Friday, 31 March 2017

about gurjars origin by dr sushil bhati

गुर्जरों की कुषाण उत्पत्ति का सिद्धांत

डा. सुशील भाटी
                                          
Key Words - Kushan, Koshano, kasana, Gusura, Gasura, Gosura, Gurjara, Bhinmal, Bactrian, Gujari     
I
आधुनिक कसाना ही ऐतिहासिक कुषाण हैं|

अलेक्जेंडर कनिंघम ने आर्केलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, खंड IV, 1864 में कुषाणों की पहचान आधुनिक गुर्जरों से की है| वे कहते हैं कि पश्चिमिओत्तर भारत में जाटो के बाद गुर्जर ही सबसे अधिक संख्या में बसते हैं इसलिए वही कुषाण हो सकते हैं| अपनी इस धारणा के पक्ष में कहते हैं कि आधुनिक गुर्जरों का कसाना गोत्र कुषाणों का प्रतिनिधि हैं|

अलेक्जेंडर कनिंघम बात का महत्व इस बात से और बढ़ जाता है कि गुर्जरों का कसाना गोत्र क्षेत्र विस्तार एवं संख्याबल की दृष्टि से सबसे बड़ा है। कसाना गौत्र अफगानिस्तान से महाराष्ट्र तक फैला हुआ है और भारत में केवल गुर्जर जाति में मिलता है।

गुर्जरों के अपने सामाजिक संगठन के विषय में खास मान्यताएं प्रचलित रही हैं जोकि उनकी कुषाण उत्पत्ति की तरफ स्पष्ट संकेत कर रही हैं| एच. ए. रोज के अनुसार यह सामाजिक मान्यता हैं कि गुर्जरों के ढाई घर असली हैं, गोरसी, कसाना और आधा बरगट| अतः गुर्जरों के सामाजिक संगठन में कसाना गोत्र का बहुत  ज्यादा महत्व हैं, जोकि अलेक्जेंडर कनिंघम के अनुसार कुषाणों के वर्तमान प्रतिनिधि हैं|

इतिहासकारों के अनुसार कुषाण यू ची कबीलो में से एक थे जिनकी भाषा तोखारी थी| तोखारी भारोपीय समूह की केंटूम वर्ग की भाषा थी| किन्तु बक्ट्रिया में बसने के बाद इन्होने मध्य इरानी समूह की एक भाषा को अपना लिया| इतिहासकारों ने इस भाषा को बाख्त्री भाषा कहा हैं| कुषाण सम्राटों के सिक्को पर इसी बाख्त्री भाषा और यूनानी लिपि में कोशानो लिखा हैं| गूजरों के कसाना गोत्र को उनकी अपनी गूजरी भाषा में कोसानो ही बोला जाता हैं| अतः यह पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाता हैं कि आधुनिक कसाना ही कुषाणों के प्रतिनिधि हैं|

कुषाण के लिए कोशानो ही नहीं कसाना शब्द का प्रयोग भी ऐतिहासिक काल से होता रहा हैं| यह सर्विदित हैं कि कसाना गुर्जरों का प्रमुख गोत्र हैं| कुषाणों के सोने के सिक्को को कसाना भी कहा जाता था| एनसाईंकिलोपिडिया ब्रिटानिका के अनुसार भारत में कुषाण वंश के संस्थापक कुजुल कड़फिसेस को उसके सिक्को पर कशाना यावुगो (कसाना राजा) लिखा गया हैं| किदार कुषाण वंश के संस्थापक किदार के सिक्को पर भी कसाना शब्द का प्रयोग किया गया हैं| स्टडीज़ इन इंडो-एशियन कल्चर , खंड 1 , के अनुसार ईरानियो ने  कुषाण शासक षोक, परिओक के लिए कसाना शासक लिखा| कुछ आधुनिक इतिहासकारों ने कुषाण वंश के लिया कसाना वंश शब्द का प्रयोग भी अपने लेखन में किया हैं, जैसे हाजिमे नकमुरा ने अपनी पुस्तक में कनिष्क को कसाना वंश का शासक लिखा हैं|

अतः इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि आधुनिक गुर्जरों का कसाना गोत्र ही इतिहास प्रसिद्ध कुषाणों के वंशज और वारिस हैं|

II
कुषाणों की बाख्त्री भाषा और गूजरों की गूजरी भाषा में अद्भुत समानता

गुर्जरों की हमेशा ही अपनी विशिष्ट भाषा रही हैंगूजरी भाषा के अस्तित्व के प्रमाण सातवी शताब्दी से प्राप्त होने लगते हैंसातवी शताब्दी में राजस्थान को गुर्जर देश कहते थेजहाँ गुर्जर अपनी राजधानी भीनमाल से यहाँ शासन करते थेगुर्जर देश के लोगो की अपनी गुर्जरी भाषा और विशिष्ट संस्कृति थीइस बात के पुख्ता प्रमाण हैं कि आधुनिक गुजराती और राजस्थानी का विकास इसी गुर्जरी अपभ्रंश से हुआ हैंवर्तमान में जम्मू और काश्मीर के गुर्जरों में यह भाषा शुद्ध रूप में बोली जाती हैं|  जी. ए. ग्रीयरसन ने लिंगविस्टिक सर्वे ऑफ इंडियाखंड IX  भाग IVमें गूजरी भाषा का का विस्तृत वर्णन किया हैंइतिहासकारों के अनुसार कुषाण यू ची कबीलो में से एक थेजिनकी भाषा तोखारी थीतोखारी भारोपीय समूह की केंटूम वर्ग की भाषा थीकिन्तु बक्ट्रिया में बसने के बाद इन्होने मध्य इरानी समूह की एक भाषा को अपना लियाइतिहासकारों ने इस भाषा को बाख्त्री भाषा कहा हैंकुषाणों द्वारा बोले जाने वाली बाख्त्री भाषा और गुर्जरों की गूजरी बोली में खास समानता हैंकुषाणों द्वारा बाख्त्री भाषा का प्रयोग कनिष्क के रबाटक और अन्य अभिलेखों में किया गया हैंकुषाणों के सिक्को पर केवल बाख्त्री भाषा का यूनानी लिपि में प्रयोग किया गया हैंकुषाणों द्वारा प्रयुक्त बाख्त्री भाषा में गूजरी बोली की तरह अधिकांश शब्दों में विशेषकर उनके अंत में ओ का उच्चारण होता हैंजैसे बाख्त्री में उमा को ओमोकुमार को कोमारो ओर मिहिर को मीरो लिखा गया हैंवैसे ही गूजरी बोली  में राम को रोमपानी को पोनीगाम को गोमगया को गयो आदि बोला जाता हैंइसीलिए कुषाणों के सिक्को पर उन्हें बाख्त्री में कोशानो लिखा हैं और वर्तमान में गूजरी में कोसानो बोला जाता हौंअतः कुषाणों द्वारा प्रयुक्त बाख्त्री भाषा और आधुनिक गूजरी भाषा की समानता भी कुषाणों और गूजरों की एकता को प्रमाणित करती हैंहालाकि बाख्त्री और गूजरी की समानता पर और अधिक शोध कार्य किये जाने की आवशकता हैंजो कुषाण-गूजर संबंधो पर और अधिक प्रकाश डाल सकता हैं|

III
गुशुर>गुजुर>गुज्जर>गुर्ज्जर>गुर्जर

कुछ इतिहासकार के अनुसार गुर्जर शब्द की उत्पत्ति गुशुर’ शब्द से हुई हैंगुसुर ईरानी शब्द हैं|एच. डब्लू. बेली के अनुसार गुशुर’ शब्द का अर्थ ऊँचे परिवार में उत्पन्न व्यक्ति यानि कुलपुत्र हैं|  ‘गुशुर’ शब्द का आशय राजपरिवार अथवा राजसी परिवार के सदस्य से हैंबी. एन. मुख़र्जी के अनुसार कुषाण साम्राज्य के राजसी वर्ग के एक हिस्से को गुशुर’ कहते थेउनके अनुसार गुशुरसभवतः सेना के अधिकारि होते थेकुषाण सम्राट कुजुल कड़फिसिस के समकालीन उसके अधीन शासक सेनवर्मन का स्वात से एक अभिलेख प्राप्त हुआ हैंजिसमे गुशुरशब्द सेना के अधिकारीयों के लिया प्रयुक्त हुआ हैं|

सबसे पहले पी. सी. बागची  ने गुर्जरों की गुशुर’ उत्पात्ति के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था|प्रसिद्ध इतिहासकार आर. एस. शर्मा ने गुर्जरों की गुशुर’ उत्पात्ति मत का  समर्थन किया हैं|

उत्तरी अफगानिस्तान स्थित एक स्तूप से प्राप्त अभिलेख में विहार स्वामी की उपाधि के रूप मेंगुशुर का उल्लेख किया गया हैंजैसा कि ऊपर कहा जा चुका हैं कि कुषाण सम्राट कुजुल कड़फिसिस के अधीन शासक सेनवर्मन के स्वात अभिलेख में भी गुशुर शब्द प्रयुक्त हुआ हैं

पश्चिमिओत्तर पाकिस्तान के हजारा क्षेत्र स्थित अब्बोटाबाद से प्राप्त कुषाण कालीन अभिलेख में शाफर नामक व्यक्ति का उल्लेख हैंजोकि मक का पुत्र तथा गशूर नामक वर्ग का सदस्य हैं|इस अभिलेख के काल निश्चित नहीं किया जा सका हैं किन्तु इसकी भाषा और लिपि कुषाण काल की हैंअभिलेख में इसका काल अज्ञात संवत के पच्चीसवे वर्ष का हैं|  अफगानिस्तान स्थित रबाटक नामक स्थान से प्राप्त  कनिष्क के अभिलेख में भी शाफर नामक एक कुषाण अधिकारी के नाम का उल्लेख हैंअब्बोटाबाद अभिलेख का गशूर शाफ़र और कनिष्क के रबाटक अभिलेख में उल्लेखित शाफर एक ही व्यक्ति हो सकते हैंइस पहचान को स्थापित करने के लिए और अधिक शोध की आवश्कता हैं|

कुषाणों के साँची अभिलेख में भी गौशुर सिम्ह् बल नामक व्यक्ति का उल्लेख आया हैं|

अतः उपरोक्त साक्ष्यों से स्पष्ट हैं कि कुषाणों के राजसी परिवार के सदस्योंसामंतो एवं उच्च सैनिक अधिकारियो के वर्ग को गुशुर’ कहते थेजिसका गशूर’, ‘गौशुर’ के रूप में भी कुषाणों के अभिलेखों में उल्लेख हुआ हैंकुषाणों के राजसी परिवार के सदस्य और उच्च सैनिक अधिकारीगुशुर’ को उपाधि के तरह धारण करते थेवस्तुतः गुशुर’ एक कुषाणों का राजसी वर्ग जिसके सदस्य राजा और सैनिक अधिकारी बनते थे|

एफ. डब्ल्यू थोमस के अनुसार कुषाण वंश के संस्थापक कुजुल कड़फिसिस के नाम में कुजुल वास्तव में गुशुर’ हैंबी. एन. मुखर्जी ने इस बात का समर्थन किया हैं कि कुजुल को गुशुर’ पढ़ा जान चाहिएबी. एन. मुखर्जी ने इस तरफ ध्यान आकर्षित किया हैं कि कुषाणों की बाख्त्री भाषा में श/स को ज बोला लिखा जाता थाजैसे- कुषाण सम्राट वासुदेव को बाजोदेओ लिखा गया हैं|इसी प्रकार कनिष्क के रबाटक अभिलेख में साकेत को जागेदो लिखा गया हैंअतः कुषाणों की अपनी बाख्त्री भाषा में गुशुर’ को गुजुर’ बोला जाता था तथा कुषाण वंश का संस्थापक कड़फिसिस I ‘गुजुर’ उपाधि धारण करता था| ‘गुजुर’ को ही पश्चिमिओत्तर भारतीय लिपि में कुजुल लिखा गया हैंक्योकि पश्चिमिओत्तर की भारतीय लिपि में ईरानी शब्दों के लिखते समय ग को क तथा र को ल कहा जाता थाअतः कुषाण सम्राट खुद को अपनी बाख्त्री में भाषागुजुर’ कहते थेइस बात से बढ़कर गुर्जरो की कुषाण उत्पत्ति का क्या प्रमाण हो सकता हैं कि बाख्त्री के मूल क्षेत्र उत्तरी अफगानिस्तान (बैक्ट्रिया) में गुर्जर आज भी अपने को गुजुर’ कहते हैं|  ‘गुशुर’ के उपरोक्त वर्णित एक अन्य रूप गोशुर को बाख्त्री में गोजुर’ बोला जाता थाकश्मीर में गुर्जर खुद को गोजर अथवा गुज्जर कहते हैं तथा उनकी भाषा भी गोजरी कहलाती हैं|

यह शीशे की तरह साफ़ हैं कि गुर्जर शब्द की उत्पत्ति ईरानी शब्द गुशुर’ से हुई हैंजिसका अर्थ हैं राजपरिवार अथवा राजसी परिवार का सदस्यजब कुषाण उत्तरी अफगानिस्तान (बैक्ट्रिया) में बसे और उन्होंने गुशुर’ उपाधि को वहाँ की बाख्त्री भाषा में गुजुर’ के रूप में अपनायाजैसा उनके वंशज आज भी वहाँ अपने को कहते हैंपंजाब में बसने परवहाँ की भाषा के प्रभाव में गुजुर से गुज्जर कहलाये तथा गंगा-जमना के इलाके में गूजरप्राचीन जैन प्राकृत साहित्य में गुज्जर तथा गूज्जर शब्द का प्रयोग हुआ हैंउसी काल में संस्कृत भाषा में गुर्ज्जर तथा गूर्ज्जर शब्द का प्रयोग हुआ हैंसातवी शताब्द्दी में भडोच के ताम्रपत्रों में दद्दा को गूर्ज्जर वंश का राजा लिखा हैं|कालांतर में गुर्ज्जर से परिष्कृत होकर गुर्जर शब्द बना|

उपरोक्त वर्णन से गुर्जरों के कुषाण उत्पत्ति स्वतः प्रमाणित हैं|

IV
गुर्जर देश की राजधानी भीनमाल और सम्राट कनिष्क का ऐतिहासिक जुड़ाव

गुर्जरों का इतिहास आरम्भ से ही कुषाणों से जुडा रहा हैंइतिहासकारों के अनुसार गुर्जरों का शरुआती इतिहास सातवी शताब्दी से राजस्थान के मारवाड और आबू पर्वत क्षेत्र से मिलता हैं जोकि गुर्जरों के राजनैतिक वर्चस्व कारण गुर्जर देश’ कहलाता था| ‘गुर्जर देश’ की राजधानी भीनमाल थीइतिहासकार ए. एम. टी. जैक्सन ने बॉम्बे गजेटियर’ में भीनमाल का इतिहास विस्तार से लिखा हैंजिसमे उन्होंने भीनमाल में प्रचलित ऐसी अनेक लोक परम्पराओ और मिथको का वर्णन किया है जिनसे गुर्जरों की राजधानी भीनमाल को आबाद करने मेंकुषाण सम्राट कनिष्क की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका का पता चलता हैंऐसे ही एक मिथक के अनुसार भीनमाल  में सूर्य देवता के प्रसिद्ध जगस्वामी मन्दिर का निर्माण काश्मीर के राजा कनक (सम्राट कनिष्क) ने कराया था। भीनमाल में प्रचलित मौखिक परम्परा के अनुसार कनिष्क ने वहाँ करडा’ नामक झील का निर्माण भी कराया था। भीनमाल से सात कोस पूर्व में कनकावती नामक नगर बसाने का श्रेय भी कनिष्क को दिया जाता है। ऐसी मान्यता हैं कि भीनमाल के  देवड़ा गोत्र के लोगश्रीमाली ब्राहमण तथा भीनमाल से जाकर गुजरात में बसेओसवाल बनिए राजा कनक (सम्राट कनिष्क) के साथ ही काश्मीर से भीनमाल आए थे। ए. एम. टी. जैक्सन श्रीमाली ब्राह्मण और ओसवाल बनियों की उत्पत्ति गुर्जरों से मानते हैं|

राजस्थान में गुर्जर लौर’ और खारी’ नामक दो अंतर्विवाही समूहों में विभाजित हैंकेम्पबेल के अनुसार मारवाड के लौर गुर्जरों में मान्यता हैं कि वो राजा कनक (कनिष्क कुषाण) के साथ लोह्कोट से आये थे तथा लोह्कोट से आने के कारण लौर कहलायेलौर गुर्जरों की यह मान्यता स्पष्ट रूप से गुर्जरों की कुषाण उत्पत्ति का प्रमाण हैं|

अतः यह स्पष्ट हैं कि गुर्जरगुर्जर मूल के श्रीमाली ब्राह्मण तथा ओसवाल बनिए सभी कनिष्क कुषाण के साथ गुर्जर देश की राजधानी भीनमाल में आबाद हुएआरभिक काल से गुर्जरों का कुषाण सम्राट कनिष्क के साथ यह ऐतिहासिक जुडाव इस बात को प्रमाणित करते हैं कि गुर्जर मूलतः कुषाण हैंभीनमाल के गुर्जरों के उत्कर्ष काल में कुषाण परिसंघ की सभी खाप और कबीले गुर्जर के नाम से पहचाने जाते थे|

V
खाप अध्ययन (Clan Study)
गुर्जरों का खाप अध्ययन (Clan Study) भी इनकी कुषाण उत्पत्ति की तरफ इशारा कर रहा हैं|एच. ए. रोज के अनुसार पंजाब के गुर्जरों में मान्यता हैं कि गुर्जरों के ढाई घर असली हैं - गोर्सी,कसाना और आधा बरगटदिल्ली क्षेत्र में चेचीनेकाडी, गोर्सी और कसाना असली घर खाप माने जाते हैंकरनाल क्षेत्र में गुर्जरों के गोर्सी,  चेची और कसाना असली घर माने जाते हैंपंजाब के गुजरात जिले में चेची खटाना मूल के माने जाते हैंएच. ए. रोज कहते हैं कि उपरोक्त विवरण के आधार पर कसानाखटाना और गोरसी गुर्जरों के असली और मूल खाप मानी जा सकती हैंकुल मिला कर चेची, कसाना, खटाना, गोर्सी, बरगट और नेकाड़ी आदि 6 खापो की गुर्जरों के असली घर या गोत्रो की मान्यता रही हैं|

कनिंघम आदि इतिहासकारों के अनुसार गुर्जरों का पूर्वज कुषाण और उनके भाई-बंद काबिले का परिसंघ हैं और भारत में उनका आगमन अफगानिस्तान स्थित हिन्दू- कुश पर्वत की तरफ से हुआ हैं जहाँ से ये उत्तर भारत्त में फैले गए| इस अवधारणा के अनुसार गुर्जरों का शुद्धतम या मूल स्वरुप आज भी अफगानिस्तान में होना चाहिए| अफगानिस्तान में गुर्जरों के 6 गोत्र ही मुख्य से पाए जाते हैं – चेची, कसाना, खटाना, बरगट, गोर्सी और नेकाड़ी | इन्ही गोत्रो की चर्चा बार-बार गुर्जरों के पूर्वज अपने असली घरो यानि गोत्रो के रूप में करते रहे हैं| वहां ये आज भी गुजुर (गुशुर) कहलाते हैं| गुशुर कुषाण साम्राज्य के राजसी वर्ग को कहा जाता था| गुशुर शब्द से ही गुर्जर शब्द की उत्पत्ति हुई हैं| अतः प्रजातीय नाम एवं लक्षणों की दृष्टी से, अफगानिस्तान में गुर्जर आज भी अपने शुद्धतम मूल स्वरुप में हैं

यूची-कुषाण का आरभिक इतिहास मध्य एशिया से जुड़ा रहा हैंवहाँ यह परम्परा थी कि विजेता खाप और कबीले अपने जैसी भाई-बंद खापो को अपने साथ जोड़ कर अपनी सख्या बल का विस्तार कर शक्तिशाली  हो जाते थेअतः भारत में भी यूची-कुषाणों ने ऐसा किया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं|

गुर्जरों के असली घर कही जाने वाली खापो की कुषाण उत्पत्ति पर अलग से चर्चा की आवशकता हैं|
           
चेची: प्राचीन चीनी इतिहासकारों के अनुसार बैक्ट्रिया आगमन से पहले कुषाण परिसंघ की भाई-बंद खापे  और कबीले यूची कहलाते थे| वास्तव में यूची भी भाई-बंद खापो और कबीलों का परिसंघ था, जोकि अपनी शासक परिवार अथवा खाप के नाम पर यूची कहलाता था| बैक्ट्रिया में शासक परिवार या खाप कुषाण हो जाने पर यूची परिसंघ कुषाण कहलाने लगा| चेची और यूची में स्वर (Phonetic) की समानता हैंयह सम्भव हैं कि यूची चेची शब्द का चीनी रूपांतरण हो|अथवा यह भी हो सकता हैं कि चेची यूची का भारतीय रूपांतरण होहालाकि चेची की यूची के रूप में पहचान के लिए अभी और अधिक शोध की आवशकता हैं|  हम देख चुके हैं कि चेची की गणना गुर्जरों के असली घर अथवा खाप के रूप में होती हैं|  चेची गोत्र संख्या बल और क्षेत्र विस्तार की दृष्टी से गुर्जरों का प्रमुख गोत्र है जोकि  हिंदू कुश की पहाडियों से से लेकर दक्षिण भारत तक पाया जाता हैंअधिकांश स्थानों पर इनकी आबादी कसानो के साथ-साथ पाई जाती हैं|

गोर्सी: एलेग्जेंडर कनिंघम के अनुसार कुषाणों के सिक्को पर कुषाण को कोर्स अथवा गोर्स भी पढ़ा जा सकता हैं| उनका कहना हैं गोर्स से ही गोर्सी बना हैं| गोर्सी गोत्र भी अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत में मिलता हैं|

खटाना: संख्या और क्षेत्र विस्तार की दृष्टी से खटाना गुर्जरों का एक राजसी गोत्र हैं| अफगानिस्तान में यह एक प्रमुख गुर्जर गोत्र हैं| पाकिस्तान स्थित झेलम गुजरात में खाटाना सामाजिक और और आर्थिक बहुत ही मज़बूत हैं| पाकिस्तान के गुर्जरों में यह परंपरा हैं कि हिन्द शाही वंश के राजा जयपाल और आनंदपाल खटाना थे| आज़ादी के समय भारत में झाँसी स्थित समथर राज्य के राजा खटाना गुर्जर थे, ये परिवार भी अपना सम्बंध पंजाब के शाही वंश के जयपाल एवं आनंदपाल से मानते हैं और अपना आदि पूर्वज कैद राय को मानते हैं| राजस्थान में पंजाब से आये खटाना को एक वर्ग को तुर्किया भी बोलते हैं| पाकिस्तान में हज़ारा रियासत भी खटाना गोत्र की थी|

खटाना गुर्जर संभवतः मूल रूप से चीन के तारिम घाटी स्थित खोटान के मूल निवासी हैं| खोटान का कुषाणों के इतिहास से गहरा सम्बन्ध हैं| यूची-कुषाण मूल रूप से चीन स्थित तारिम घाटी के निवासी थे| खोटान भी तारिम घाटी में ही स्थित हैं| हिंग-नु कबीले से पराजित होने के कारण यूची-कुषाणों को तारिम घाटी क्षेत्र छोड़ना पड़ा| किन्तु कुशाण सम्राट कनिष्क महान ने चीन को पराजित कर तारिम घाटी के खोटान, कशगर और यारकंद क्षेत्र को दोबारा जीत लिया था| यहाँ भारी मात्रा में कुषाणों के सिक्के प्राप्त हुए हैं| कनिष्क के सहयोगी खोटान नरेश विजय सिंह को तिब्बती ग्रन्थ में खोटाना राय लिखा गया हैं|

सभवतः खटाना गोत्र का सम्बन्ध किदार कुषाणों से हैं| समथर रियासत के खटाना राजा अपना आदि पूर्वज पंजाब के राजा कैदराय को मानते हैं| कैदराय संभवतः किदार तथा राय शब्द से बना हैं| किदार कुषाणों का पहला राजा भी किदार था|

यह शोध का विषय हैं की किदार कुषाणों के पहले शासक किदार का कोई सम्बन्ध खोटान या खोटाना राय विजय सिंह था या नहीं?

नेकाड़ी: राजस्थान के गुर्जरों में नेकाड़ी धार्मिक दृष्टी से पवित्रतम गोत्र माना जाता हैं| अफगानिस्तान और भारत में नेकाड़ी गोत्र पाया जाता हैं| राजस्थान के गुर्जरों में इसे विशेष आदर की दृष्टी से देखा जाता हैं| नेकाड़ी मूलतः चेची माने जाते हैं|

बरगट: बरगट गोत्र अफगानिस्तान और भारत के राजस्थान इलाके में पाया जाता हैं|

कसाना: अलेक्जेंडर कनिंघम ने आर्केलोजिकल सर्वे रिपोर्टखंड IV, 1864 में कुषाणों की पहचान आधुनिक गुर्जरों से की हैअपनी इस धारणा के पक्ष में कहते हैं कि आधुनिक गुर्जरों का कसाना गोत्र कुषाणों का प्रतिनिधि हैंअलेक्जेंडर कनिंघम बात का महत्व इस बात से और बढ़ जाता है कि गुर्जरों का कसाना गोत्र क्षेत्र विस्तार एवं संख्याबल की दृष्टि से सबसे बड़ा है। कसाना गौत्र अफगानिस्तान से महाराष्ट्र तक फैला हुआ है| कसानो के सम्बंध में पूर्व में ही काफी कहा चुका हैं|

कल्शान गुर्जरों की कल्शान खाप के 84 गाँव गंगा जमुना के ऊपरी दोआब में हैं| कल्शान शब्द की कुशान के साथ स्वर की समानता हैं| कल्शान की कुषाणों की बैक्टरिया स्थित राजधानी खल्चयान से भी स्वर की समानता हैं| सभवतः कल्शान खाप का समबंध कुषाण परिसंघ से हैं|

देवड़ा/दीवड़ा: गुर्जरों की इस खाप के गाँव गंगा जमुना के ऊपरी दोआब के मुज़फ्फरनगर क्षेत्र में हैं| कैम्पबेल ने भीनमाल नामक अपने लेख में देवड़ा को कुषाण सम्राट कनिष्क की देवपुत्र उपाधि से जोड़ा हैं|

दीपे/दापा: गुर्जरों की इस खाप की आबादी कल्शान और देवड़ा खाप के साथ ही मिलती हैं तथा तीनो खाप अपने को एक ही मानती हैं| शादी-ब्याह में खाप के बाहर करने के नियम का पालन करते वक्त तीनो आपस में विवाह भी नहीं करते हैं और आपस में भाई माने जाते हैं| संभवतः अन्य दोनों की तरह इनका सम्बन्ध भी कुषाण परिसंघ से हैं|

कपासिया: गुर्जरों की कपासिया खाप का निकास कुषाणों की राजधानी कपिशा (बेग्राम) से प्रतीत होता हैं| कपसिया खाप के, गंगा जमुना के ऊपरी दोआब स्थित बुलंदशहर क्षेत्र में १२ गाँव हैं|

बैंसला: गुर्जरों की बैंसला खाप का नाम संभवतः कुषाण सम्राट की उपाधि से आया हैं| कुषाण सम्राट कुजुल कडफिस ने ‘बैंसिलिओ’ उपाधि धारण की थी| कनिष्क ने यूनानी उपाधि ‘बैसिलिअस बैंसिलोंन’ (Basilius Basileon) धारण की थी, जिसका अर्थ हैं राजाओ का राजा (King of King)| जैसा की सर्व विदित हैं की कुषाणों पर उनके बैक्ट्रिया प्रवास के समय यूनानी भाषा और संसकृति का अत्याधिक प्रभाव पड़ा | अतः बैंसला यूनानी मूल का शब्द हैं जिसका अर्थ हैं राजा| सम्भव हैं बैसला खाप का सम्बन्ध भी कुषाणों के राजसी वर्ग से रहा हैं| इस खाप के दिल्ली के समीप लोनी क्षेत्र १२ गाँव तथा पलवल क्षेत्र में २४ गाँव हैं|

मुंडन: गुर्जरों के मुंडन गोत्र का सम्बन्ध संभवतः कुषाण सम्राटो को उपाधि मुरुंड (lMurunda) से हैं जिसका अर्थ हैं – स्वामी| गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त के इलाहबाद अभिलेख में भी पश्चिमिओत्तर भारत में देवपुत्र शाह्नुशाही शक मुरुंड शासको का ज़िक्र हैं| प्राचीन काल में बिहार में भी मुरुंड वंश के शासन का पता चलता हैं| वर्तमान में गंगा जमुना का ऊपरी दोआब में मुंडन गुर्जर पाए जाते हैं| मंडार, मौडेल और मोतला खाप का सम्बंध मुंडन खाप से हैं|

मीलू: कुषाणों की एक उपाधि मेलूं (Melun) भी थी|गुर्जरों के मीलू गोत्र का सम्बन्ध कुषाण सम्राट की उपाधि मेलूं से प्रतीत होता हैं| यह गोत्र प्रमुख रूप से पंजाब में पाया जाता हैं|


दोराता: गुर्जरों की दोरता खाप का सम्बंध कुषाण सम्राट कनिष्क की दोमराता (Domrata- Law of the living word) उपाधि से प्रतीत होता हों| वर्तमान में खाप राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पायी जाती हैं|

चांदना: चांदना कनिष्क की महत्वपूर्ण उपाधि थी वर्तमान में गुर्जरों में चांदना गोत्र राजस्थान में पाया जाता हैं|

गुर्जरों के असली घर माने जाने वाले कसाना और खटाना का उच्चारण का अंत ना से होता हैं तथा एक-आध अपवाद को छोड़कर ये गोत्र अन्य जातियों में भी नहीं पाए जाते हैं| स्थान भेद के कारण अनेक बार ना को णा भी उच्चारित किया जाता हैं, यानि कसाना को कसाणा और खटाना को खटाणा|  इसी प्रकार के उच्चारण वाले गुर्जरों के अनेक गोत्र हैंजैसे- अधानाभडाना,हरषानासिरान्धनाकरहानारजाना, फागना, महाना, अमाना, करहाना, अहमानाचपराना/चापरानारियानाअवानाचांदना आदि|  संख्या बल की दृष्टी से ये गुर्जरों के बड़े गोत्र हैं| सभवतः इन सभी खापो का सम्बन्ध कुषाण परिसंघ से रहा हैं| | स्वयं कनिष्क की एक महतवपूर्ण उपाधि चांदना थी| कुषाण कालीन अबोटाबाद अभिलेख में गशुराना उपाधि का प्रयोग हुआ हैं| स्पष्ट हैं कि गशुराना शब्द यहाँ गशुर और राना शब्द से मिलकर बना हैं| संभवतः राना अथवा राणा उपाधि के प्रयोग का यह प्रथम उल्लेख हैं| अतः संभव हैं कि गुर्जरों के ना अथवा णा से अंत होने वाले गोत्र नामो में राना/राणा शब्द समाविष्ट हैं| चपराना गोत्र में तो राना पूरी तरह स्पष्ट हैं| मेरठ क्षेत्र में करहाना और कुछ चपराना गुर्जर गोत्र नाम केवल राणा लिखते हैं| कुषाण कालीन अबोटाबाद अभिलेख में यदि शाफर के लिए गशुराना उपाधि का प्रयोग हुआ हैं तो दसवी शताब्दी के  खजराहो अभिलेख में कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार शासक के लिए गुर्जराणाउपाधि का प्रयोग किया गया हैं| अतः कुषाणों के गुशुर/गशुर/गौशुर वर्ग से गुर्जर उत्पत्ति हुई है|
सन्दर्भ:

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3. ए. कनिंघम आरकेलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, 1864
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8. जे.एम. कैम्पबैलदी गूजर (लेख)बोम्बे गजेटियर खण्ड IX भाग 2, बोम्बे, 1899
9.के. सी. ओझाओझा निबंध संग्रहभाग-1 उदयपुर, 1954
10.बी. एन. पुरी. हिस्ट्री ऑफ गुर्जर-प्रतिहारनई दिल्ली, 1986
11. डी. आर. भण्डारकरगुर्जर (लेख)जे.बी.बी.आर.एस. खंड 21, 1903
12 परमेश्वरी लाल गुप्तकोइन्स. नई दिल्ली, 1969
13. आर. सी मजुमदारप्राचीन भारत
14. रमाशंकर त्रिपाठीहिस्ट्री ऑफ ऐन्शीएन्ट इंडियादिल्ली, 1987
15. राम शरण शर्माइंडियन फ्यूडलिज्मदिल्ली, 1980
16. बी. एन. मुखर्जीदी कुषाण लीनऐजकलकत्ता, 1967,
17. बी. एन. मुखर्जीकुषाण स्टडीज: न्यू पर्सपैक्टिव,कलकत्ता, 2004,
18. हाजिमे नकमुरादी वे ऑफ थिंकिंग ऑफ इस्टर्न पीपल्स: इंडिया-चाइना-तिब्बत जापान
19. स्टडीज़ इन इंडो-एशियन कल्चरखंड 1, इंटरनेशनल एकेडमी ऑफ इंडियन कल्चर, 1972,
20. एच. ए. रोजए गिलोसरी ऑफ ट्राइब एंड कास्ट ऑफ पंजाब एंड नोर्थ-वेस्टर्न प्रोविंसेज
21. जी. ए. ग्रीयरसनलिंगविस्टिक सर्वे ऑफ इंडियाखंड IX  भाग IV, कलकत्ता, 1916
22. के. एम. मुंशीदी ग्लोरी देट वाज़ गुर्जर देशबोम्बे, 1954 

                                                                                                  ( Dr Sushil Bhati )

gurjar empire of bharoch

भडोच का गुर्जर राज्य

डा. सुशील भाटी

(Key words - Bhroach, Gurjara, Bhinmal, Maitrak, Vallabhi, Chapa, Chalukya)

आधुनिक गुजरात राज्य का नाम गुर्जर जाति के नाम पर पड़ा हैं| गुजरात शब्द की उत्पत्ति गुर्जरात्रा शब्द से हुई हैं जिसका अर्थ हैं- वह (भूमि) जोकि गुर्जरों के नियंत्रण में हैं| गुजरात से पहले यह क्षेत्र लाट, सौराष्ट्र और काठियावाड के नाम से जाना जाता था|

सबसे पहले गुर्जर जाति ने छठी शताब्दी के अंत में आधुनिक गुजरात के दक्षिणी इलाके में एक राज्य की स्थापना की| हेन सांग (629-647 ई.) ने इस राज्य का नाम भडोच बताया हैं| भडोच के गुर्जरों के विषय में हमें दक्षिणी गुजरात से प्राप्त नौ तत्कालीन ताम्रपत्रों से चलता हैं| इन ताम्रपत्रो में उन्होंने खुद को गुर्जर नृपति वंश का होना बताया हैं| इस राज्य का केन्द्र नर्मदा और माही नदी के बीच स्थित आधुनिक भडोच जिला था, हालाकि अपने उत्कर्ष काल में यह राज्य उत्तर में खेडा जिले तक तथा दक्षिण में ताप्ती नदी तक फैला था| गौरी शंकर ओझा के अनुसार इस राज्य में भडोच जिला, सूरत जिले के ओरपाड चोरासी और बारदोली तालुक्के, आस-पास के बडोदा के इलाके, रेवा कांठा और सचीन के इलाके होने चाहिए| इस राज्य की राजधानी नंदीपुरी थी| भडोच की पूर्वी दरवाज़े के दो मील उत्तर में नंदिपुरी नामक किला हैं, जिसकी पहचान डा. बुहलर ने ताम्रपत्रो में अंकित नंदिपुरी के रूप में की हैं| कुछ इतिहासकार भडोच से 36 मील दूर, नर्मदा के काठे में स्थित, नाडोर को नंदिपुरी मानते हैं|

उस समय भारत के पश्चिमी तट पर भडोच सबसे प्रमुख बंदरगाह और व्यपारिक केन्द्र था| भडोच बंदरगाह से अरब और यूरोपीय राज्यों से व्यापार किया जाता था|
Map showing Bhroach 

भडोच के गुर्जरों का कालक्रम निम्नवत हैं
दद्दा I (580 ई.)
जयभट I (605 ई.)
दद्दा II  (633 ई.)
जयभट II (655 ई.)
दद्दा III (680 ई.)
जयभट III (706-734 ई.)

यह पता नहीं चल पाया हैं कि भडोच के गुर्जर किस गोत्र (क्लैन) के थे| संभवतः आरम्भ में वे भीनमाल के चप (चपराना) गुर्जर राजाओ के सामंत थे| यह भी सम्भव हैं कि वे भीनमाल के चप वंशीय गुर्जरों की शाखा हो| भीनमाल के गुर्जरों कि तरह भडोच के गुर्जर भी सूर्य के उपासक थे|

भारत में हूण साम्राज्य (490-542 ई.) के पतन के तुरंत बाद आधुनिक राजस्थान में एक गुर्जर राज्य के अस्तित्व में होने के प्रमाण मिलते हैं|, इस गुर्जर राज्य की राजधानी भीनमाल थी| तत्कालीन ग्रंथो में राजस्थान को उस समय गुर्जर देश कहा गया हैं| हेन सांग (629-647 ई.) ने भी अपने ग्रन्थ सी यू की में गुर्जर क्यू-ची-लो राज्य को पश्चिमी भारत का दूसरा सबसे बड़ा राज्य बताया हैं| प्राचीन भारत के प्रख्यात गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त की पुस्तक ब्रह्मस्फुत सिद्धांत के अनुसार 628 ई. में श्री चप (चपराना/चावडा) वंश का व्याघ्रमुख नामक राजा भीनमाल में शासन कर रहा था| गुर्जर देश से दक्षिण-पूर्व में भडोच की तरफ गुर्जरों के विस्तार का एक कारण सभवतः विदेशी व्यापार मार्ग पर कब्ज़ा करना था|

बाद में भडोच के गुर्जर संभवतः वल्लभी के मैत्रक वंश के आधीन हो गए| भगवान जी  लाल इंद्र आदि इतिहासकारों ने मैत्रक वंश को भी हूण-गुर्जर समूह का माना हैं| भगवान जी लाल इंद्रके अनुसार भीनमाल से गुर्जर मालवा होते हुए भडोच आये वह एक शाखा को छोड़ते हुए गुजरात पहुंचे ज़हाँ उन्होंने मैत्रक वंश के नेतृत्व में वल्लभी राज्य की स्थापना की| मैत्रक ईरानी मूल के शब्द मिह्र/मिहिर का भारतीय रूपांतरण हैं, जिसका अर्थ हैं  सूर्य| मिहिर शब्द का हूण-गुर्जर समूह के इतिहास से गहरा नाता हैं| हूण वराह और मिहिर के उपासक थे| मिहिर हूणों का दूसरा नाम भी हैं| मिहिर हूण और गुर्जरों की उपाधि भी हैं| हूण सम्राट गुल और गुर्जर सम्राटभोज दोनों की उपाधि मिहिर थी तथा वे मिहिर गुल और मिहिर भोज के रूप में जाने जाते हैं| मिहिर अजमेर के गुर्जरों की आज भी एक उपाधि हैं| इस बात के सशक्त प्रमाण हैं कि भडोच के गुर्जरों और वल्लभी के मैत्रको के अभिन्न सम्बन्ध थे | वल्लभी के मैत्रको ने भडोच के गुर्जरों और बेट-द्वारका, दीव, पाटन-सोमनाथ आदि के चावडो की सहयता से समुंदरी विदेशी व्यापार पर नियंत्रण स्थापित किया|

वल्लभी के मैत्रको के बाद भडोच के गुर्जर वातापी के चालुक्यो के भी सामंत रहे थे|

भडोच के गुर्जर वंश का सबसे प्रतापी राजा दद्दा II  था| उसके द्वारा जारी किये गए ताम्रपत्रो से पता चलता हैं कि वह सूर्य का उपासक था| उसके एक ताम्रपत्र से यह भी ज्ञात होता हैं कि उसने उत्तर भारत के स्वामी हर्षवर्धन (606-647 ई.) द्वारा पराजित वल्लभी के राजा की रक्षा की थी| वातापी के तत्कालीन चालुक्य शासक पुल्केशी II ने भी एहोल अभिलेख में हर्षवर्धन को नर्मदा के कछारो में पराजित करने का दावा किया हैं| वी. ए. स्मिथ ने वातापी के चालुक्यो को गुर्जर माना हैं| होर्नले ने इन्हें हूण मूल का गुर्जर बताया हैं| अतः ऐसा प्रतीत होता हैं कि हर्षवर्धन का युद्ध हूण-गुर्जर समूह के तीनो राजवंशो का एक परिसंघ से हुआ था, जिसमे आरम्भ में वल्लभी क्षेत्र में उसे सफलता मिली, किन्तु नर्मदा के तट पर लड़े गए युद्ध में वह दद्दा II एवं पुल्केशी II से पराजित हो गया|

दद्दा II  के बाद इस वंश के शासक ब्राह्मण संस्कृति के प्रभाव में आ गए| जिस कारण से अपनी कबीलाई पहचान गुर्जर के स्थान पर क्षत्रिय वर्ण की पहचान पर जोर देने लगे तथा सूर्य पूजा के स्थान पर अब उन्होंने शैव धर्म को अपना लिया| दद्दा III  इस परिवार का पहला शैव था| दद्दाIII ने मनु स्मृति का अध्ययन किया तथा अपने राज्य में वर्णाश्रम धर्म को कड़ाई से लागू किया| इस वंश के अंतिम शासक जय भट III  द्वारा ज़ारी किया गया एक ताम्रपत्र नवसारी से प्राप्त हुआ हैं, जिसके अनुसार उसने भारत प्रसिद्ध कर्ण को अपना आदि पूर्वज बताया हैं| संभवतः मूल रूप से सूर्य मिहिर के उपासक गुर्जर भारतीय समाज में अपना रुतबा बढ़ाने के लिए मिथकीय नायक सूर्य-पुत्र कर्ण से अपने को जोड़ने लगे|

734 ई के बाद हमे भडोच के गुर्जरों के विषय में कुछ पता नहीं चलता| इस वंश के शासन का अंत का कारण अरब आक्रमण या फिर दक्षिण में राष्ट्रकूटो का उदय हैं|

भडोच के गुर्जरों के शासन (580-734 ई.) के समय आधुनिक गुजरात की जनसँख्या में गुर्जर तत्व का समावेश से इंकार नहीं किया जा सकता| किन्तु अभी तक आधुनिक गुजरात के किसी भी हिस्से का नाम गुजरात नहीं पड़ा था|

सन्दर्भ

1. 
भगवत शरण उपाध्यायभारतीय संस्कृति के स्त्रोतनई दिल्ली, 1991, 
2. रेखा चतुर्वेदी भारत में सूर्य पूजा-सरयू पार के विशेष सन्दर्भ में (लेख) जनइतिहास शोध पत्रिकाखंड-मेरठ, 2006
3. ए. कनिंघम आरकेलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, 1864
4. के. सी.ओझादी हिस्ट्री आफ फारेन रूल इन ऐन्शिऐन्ट इण्डियाइलाहाबाद, 1968  
5. डी. आर. भण्डारकरफारेन एलीमेण्ट इन इण्डियन पापुलेशन (लेख)इण्डियन ऐन्टिक्वैरी खण्डX L 1911
6. ए. एम. टी. जैक्सनभिनमाल (लेख)बोम्बे गजेटियर खण्ड भाग 1, बोम्बे, 1896
7. विन्सेंट ए. स्मिथदी ऑक्सफोर्ड हिस्टरी ऑफ इंडियाचोथा संस्करणदिल्ली,
8. जे.एमकैम्पबैलदी गूजर (लेख)बोम्बे गजेटियर खण्ड IX भाग 2बोम्बे, 1899
9.के. सी. ओझा, ओझा निबंध संग्रह, भाग-1 उदयपुर, 1954
10.बी. एन. पुरी. हिस्ट्री ऑफ गुर्जर-प्रतिहार, नई दिल्ली, 1986
11. डी. आर. भण्डारकरगुर्जर (लेख)जे.बी.बी.आर.एस. खंड 21, 1903
12 परमेश्वरी लाल गुप्त, कोइन्स. नई दिल्ली, 1969
13. आर. सी मजुमदार, प्राचीन भारत
14. रमाशंकर त्रिपाठी, हिस्ट्री ऑफ ऐन्शीएन्ट  इंडिया, दिल्ली, 1987
                                          (Dr Sushil Bhati)

The tripartite struggle

From 750 to c. 1200

Northern India

The tripartite struggle

The 8th century was a time of struggle for control over the central Ganges valley—focusing on Kannauj—among the Gurjara-Pratihara, the Rashtrakuta, and the Pala dynasties. The Pratiharas rose to power in the Avanti-Jalaor region and used western India as a base. The Calukyas fell about 753 to one of their own feudatories, the Rashtrakutas under Dantidurga, who established a dynasty. The Rashtrakuta interest in Kannauj probably centred on the trade routes from the Ganges valley. This was the first occasion on which a power based in the Deccan made a serious bid for a pivotal position in northern India. From the east the Palas also participated in the competition. They are associated with Pundravardhana (near Bogra, Bangl.), and their first ruler, Gopala (reigned c. 750–770), included Vanga in his kingdom and gradually extended his control to the whole of Bengal.
Vatsaraja, a Pratihara ruler who came to the throne about 778, controlled eastern Rajasthan and Malava. His ambition to take Kannauj brought him into conflict with the Pala king, Dharmapala (reigned c. 770–810), who had by this time advanced up the Ganges valley. The Rashtrakuta king Dhruva (reigned c. 780–793) attacked each in turn and claimed to have defeated them. This initiated a lengthy tripartite struggle. Dharmapala soon retook Kannauj and put his nominee on the throne. The Rashtrakutas were preoccupied with problems in the south. Vatsaraja’s successor, Nagabhata II (reigned c. 793–833), reorganized Pratihara power, attacked Kannauj, and for a short while reversed the situation. However, soon afterward he was defeated by the Rashtrakuta king Govinda III (reigned 793–814), who in turn had to face a confederacy of southern powers that kept him involved in Deccan politics, leaving northern India to the Pratiharas and Palas. Bhoja I (reigned c. 836–885) revived the power of the Pratiharas by bringing Kalanjara, and possibly Kannauj as well, under Pratihara control. Bhoja’s plans to extend the kingdom, however, were thwarted by the Palas and the Rashtrakutas. More serious conflict with the latter ensued during the reign of Krishna II (reigned c. 878–914).
An Arab visitor to western India, the merchant Sulaymān, referred to the kingdom of Juzr (which is generally identified as Gurjara) and its strong and able ruler, who may have been Bhoja. Of the successors of Bhoja, the only one of significance was Mahipala (reigned c. 908–942), whose relationship with the earlier king remains controversial. Rajashekhara, a renowned poet at his court, implies that Mahipala restored the kingdom to its original power, but this may be an exaggeration. By the end of the 10th century the Pratihara feudatories—Cauhans (Cahamanas), Candellas (Chandelas), Guhilas, Kalacuris, Paramaras, and Caulukyas (also called Solankis)—were asserting their independence, although the last of the Pratiharas survived until 1027. Meanwhile Devapala (reigned c. 810–850) was reasserting Pala authority in the east and, he claimed, in the northern Deccan. At the end of the 9th century, however, the Pala kingdom declined, with feudatories in Kamarupa (modern Assam) and Utkala (Orissa) taking independent titles. Pala power revived during the reign of Mahipala (reigned c. 988–1038), although its stronghold now was Bihar rather than Bengal. Further attempts to recover the old Pala territories were made by Ramapala, but Pala power gradually declined. There was a brief revival of power in Bengal under the Sena dynasty (c. 1070–1289).
In the Rashtrakuta kingdom, Amoghavarsa (reigned c. 814–878) faced a revolt of officers and feudatories but managed to survive and reassert Rashtrakuta power despite intermittent rebellions. Campaigns in the south against Vengi and the Gangas kept Amoghavarsa preoccupied and prevented him from participating in northern politics. The Rashtrakuta capital was moved to Manyakheta (Andhra Pradesh), doubtlessly to facilitate southern involvements, which clearly took on more-important dimensions at this time. Sporadic campaigns against the Pratiharas, the Eastern Calukyas, and the Colas, the new power of the south, continued (see below The Colas). Indra III (reigned 914–927) captured Kannauj, but, with mounting political pressures from the south, his control over the north was inevitably short-lived. The reign of Krishna III (reigned c. 939–968) saw a successful campaign against the Colas, a matrimonial alliance with the Gangas, and the subjugation of Vengi. Rashtrakuta power declined suddenly, however, after the reign of Indra, and this was fully exploited by the feudatory Taila.
Taila II (reigned 973–997), who traced his ancestry to the earlier Calukyas of Vatapi, ruled a small part of Bijapur. Upon the weakening of Rashtrakuta power, he defeated the king, declared his independence, and founded what has come to be called the Later Calukya dynasty. The kingdom included much of Karnataka, Konkan, and the territory as far north as the Godavari River. By the end of the 10th century, the Later Calukyas clashed with the ambitious Colas. The Calukyas’ capital was subsequently moved north to Kalyani (near Bidar, in Karnataka). Campaigns against the Colas took a more serious turn during the reign of Someshvara I (reigned 1043–68), with alternating defeat and victory. The Later Calukyas, however, by and large retained control over the western Deccan despite the hostility of the Colas and of their own feudatories. In the middle of the 12th century, however, a feudatory, Bijjala (reigned 1156–67) of the Kalacuri dynasty, usurped the throne at Kalyani. The last of the Calukya rulers, Someshvara IV (reigned 1181–c. 1189), regained the throne for a short period, after which he was overthrown by a feudatory of the Yadava dynasty.
On the periphery of the large kingdoms were the smaller states such as Nepal, Kamarupa, Kashmir, and Utkala (Orissa) and lesser dynasties such as the Shilaharas in Maharashtra. Nepal had freed itself from Tibetan suzerainty in the 8th century but remained a major trade route to Tibet. Kamarupa, with its capital at Pragjyotisapura (near present-day Gawahati), was one of the centres of the Tantric cult. In 1253 a major part of Kamarupa was conquered by the Ahom, a Shan people. Politics in Kashmir were dominated by turbulent feudatories seeking power. By the 11th century Kashmir was torn between rival court factions, and the oppression by Harsha accentuated the suffering of the people. Smaller states along the Himalayan foothills managed to survive without becoming too embroiled in the politics of the plains.

गुर्जर प्रतिहार

  नीलकुण्ड, राधनपुर, देवली तथा करडाह शिलालेख में प्रतिहारों को गुर्जर कहा गया है । राजौरगढ शिलालेख" में वर्णित "गुर्जारा प्रतिहार...