' की महमूद गजनी के विरुद्ध सहायता की। महमूद के कन्नौज पर आक्रमण और राज्यपाल के हार के विरोध में गंड के पुत्र विद्याधर ने कन्नौज के राजा का वध कर डाला, पर 1023 ई. में गंड को स्वयं कालिंजर का गढ़ महमूद को दे देना पड़ा। महमूद के लौटने पर यह पुन: चंदेलों के पास आ गया। गंड के समय कदाचित् जगदंबी नामक वैष्णव मंदिर तथा चित्रगुप्त नामक सूर्यमंदिर बने। गंड के पुत्र विद्याधर (लगभग 1019-1029) को इब्नुल अथीर नामक मुसलमान लेखक ने अपने समय का सबसे शक्तिशाली राजा कहा है। उसके समय चंदेल गुर्जरो ने कलचुरी और परमारों गुर्जरो पर विजय पाई और 1019 तथा 1022 में महमूद का मुकाबला किया। चंदेल गुर्जर राज्य की सीमा विस्तृत हो गई थी। कहा जाता है कि कंदरीय महादेव का विशाल मंदिर भी इसी ने बनवाया
गुर्जर नरेश विद्याधर के बाद चन्देल राज्य की कीर्ति और शक्ति घटने लगी। गुर्जर नरेश विजयपाल चन्देल (लगभग 1029-51) इस युग का प्रमुख चंदेल राजा हुआ। कीर्तिवर्मन् (1070-95) तथा मदनवर्मन् (लगभग 1029-1162) भी प्रमुख चंदेल राजा हुए। कलचुरी सम्राट् दाहिले की विजय से 1040-70 तक के लंबे काल के लिये चंदेलों की शक्ति क्षीण हो गई थी। विल्हण ने कर्ण को कालिंजर का राजा बताया है।गुर्जर राजा कीर्तिवर्मन् ने चंदेलों की खोई हुई शक्ति और कलचुरियों द्वारा राज्य के जीते हुए भाग को पुन: लौटाकर अपने वंश की लुप्त प्रतिष्ठा स्थापित की। उसने सोने के सिक्के
 भी चलाए जिसमें कलचुरि आंगदेव के सिक्कों का अनुकरण किया गया है। केदार मिश्र द्वारा रचित "प्रबोधचंद्रोदय" (1065 ई.) इसी चंदेल गुर्जर सम्राट् के दरबार में खेला गया था। इसमें वेदांतदर्शन के तत्वों का प्रदर्शन है। यह कला का भी प्रेमी था और खजुराहों के कुछ मंदिर इसके शासनकाल में बने। कीर्तिवर्मन् के बाद सल्लक्षण बर्मन् या हल्लक्षण वर्मन्, जयवर्मनदेव तथा पृथ्वीवर्मनदेव ने राज्य किया। अंतिम चन्देल गुर्जर सम्राट्, जिसका वृत्तांत "चंदरासो" में उल्लिखित है, परमर्दिदेव अथवा परमाल (1165-1203) था। इसका चौहान वंश के गुर्जर सम्राट् पृथ्वीराज  से संघर्ष हुआ और 1208 में कुतबुद्दीन ने कालिंजर का गढ़ इससे जीत लिया, जिसका उल्लेख मुसलमान इतिहासकारों ने किया है। चंदेल गुर्जर राज्य की सत्ता समाप्त हो गई पर शासक के रूप में इस वंश का अस्तित्व कायम रहा। 16वीं शताब्दी में स्थानीय शासक के रूप में चंदेल गुर्जर राजा बुंदेलखंड में राज करते रहे पर उनका कोई राजनीतिक प्रभुत्व न रहा।

• शासन, संस्कृति एवं कला 

चंदेल शासन परंपरागत आदर्शों पर आधारित था। गुर्जर सम्राट यशोवर्मन् के समय तक चंदेल गुर्जर नरेश अपने लिये किसी विशेष उपाधि का प्रयोग नहीं करते थे। धंग ने सर्वप्रथम परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर, परममाहेश्वर, गुर्जरेश्वर, कालंजराधिपति, का विरुद धारण किया। कलचुरि नरेशों के अनुकरण पर परममाहेश्वर श्रीमद्वामदेवपादानुध्यात तथा त्रिकलिंगाधिपति और गाहड़वालों के अनुकरण पर परमभट्टारक इत्यादि समस्त राजावली विराजमान विविधविद्याविचारवाचस्पति और कान्यकुब्जाधिपति का प्रयोग मिलता है।
हम्मीरवर्मन् की साहि उपाधि संभवत: मुस्लिम प्रभाव के कारण थी; गुर्जर राजवंश के अन्य व्यक्तियों को भी शासन में अधिकार के पद मिलते थे। कुछ अभिलेखों से प्रतीत होता है कि कुछ मंत्रियों को उनके पद का अधिकार वंशगत रूप में प्राप्त हुआ था। मंत्रियों के लिये मंत्रि, सचिव और अमात्य का प्रयोग बिना किसी विशेष अंतर के किया गया है। मंत्रिमुख्य के अतिरिकत अधिकारियों में सांधिविग्रहिक, प्रतिहार, कंचुकि, कोशाधिकाराधिपति, भांडागाराधिपति, अक्षपटलिक, कोट्टपाल, विशिष, सेनापति, हस्त्यश्वनेता, पुरबलाध्यक्ष आदि के नाम आते हैं। शासन के कुछ कार्य पंचकुल और धर्माधिकरण जैसे बोर्डो के हाथ में था। राज्य विषय, मंडल, पत्तला, ग्रामसमूह और ग्रामों में विभक्त था। शासन में सामंत व्यवस्था कुछ रूपों में उपस्थित थी। एक अभिलेख में एक मंत्री को मांडलिक भी कहा गया है। विशिष्ट सैनिक सेवा के लिये गाँव दिए जाते थे। युद्ध में मरे सैनिकों के लिये किसी प्रकार के पेंशन अथवा मृत्युक वृत्ति की भी व्यवस्था थी। चंदेल गुर्जर राज्य की भौगोलिक और प्राकृतिक दशा के कारण दुर्गों (किला) का विशेष महत्व था और उनकी ओर विशेष ध्यान दिया जाता था। अभिलेखों में राज्य द्वारा लिए गए करों की सूची में भाग, भोग, कर, हिरण्य, पशु, शुल्क और दंडादाय का उल्लेख है।
गुर्जरो मे मिहिर, गुर्जरेश्वर, गुर्जर नरेश, गुर्जर परमेश्वर, गुर्जरेश, का भी उपयोग मिलता है। कीर्तिवर्मन् पहला चंदेल गुर्जर नरेश था जिसने सिक्के बनवाए।
चंदेल गुर्जर राज्य में पौराणिक धर्म की जनप्रियता बढ़ रही थी। चंदेल गुर्जर राजा और उनके मंत्री तथा अन्य अधिकारियों के द्वारा प्रतिमा और मंदिर के निर्माण के कई उल्लेख मिलते हैं। विष्णु के अवतारों में वराह, वामन, नृसिंह, राम और कृष्ण की पूजा का अधिक प्रचलन था। चंदेल गुर्जर राज्य से हनुमान की दो विशाल प्रतिमाएँ मिली हैं और कुछ चंदेल गुर्जर सिक्कों पर उनकी आकृति भी अंकित हैं किंतु विष्णु की तुलना में शिव की पूजा का अधिक प्रचार था। धंग के समय से चंदेल गुर्जर नरेश शैव बन गए। शिवलिंग के साथ ही शिव की आकृतियाँ भी प्राप्त हुई हैं। शिव के विभिन्न स्वरूपों के परिचायक उनके अनेक नाम अभिलेखों में आए हैं। शक्ति अथवा देवी के लिये भी अनेक नामों का उपयोग हुआ है। अजयगढ़ में अष्टशक्तियों की मूर्तियाँ अंकित हैं। सूर्य की पूजा भी जनप्रिय थी। गणेश और ब्रह्मा की मूर्तियाँ यद्यपिं मिली हैं लेकिन उनके पूजकों के पथक् संप्रदायों के अस्तित्व का प्रमाण नहीं मिलता। अन्य देवता जिनके उल्लेख हैं या जिनकी प्रतिमाएँ मिलती हैं। उनके नाम हैं- लक्ष्मी, सरस्वती, इंद्र, चंद्र और गंगा। बुद्ध, बोधिसत्व और तारा की कुछ प्रतिमाएँ मिलती हैं। हिंदु धर्म की भाँति जैन धर्म का भी प्रचार था, विशेष रूप से वैश्यों में। किंतु सांप्रदायिक कटुता के उदाहरण नहीं मिलते। चंदेल गुर्जर नरेशों की नीति इस विषय में उदार थी।
चंदेल गुर्जर राज्य अपनी कलाकृतियों के कारण भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध हैं। चंदेल मंदिरों में से अधिकांश खजुराहों में हैं। कुछ महोबा में भी हैं। इनका निर्माण मुख्यत: 10वीं शताब्दी के मध्य से 11वीं शताब्दी के मध्य के बीच हुआ है। ये शैव, वैष्णव और जैन तीनों ही धर्मों के हैं। इन मंदिरों में अन्य क्षेत्रों की प्रवत्तियों का प्रभाव भी ढूँढ़ा जा सकता है किंतु प्रधान रूप से इनमें चंदेल कलाकार की मौलिक विशेषताएँ दिखलाई पड़ती हैं। एक विद्वान् का कथन है कि भवन-निर्माण-कला के क्षेत्र में भारतीय कौशल को खजुराहों के मंदिरों में सर्वोच्च विकास प्राप्त हुआ है। ये मंदिर विशालता के कारण नहीं बल्कि अपनी भव्य योजना और समानुपातिक निर्माण के लिये प्रसिद्ध हैं। मंदिर के चारों ओर कोई प्राचीर नहीं होती। मंदिर ऊँचे चबूतरे (अधिष्ठान) पर बना होता है। इसमें गर्भगृह, मंडप, अर्धमंडप, अंतराल और महामंडल होते हैं। इक मंदिरों की विशेषता इनके शिखर हैं जिनके चारों ओर अंग शिखरों की पुनरावृत्ति रहती है।
इन मंदिरों की मूर्तिकला भी इनकी विशेषता है। इन मूर्तियों की केवल संख्या ही स्वंय उल्लेखनीय है। इनके निर्माण में सूक्ष्म कौशल के साथ ही अद्भुत सजीवता दिखलाई पड़ती है। इन कृतियों के विषय भी विविध हैं : प्रधान देवी देवता, परिवारदेवता, गौण देवता, दिक्पाल, नवग्रह, सुरसुंदर, नायिका, मिथुन, पशु और पुष्पलताएँ तथा रेखागणितीय आकृतियाँ। इन मंदिरों में मिथुन आकृतियों की इतनी अधिक संख्या में उपस्थिति का कोई सर्वमान्य हल नहीं बतलाया जा सकता। महोबा से प्राप्त चार बौद्ध प्रतिमाएँ अतीव सुंदर हैं। इनमें से सिंहनाद अवलोकितेश्वर की मूर्ति तो भारतीय मूर्तिकला के सर्वोत्कृष्ट नमूनों में से एक है।
साहित्य के क्षेत्र में कोई विशेष उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई। कुछ चंदेल अभिलेखकाव्य की दृष्टि से अच्छे हैं। चंदेल गुर्जरो के कुछ मंत्रियों और अधिकारियों को लेखों में कवि, बालकवि, कवींद्र, कविचक्रवर्तिन् आदि कहा गया है जिससे चंदेल गुर्जर राजाओं की कवियों को प्रश्रय देने की नीति का बोध होता है।
• चंदेल गुर्जर शासक
Chandel Gurjar Rulers 


* नन्नुक (831 -45) (संस्थापक)
* वाक्पति (845 -870)
* जयशक्ति चन्देल और विजयशक्ति चन्देल (870 -900)
* राहिल (900 -???)
* हर्ष चन्देल (900-925)
* यशोवर्मन् (925-950)
* धंगदेव (950-1003)
* गंडदेव (1003–1017)
* विद्याधर (1017–1029)
* विजयपाल (1030–1045)
* देववर्मन (1060-1070)
* कीरतवर्मन (1070-1100)
* सल्लक्षनवर्मन (1100-1115)
* जयवर्मन (1115-1120)
* प्रथ्वीवर्मन (1120-1129)
* मदनवर्मन (1129–1162)
* यशोवर्मन II (1165-1203)
* परर्मार्दिदेव (1203-1208)

गुर्जर प्रतिहार

  नीलकुण्ड, राधनपुर, देवली तथा करडाह शिलालेख में प्रतिहारों को गुर्जर कहा गया है । राजौरगढ शिलालेख" में वर्णित "गुर्जारा प्रतिहार...