Friday 31 March 2017

सीकरी खुर्द

सीकरी खुर्द गुर्जर बहुल गाँव है जो मोदीनगर से पूर्व दिशा में 1 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है। यहाँ के ग्रामीणों ने क्रांतिकारी सैनिकों की सहायता की तथा क्रांतिकारी गतिविधियों में महत्वपूर्ण भाग लिया था।
यहाँ देवी का एक प्राचीन एवं ऐतिहासिक मन्दिर है। ग्रामीणों में मान्यता है कि यहाँ जो भी माँगा जाता है, वह पूरा हो जाता है। नवरात्रों में यहाँ विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। श्रद्धालुओं की मान्यता है कि करीब 300 वर्ष पूर्व जालिमगिरि नाम के भक्त को देवी ने साक्षात् दर्शन दिये और यहाँ मन्दिर बनाने के लिए कहा था। इनके वंशज तब से यहाँ पूजा अर्चना करते आ रहे हैं।
मन्दिर परिसर में वट का वृक्ष है। किंवदन्ती है कि इस वृक्ष पर 1857 में प्रतिक्रांति के समय लगभग 100 क्रांतिकारियों को फाँसी दी गयी थी। मन्दिर में आने वाले श्रद्धालु इस वृक्ष के समक्ष नतमस्तक होकर शहीदों को श्रद्धाजंलि अर्पित करते हैं।
मेरठ के विप्लव की सूचना पाकर यहाँ के ग्रामीणों ने सरकार को मालगुजारी देनी बन्द कर दी। सीकरी के निकट बेगमाबाद कस्बा है। किंवदन्ती है कि क्रांति के समय सीकरी के ग्रामीणों के विरूद्ध यहाँ के जाटों ने ब्रितानियों के लिए मुखबरी की। परिणामतः सीकरी के गुर्जरों ने 8 जुलाई, 1857 को बेगमाबाद के अनेक ब्रिटिश समर्थकों की हत्या कर दी और लुटमार करके कस्बे में आग लगा दी। जब उस घटना की खबर मेरठ पहुँची तो क्रांतिकारियों के दमन के लिए ड़नलप के नेतृत्व में खाकी रिसाला सीकरी पहुँचा और उसने गाँव को चारों ओर से घेर लिया। 30 से अधिक व्यक्तियों को गाँव के बाहर ही मार दिया गया। किंवदन्ती है कि लगभग 130 व्यक्ति देवी के प्राचीन मन्दिर के भौरे (तहखाना) में छिप गये थे इनका पता लगने पर खाकी रिसाले ने इन्हे घेर लिया और भौरे से बाहर निकाला। इनमें से अधिकांश को फाँसी दे दी गयी और 30 लोगों को गोली मार दी गयी। इसके बाद गाँव में आग लगा दी गयी।
इस घटना के सम्बन्ध में एक किवंदन्ती भी चली आ रही है कि 1857 के समय सीकरी, लालकुर्ती मेरठ बूचड़ वालों की जमींदारी में आता था। उस समय सीकरी के मुकद्दम सिब्बा थे, जो गाँव से भू-राजस्व एकत्र कर मेरठ पहुंचाया करते थे। 1857 में यहाँ के ग्रामीणों ने जमींदार लालकुर्ती मेरठ को लगान देने से इन्कार कर दिया और क्रांतिकारियों की सहायता करने लगे।
भू-राजस्व भेजने के लिए जमींदार ने सीकरी खबर भेजी लेकिन मुकद्दम सिब्बा व अन्य ग्रामीणों ने कोई जवाब नहीं दिया। परिणामस्वरूप जमींदार लालकुर्ती ने स्वयं जाकर ग्रामीणों से बातचीत करनी चाही। उन्होंने अपने आदमी को भेजकर मुकद्दम सिब्बा के पास खबर भेजी कि वह उनसे मिलने आ रहे है। वह आदमी यह समाचार लेकर सीकरी पहुँचा और मुकद्दम सिब्बा को जमींदार के आने का समाचार सुनाया।
यह सुनकर सिब्बा ने उनसे कहा कि 'उस ब्रितानियों के पिट्ठु साले सूअर से कह देना कि वह यहाँ न आये।' यह सुनकर वह व्यक्ति वापिस मेरठ चला आया तथा उसने जमींदार से सच्चाई बताई कि मुकद्दम सिब्बा और ग्रामीण लगान देने में आनाकानी कर रहे हैं। तत्कालीन अशान्त वातावरण को देखते हुए जमींदार ने अपने क्रोध पर काबू रखा तथा दूसरे दिन सीकरी पहुँच गए। सीकरी पहुँचने के पश्चात् जमींदार ने सिब्बा को अपनी तरफ मिलाना चाहा। उन्होने उसे ब्रितानियों के पक्ष में करने के लिए और क्रांतिकारियों का साथ न देने के लिए कहा। परन्तु सिब्बा नहीं माने। तब उन्होने उसे लालच देते हुए कहा कि-
'मुकद्दम जितने इलाके की ओर तुम उँगली उठाओंगे मैं वो तुम्हें दे दूँगा तथा जो जमींन तुम्हारे पास है उसका लगान भी माफ कर दिया जायेगा।'
लेकिन सिब्बा ने जमींदार की बात नहीं मानी। अन्त में क्रोधिक होकर जमींदार ने सिब्बा सहित गाँव के सभी ग्रामीणों को भूमि से बेदखल कर दिया। सिब्बा के पास उस समय 1400 बीघा भूमि थी, जिसमें 500 बीघा भूमि सीकरी में तथा बाकी 900 बीघा भूमि दूसरे स्थान पर थी।
अब सीकरी के गुर्जरों ने खुलेआम क्रांतिकारियों का साथ देना शुरू कर दिया। निकटवर्ती गाँव बेगमाबाद के ग्रामीण यहाँ की गुप्त सूचनायें ब्रिटिश अधिकारियों को दे रहे थे। इसलिए सीकरी के गुर्जरों ने बेगमाबाद पर आक्रमण कर दिया। जब इसकी सूचना मेरठ पहुँची तो ब्रितानियों ने खाकी रिसाला बेगमाबाद की रक्षार्थ भेजा। उसने सीकरी को चारों ओर से घेर लिया।
जब खाकी रिसाले की आने की सूचना ग्रामीणों को मिली तो अधिकांश ग्रामीण गाँव में ऐतिहासिक मन्दिर के भौरे (तहखाने) में छिप गये तथा कुछ ग्रामीण वृक्षों पर चढ़ कर उनकी पत्तियों में छिप गये। खाकी रिसाल ने सीकरी पहुँचने के पश्चात् नरसंहार शुरू कर दिया और वृक्षों पर छिपे अनेक ग्रामीणों को गोली मार दी परन्तु भौंरे में छिपे व्यक्तियों की जानकारी खाकी रिसाले को नहीं मिल सकी। जब खाकी रिसाला सीकरी से वापिस जाने वाला ही था, तभी गाँव का एक व्यक्ति, जो ब्राह्मण था, खाकी रिसाले के पास आया। इसके पुत्र पेड़ों पर छिपे थे और सभी गोली का निशाना बन चुके थे। उसने खाकी रिसाले को रोककर कहा कि- 'मेरे वंश का निष्ठ हो गया और गाँव का कान तत्त भी नहीं हुआ।' अर्थात् मेरा सम्पूर्ण परिवार मारा जा चुका है तथा गाँव के व्यक्ति सुरक्षित है।
उस ब्राह्मण ने ही खाकमी रिसाले को ग्रामीणों के भौरे में छिपे होने की सूचना दी, तब सूचना पाकर रिसाले ने भौरे को घेर लिया और उसमें छिपे ग्रामीणों पर हमला बोल दिया। ग्रामीणों ने भी सामना किया। इस संघर्ष में अनेक क्रांतिकारी ग्रामीण मारे गये। भौरे में बचने वाले ग्रामीणों की संख्या लगभग 19 रही। इन हीजिवत बचने वाले 19 व्यक्तियों में मुकद्दम सिब्बा भी थे। जब सिब्बा के जीवित होने की सूचना ब्रितानियों को मिली तो उन्होंने पकड़ने की सोची। लेकिन वे कामयाब न हो सके। सिब्बा ने अन्य ग्रामीणों के कहने पर अपना नाम बदलकर हीरा रख लिया और सभी ग्रामीण उसे 'हीरा' कहकर पुकारने लगे। मुकद्दम सिब्बा उर्फ हीरा के वंशज आज भी गाँव में रह रहे हैं।

1857 की क्रांति में मुगल सम्राट को आर्थिक सहायता देने वाले धनाढ़यों में जहाँ डासना परगना क्षेत्र के चौधरी नैन सिंह एव लाला मटोल चन्द के नाम स्पष्ट हैं वहीं शोध अध्ययन से असौड़ा रियासत के चौधरी हरदयाल सिंह त्यागी द्वारा भारी मात्रा में सम्राट की आर्थिक सहायता करने का पता भी चला है। यद्यपि यह स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं किया जा सका है कि कितना-कितना धन इन धनाढ्यों ने सम्राट बहादुरशाह ज़फ़र को देश सेवा के लिए अर्पित किया था। कहते हैं कि मुग़ल बादशाह ने उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए चौधरी हरदयाल सिंह त्यागी को मौखिक रूप से राजा की उपाधि देकर सम्मानित किया था।
प्रतिक्रांति के दौरान चौधरी हरदयाल को ब्रितानियों ने हापुड़ में कैद कर लिया परन्तु ब्रितानियों को उनके बदले में अत्यधिक धन देकर उसी दिन छुड़ा लिया गया था और प्रतिक्रांति के दौरान उनके परिवार को किसी भयंकर समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। असौड़ा के चौधरी हरदयाल सिंह के परिवार के किसी भी सदस्य को न तो फाँसी दी गयी और न ही उन्हें ब्रितानियों ने कोई कड़ा दण्ड दिया। इसका कारण यह समझ में आता है कि चूँकि यह परिवार दिल्ली के शाही वंश के सैंकड़ों सालों से निकट से जुड़ा था और राजनैतिक रूप से अपेक्षाकृत अधिक जागरूक था। अतः दिल्ली के पतन और सम्राट बहादुरशाह की गिरफ्तारी से इस परिवार ने अपने ऊपर आने वाले विपत्ति के संकट को समय रहते समझ लिया होगा। यह इसलिए भी कहा जा सकता है कि खाकी रिसाले की भर्ती के समय तक चौधरी हरदयाल सिंह ब्रितानियों के प्रत्यक्ष विरोध की नीति से दूर रहे। इतना ही नहीं वरन् न तो उनके पुत्र चौधरी देवीसिंह को सम्राट द्वारा तथाकथित रूप से दी गई 'राजा' की उपाधि का कभी प्रयोग किया गया और न ही कभी इस तथाकथित उपाधि की जिक्र समसामयिक लेखों मे किया गया। साथ ही ब्रितानियों द्वारा सहायता माँगने पर चौधरी हरदयाल सिंह ने विल्सन की मदद भी की और रिसाले की भर्ती में उनकी सहायता पर ब्रितानियों ने उनका आभर भी माना। यही वह कारण श्रृंखला है जिसने असौड़ा के इस परिवार को प्रतिक्रांति के दौरान ब्रितानियों के दमनचक्र से बचाये रखा। परन्तु प्रतिक्रांति के दौरान असौड़ा गाँव में आग लगा दी गयी।

मेरठ में विप्लव के प्रस्फूटन की सूचना मिलते ही बड़ौत एवं उसके निकटवर्ती क्षेत्र के ग्रामीणों ने भी विदेशी शासन का विरोध करना शुरू कर दिया। इस क्षेत्र के साँवल उर्फ शाहमल ने 12 मई से 21 जुलाई, 1857 तक ब्रितानियों का कड़ा मुकाबला किया। शाहमल, बिजरौम गाँव के जाट परिवार से सम्बन्धित थे। उसने क्रांति से फैली अराजकता का लाभ उठाकर बड़ौत में 12 व 13 को अपने साथियों को लेकर बंजारे व्यापारियों के साथ लूटपाट की। इस लूटपाट में उसे काफी सम्पत्ति मिली। इसके बाद साँवल (शाहमल) ने बड़ौत तहसील और पुलिस चौकी पर हमला बोल दिया और वहाँ भी लूटपाट की।
कुछ समय पश्चात् उसने दिल्ली के क्रांतिकारियों को मदद देकर अपना प्रभाव बढ़ा लिया था। वह उन्हें खाने-पीने के सामान की आपूर्ति करता था। कहा जाता है कि दिल्ली में क्रांतिकारियों ने उसकी उपयोगिता और क्रांति के प्रति समर्पण भावना देखकर उसको सूबेदार बना दिया। साँवल (शाहमल) ने बिलोचपुरा गाँव के एक बलूची नवीबख्श के पुत्र अल्लादिया को अपना दूत नियुक्त करके दिल्ली भेजा ताकि ब्रितानियों के विरूद्ध लड़ने के लिए मदद व सैनिक मिल सकें। बागपत के थानेदार वजीर खाँ ने भी इसी उद्देश्य से सम्राट बहादूर शाह को अर्जी भेजी। बागपत के नूर खाँ के पुत्र मेहताब खाँ का भी दिल्ली के क्रांतिकारियों से सम्पर्क बना हुआ था। उसने दिल्ली के क्रांतिकारी नेताओं से साँवल का परिचय कराते हुए कहा कि वह उनके लिए बहुत सहायक हो सकता है। कालान्तर में ऐसा ही हुआ। साँवल ने न केवल ब्रितानियों के संचार साधनों को ठप्प कर दिया बल्कि इस क्षेत्र को दिल्ली के लिए आपूर्ति क्षेत्र में बदल दिया।
विप्लव कै दौरान साँवल, बड़ौत के समीपवर्ती इलाके में प्रसिद्ध हो गए और शाहमल के नाम से जाने जाने लगे थे।
हरचन्दपुर, ननवा काजिम, नानूहन, बिजरौल, जौहड़ी, बिजवाड़ा, पूठ, धनौरा, बढ़ेरा, पोइस, गुराना, नंगला, गुलाब बड़ौली, सन्तोखपुर, हिलवाड़ी, औसख, नादिर असलत और असलत खुर्मास आदि गाँवों के ग्रामीणों ने ब्रितानियों की विरूद्ध साँवल (शाहमल) की मददी की। बसोद गाँव में शाहमल ने दिल्ली के क्रांतिकारियों के लिए 8000 मन गेहूँ व दाल का भण्डार एकत्रित कर रखा था। शाहमल इस गाँव में ठहरा हुआ था। परन्तु ब्रिटिश सेना के पहुँचते ही वह बचकर निकल गया। ब्रिटिश सैनिकों ने गाँव वालों को बाहर आने के लिए मजूबर कर दिया परन्तु दिल्ली से आये दो गाजी एक मस्जिद में मोर्चा लगाकर लड़ते रहे और ब्रितानियों की योजना सफल नहीं हो सकी। साँवल (शाहमल) ने यमुना नहर पर स्थित सिंचाई विभाग के एक अधिकारी के बँगले को अपना मुख्यालय बनाया हुआ था।
उसने मेरठ के पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी भाग की प्रशसनिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त कर दी। एक ब्रिटिश सैन्य अधिकारी ने लिखा है कि- 'एक जाट (शाहमल) ने जो बड़ौत परगने का गर्वनर हो गए थे और जिन्होंने राजा की पदवी धारण कर ली थी, तीन-चार परगनों पर नियन्त्रण कर लिया। दिल्ली के घेरे के समय जनता और दिल्ली गैरीसन इसी व्यक्ति के कारण जीवित रह सकी।'
बसौद के जाटों और बिचपुरी के गूजरों ने भी शाहमल के नेतृत्व में क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय भाग लिया। अम्हैड़ा गाँव के गूजरों ने बड़ौत और बागपत की लूट तथा एक महत्वपूर्ण पुल को नष्ट करने में हिस्सा लिया। जहाँ सिसरौला के जाटों ने शाहमल के सहयोगी सूरजमल की मदद की तो वहीं एक सफेद दाढ़ीवाले सिख ने क्रांतिकारी किसानों का नेतृत्व किया।
जुलाई, 1857 में शाहमल को पकड़ने के लिए खाकी रिसाला भेजा गया। शाहमल ने क्रांतिकारी ग्रामीणों के साथ उसका मुकाबला किया। बड़ौत के दक्षिण में एक बाग में खाकी रिसाला और शाहमल एवं अन्य क्रांतिकारियों में आसने-सामने घमासान संघर्ष हुआ जिसमें शाहमल शहादत को प्राप्त हुए। 21 जुलाई, 1857 को तार द्वारा ब्रिटिश उच्चाधिकारियों को सूचना दी गई थी कि मेरठ से आए खाकी रिसाले के विरूद्ध लड़ते हुए शाहमल अपने अनेक साथियों सहित मारे गए। शाहमल का सिर काट लिया गया और सार्वजनिक रूप से इसकी प्रदर्शनी की गयी।
23 अगस्त, 1857 को शाहमल के पौत्र लिज्जामल ने बड़ौत क्षेत्र में पुनः ब्रितानियों के विरूद्ध क्रांति की शुरूआत की। ब्रितानियों ने लिज्जामल और उनके समर्थकों को कुचलने के लिए खाकी रिसाला भेजा। खाकी रिसाले ने पाँचली, नंगला और फुपरा में कार्यवाही करते हुए लिज्जामल को बन्दी बना लिया। लिज्जामल को उसके 32 साथियों के साथ फाँसी दे दी गयी।

बाघू निरोजपुर गाँव के ग्रामीणों ने क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। यहाँ के ग्रामीणों का नेतृत्व अचलू गुर्जर ने किया। अचलू अपने व्यक्तित्व एवं व्यवहारकुशलता के कारण बाघू निरोजपुर एवं निकटवर्ती क्षेत्र में अत्यधिक लोकप्रिय थे। इसी कारण इस क्षेत्र के व्यक्ति उन्हें दादा अचलू के नाम से पुकारते थे। अचूल के आह्वान पर ग्रामीणों ने क्रांति में भाग लिया और क्रांतिकारी सैनिकों की भी मदद की। उनके बिजरौल के साँवल (शाहमल) से भी घनिष्ठ सम्बन्ध थे उन्होंने शाहमल के साथ क्रांति को सफल बनाने के लिए अनेक क्रांतिकारी गुप्त सभाओं का आयोजन किया था।
क्रांति को सफल बनाने के लिए एक बार अचूल और शाहमल क्रांतिकारी सभा को सम्बोधित कर रहे थे। इस गुप्त सभा की सूचना एक मुखबिर ने पुलिस को दे दी। शीघ्र ही अचूल व शाहमल का दमन करने के लिए खाकी रिसाला भेजा गया। इसमें 40 राइफलधारी स्वयंसेवक थे। खाकी रिसाला के द्वारा क्रांतिकारियों को घेर लिया गया। यद्यपि दोनों के मध्य भयंकर संघर्ष हुआ परन्तु क्रांतिकारियों को पीछे हटने के लिए मजूबर होना पड़ा। शाहमल यहाँ से निकलने में सफल हुए परन्तु अचलू को पकड़ लिया गया। उन्हेंे क्रांति में भाग लेने और आम जनता को भड़काने के आरोप में तोप के मुँह पर बाँधकर उड़ा दिया गया और उनकी जायदाद जब्त कर ली गयी। अचूल के परिवार की 1800 बीघा जमीन मुखबिरी करने के एवज़ में दुल्ले गूजर को दे दी गयी एसा बताया जाता है।

यह ग्राम मेरठ-हापुड़ मार्ग तथा मेरठ-दिल्ली मार्ग को जोड़ने वाले बाईपास से लगभग 2 किलोमीटर की दूरी पर बसा है। इस ग्राम में भारद्वाज गोत्रीय त्यागी-ब्राह्मण जाति के लोग निवास करते हैं।
बझौट ग्राम एक ऊँचे टीले पर अवस्थित है। अनुश्रतियों में इस गाँव का सम्बन्ध रामायणकालीन मुनि वशिष्ठ से माना गया है। यहाँ के व्यक्तियों का विश्वास है कि इसका नाम वशिष्ठ के नाम पर पहले बशोठ हुआ जो कालान्तर में बझौट पड़ गया। सन् 1857 में मेरठ के क्रांति होने के कुछ समय पश्चात् इस गाँव के ग्रामीणों ने उसमे अपनी सकारात्मक भूमिका निभायी। परन्तु जब क्रांति असफल हो गयी तथा प्रतिक्रांति का दौर चला तब अन्य ग्रामों के साथ-साथ इस ग्राम को भी ब्रितानियों ने नष्ट करने का प्रयास किया। ब्रिटिश सेना ने मारू बाजा बजाते हुए गाँव को घेर लिया और ब्रिटिश अफसर ने कुएँ पर पानी भरकर स्नान करते हुए एक व्यक्ति को गोली मारकर पूरे गाँव में कत्लेआम करने तथा आग लगाने का आदेश दिया। तभी इस गाँव के कुछ बुजुर्गों ने बड़े धैर्य से काम लेते हुए उस ब्रिटिश अफसर से कहा कि-
'क्योंकि हमारे गाँव के लोगों ने गदर में किसी प्रकार भी भाग नही लिया, इसलिए गदर करने वालों ने हमारी गाँव को लूट लिया है, आप सारे गाँव की तलाशी ले लें। यदि हमारे गाँव के किसी भी घर में एक भी हथियार मिल जाए तो जो चाहे सजा दें। हम लोगों के हथियार और घोड़े एवं घोड़ियाँ गदरवाले जबरदस्ती लूट कर ले गये। गदरवालों ने कहा था कि या तो हमारे साथ गदर में शरीक हो जाओ या अपना सार धन, जेवर, हथियार और घोड़े एवं घोड़ियाँ चुपचाप हमें ले जाने दे। हमारे मना करने पर उन्होंने हमारे साथ बदसलूकी भी की और हमारे गाँव को घेरकर जबरदस्ती ये सारी चीजें छीन लीं। आप अपने लोगों से हमारे गाँव की तलाशी करके खुद ही इस बात का अंदाजा लगा लें।'
वस्तुतः इस गाँव के व्यक्तियों ने क्रांति के असफल होते ही भविष्य में होने वाले अत्याचार का आभास कर लिया था, इसलिए उन्होंने गाँव के पूर्वोत्तर दिशा के एक खेत में स्थित पुराने कुएँ में सारे गाँव के तमाम हथियार भरकर उसमें मिट्टी डालकर ऊपर से पाट दिया था और गाँव के घोड़े व घोड़ियों को जंगल में छुड़वा दिया था। अतः जब ब्रिटिश अफसर ने तलाशी ली तो उसे ये सारी चीजें बरामद न हो सकीं और उसने सोचा कि सम्भव है इस ग्राम को गदर वालों ने लूटा हो। ब्रितानियों ने गाँव वालों की बात को सही समझा और बिना अधिक कहर बरपाये ब्रिटिश सेना वहाँ से चली आयी।

बुलन्दशहर जिले में अवस्थित ग्राम बराल में एक समाधि को 'देवता के थान' (स्थान) के नाम से जाना जाता है। यहाँ के ग्रामीण इस समाधि पर दीप प्रज्वलित करके नतमस्तक होकर प्रसाद चढ़ाते हैं। उनकी मान्यता है कि यदि कोई व्यक्ति यहाँ आकर मस्तक झुकायेगा, उसकी सभी मुरादें पुरी हो जायेगीं।
वस्तुतः यह समाधि किसी साधु-संन्यासी की न होकर 1857 में शहीद हुए क्रांतिकारी मेहताब सिंह की है। मेहताब सिंह ने ब्रिटिश शासन का विरोध करते हुए क्रांति में भाग लिया था। वे बराल ग्राम के राजपूत परिवार से सम्बन्धित थे। मेरठ में घटित 10 मई की घटना की सूचना बराल, गुलावठी, मालागढ़ एवं बुलन्दशहर क्षेत्र में फैल गयी। इन क्षेत्रों के हजारों क्रांतिकारी ग्रामीण बराल में एकत्रित हो गये। यहाँ एक क्रांतिकारी सभा का आयोजन किया गया। बराल ग्राम में हुई इस विशाल क्रांतिकारियों की सभा का संचालन मेहताब सिंह ने किया। तत्कालीन ब्रिटिश दस्तावेजों में लिखा है कि-'20 हजार लोगों का झुण्ड राजपूत मेहताब के नेतृत्व में संगठित हो गया था।' उन क्रांतिकारियों को तितर-बितर करने के लिए बुलन्दशहर से टर्नबुल के नेतृत्व में एक ब्रिटिश सैनिक टुकड़ी बराल ग्राम में पहुँची। इस सैनिक टुकड़ी का ग्रामीण क्रांतिकारियों ने सामना किया। भयंकर संघर्ष में सैकड़ों ग्रामीण मारे गये। इस संघर्ष में अहीर चौबीसी (यादवों के चौबीस ग्राम) के ग्रामीण भी मेहताब के पक्ष में लड़े थे। मेहताब सिंह इस संघर्ष में शहीद हो गए।
बराल में हुई क्रांतिकारी ग्रामीणों की सभा कराने में बुलन्दशहर के जिला मजिस्ट्रेट सैप्ट ने मालागढ़ के नवाब वलीदाद पर आरोप लगाया कि यह सभा उनके संकेत पर हुई है।
मेहताब सिंह की मृत्युपरान्त क्रांतिकारियों ने बुलन्दशहर में अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों में तेजी कर दी और ब्रितानियों को बुलन्दशहर से मेरठ भागने के लिए मजूबर कर दिया। मेरठ जाते समय रास्ते में उन पर ग्रामीणों द्वारा गोलियाँ बरसायी गयीं। मि. सैप्ट ने कुछ समय उपरान्त अपनी रिपोर्ट में लिखा भी था कि 'जब हम मेरठ के लिए रवाना हुए तो मार्ग में सड़क के निकवर्टी ग्रामों से हम पर गोलियाँ दागी जा रही थी।' प्रतिक्रांति के दौरान बराल गाँवं को बागी घोषित कर दिया गया।
मेहताब सिंह देश के लिए शहीद हो गए परन्तु उनकी शहादत को आज भी बराल के व्यक्ति याद करते हैं और उनकी समाधि पर दीप जलाकर नतमस्तक होकर प्रसाद चढ़ाते हैं।

1857 में बसौद के ग्रामीणो ने शाहमल के साथ गुप्त समझौता किया। शाहमल की सहायतार्थ इन्होने अनाज एकत्रित किया। क्रांतिकारी ग्रामीणों के दमन के लिए डॉ. केनन की अगुआई में खाकी रिसाला मसौद पहुँचा। वहाँ क्रांतिकारियों के लिए जो अनाज ग्रामीणों ने एकत्रित किया था, खाकी रिसाले ने उसे जला दिया। जब यह दल वापिस जा रहा था तो खासी रिसाले पर साँवल के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने हमला कर दिया, परन्तु शीघ्र ही रिसाले ने क्रांतिकारियों को भागने पर विवश कर दिया। इस संघर्ष में अनेक क्रांतिकारी ग्रामीण शहीद हुए। मि. विलियम्स इस सम्बन्ध में लिखते है कि 'पूर्वी नहर के आस-पास वातावरण काफी गर्म था। जहाँ भी वह लगान वसूल करने गया वहीं पर उसे विरोध का सामना करना पड़ा। वह केवल अपनी सुरक्षा करके ही वापिस लौट आए।'
शाहमल चारों ओर के ग्रामीणों को एकत्रित करके क्रांतिकारी गुप्त सभाओं का आयोजन करने में लगे थे। क्रांति को सफल बनाने के लिए एक बार शाहमल और गुर्जर क्रांतिकारी सभा का आयोजन कर रहे थे। इसकी खबर ब्रितानियों को दुल्ले सिंह, बड़ौत निवासी ने दे दी। खाकी रिसाला ने शीघ्र ही क्रांतिकारियों को चारों ओर से घेर लिया। उस समय शाहमल व अचूल दोनों साथ थे। शाहमल वहाँ से भाग निकलने में सफल हुए परन्तु अचूल पकडे गए। ब्रितानियों ने उन्हेंे तोप के मुँह से बाँधकर उड़ा दिया। अचलू की 1800 बीघा जमीन दुल्ले सिंह गुर्जर को दे दी गई क्योंकि उन्होंने ब्रितानियों की मुखबरी की थी।

1857 की क्रांति में भदौला के ग्रामीणों ने भी क्रांतिकारियों का साथ दिया। भदौला ग्राम हापुड़ तहसील के अन्तर्गत आता है। यह गुर्जर बहुल ग्राम है। 1857 में कन्हैया सिंह गुर्जर तथा फूल सिंह गुर्जर के नेतृत्व में यहाँ के ग्रामीणों ने ब्रितानियों का विरोध किया। कहा जाता है कि यहाँ ब्रितानियों को अत्यधिक परेशान किया गया तथा क्रांतिकारियों ने अनेक ब्रितानियों को मौत के घाट उतार दिया। परिणामतः यहाँ के विप्लव का दमन करने के लिए ब्रितानियों ने सैनिक टुकड़ी को भेजा गया।
ग्रामीणों को पहले ही इसकी जानकारी मिल गयी थी। उन्होंने ब्रिटिश सेना का सामना करने की योजना बनायी परन्तु भयंकर संघर्ष के पश्चात् उन्हें पीछे हटने के लिए मजूबर होना पड़ा। अनेक क्रांतिकारी ग्रामीणों का कत्ल किया गया। भदौला गाँव को बागी गाँव घोषित करके सम्पूर्ण जायदाद जब्त कर ली गयी। इस विषय में सरकारी दस्तावेज में लिखा है कि-'बाबत, बगावत जायदाद जब्त की जाती है, जिसकी मालगुजारी की जिम्मेदार सरकार की होगी।' ब्रितानियों की सुनिश्चित कार्यवाही के पश्चात् ही भदौला गाँव के विप्लव का दमन हो सका।

गाजियाबाद जनपद में अवस्थित धौलाना में मेवाड़ के गहलोत (राणा प्रताप के वंशज) सिसौदिया राजपूतों की प्रधानता है। मेवाड़ से ये राजपूत दिल्ली आये और कालान्तर में धौलाना तथा निकटवर्ती क्षेत्रों में आ बसे। गहलौत राजपूतों के यहाँ साठ गाँव है इसलिए इन्हें 'साठा' कहा जाता है। 1857 मे यहाँ के ग्रामीणों ने भी क्रांति में भागीदारी की। परिणामतः ब्रितानियों ने तेरह राजपूत ग्रामीणों और एक अग्रवाल बनिये लाला झनकूमल को गाँव में ही फाँसी दे दी गयी।
इस घटना के सम्बन्ध में धौलाना निवासी श्री मेघनाथ सिंह सिसौदिया (पूर्व विधायक) ने '1857 में ब्रितानियों के खिलाफ जनता व काली पल्टन द्वारा साठे में (गहलौत राजपूतों के साठ ग्रामों में) लड़ा गया प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (गदर) का आरम्भिक सच्चा वर्णन' शीर्षक के एक गुलाबी रंग का पैम्पलेट जारी किया। इसमें घटना का वर्णन इस प्रकार किया है-
"10 मई, 1857 को मेरठ छावनी में ब्रिटिश पल्टन के अफसरों ने हिन्दुस्तान पल्टन को चर्बी लगे कारतूसों को दाँतों से खीचने के लिए मजबूर किया जिसे मेरठ छावनी के उन सैनिकों (काली पल्टन) ने इस आदेश को नहीं माना और बगावत कर दी। मेरठ से उन्होंने दिल्ली के लिए कूच किया और नयी खुदी हुई गंग नहर के किनारे-किनारे पैदल चल दिये और शाम होने तक देहरा, डासना व धौला के पास-पड़ोस गाँवों में जाकर रुक गये। अगले दिन प्रातःकाल को सब धौलाना के चौधरी के यहाँ इकट्ठे हो गये और धौलाना की गलियों में ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध 'हर-हर महादेव' के नारे लगाने शुरू कर दिये, थोड़ी ही देर में धौलाना ग्राम तथा आस-पास के हजारों युवक इकट्ठा हो गये और सब ने तय किया कि पहले सरकारी थाने को लूटा जाये तथा प्रत्येक सरकारी चीज जलायी जाये।
11 मई, 1857 को इस साठा क्षेत्र के राजपूतों का खून क्रांति के लिए खौल उठा। दोपहर से पहले ही धौलाना व पास-पड़ोस के हजारों युवक ब्रिटिश सरकार के खिलाफ वीरतापूर्वक नारे लगाते हुए तथा ढोल, शंख, घड़ियाल बजाते हुए धौलाना की गलियों में घूमने लगे और हर-हर महादेव के नारे लगाने लगे। इससे भयभीत होकर धौलाना थाने के दरोगा व सिपाही थाने को छोड़कर भाग गये, इन क्रांतिकारियों ने मेरठ की काली पल्टन के सैनिकों के साथ मिलकर थाने में आग लगा दी तथा सभी सरकारी कागजात फूँक डाले। तत्पश्चात् ठाकुर
झनूक की अध्यक्षता में यह जत्था दिल्ली कूच कर गया। रास्ते में क्रांतिकारियों ने रसूलपुर, प्यावली के किसानों को अपने साथ चलने के लिए प्रेरित किया। रोटी मांगते हुए और रोटी बाँटते हुए वे दिल्ली की ओर चले दिये और 12 मई को प्रातः काल दिल्ली पहुँच गये। वहाँ 12 मई को धौलाना के राणा झनूक सिंह शिशौदिया ने दिल्ली के हजारों लोगों के समाने ब्रितानियों की गुलामी का चिन्ह यूनियन जैक को जलाल किले पर टंगा हुआ था, ऊपर चढ़कर फाड़कर उसके स्थान पर अपनी केशरिया पगड़ी टांग दी और इस प्रकार दिल्ली के लाल किले पर केशरिया झण्डा फहरा दिया।
ब्रितानियों ने दिल्ली पर पुनः अधिकार करने के पश्चात् ठाकुर झनकू सिंह की खोजबीन की परन्तु उनका कहीं भी पत्ता नहीं चला। पूरब में उनकी रिश्तेदारी से सूचना प्राप्त हुई कि वह कमोना के बागी नवाब दूंदे खाँ के पासे है। दूंदे खाँ के पकड़े जाने पर ठाकुर झनकू सिंह, पेशवा नाना साहब के साथ नेपाल चले गये। साठा के क्षेत्र में धौलाना की जमींदारी मालगुजारी जमा न करने के अपराध में छीन ली...परिणाम यह निकला कि धौलाना के 14 क्रांतिकारियों ठाकुर झनकू सिंह को छोड़कर 13 राजपूत गहलौत क्रांतिकारियों को पकड़ लिया गया। पकड़े जाने पर इनके परिवार के स्त्री-पुरूष तथा ग्रामवासियों को इकट्ठा करके सबके सामने धौलाना में पैंठ के चबूतरे पर खड़े दो पीपल के पेड़ों पर 29 नवम्बर, 1857 को फाँसी दे दी गयी। उनके घरों में आग लदा दी गयी तथा परिवार के सदस्यों को रोने भी नहीं दिया गया। उनकी पत्नीयों की चूड़ी भी नहीं तोड़ने दी गयी। उनकी लाशों पर थूकने एवं हँसने का आदेश भी दिया गया। अत्याचार की सीमा उस समय पार हो गयी जब ठाकुर झनकू सिंह के न पकड़े जाने पर उनके नाम के लाला झनकूमल को नाम की समानता के आधार पर पकड़ कर फाँसी दे दी गयी। इसके बाद पास में ही एक बड़े गहरे खुदे हुए गड्ढे में इन वीर राजपूत क्रांतिकारियों की लाशों के साथ एक-एक जीवित कुत्ता बँधवा दिया गया और फिर ये सारी लाशें उस गड्ढे में डलवा दी गयी और गड्ढे को पटवा दिया गया।"
श्री मेघनाथ सिंह के अनुसार फाँसी लगने वाले के अनुसार फाँसी लगने वाले क्रांतिकारियों के नाम इस प्राकर है- 1. लाल झनकूमल 2. वजीर सिंह चौहान 3. साहब सिंह गहलौत 4. सुमेर सिंह गहलौत 5. किड्ढा गहलौत, 6. चन्दन सिंह गहलौत 7. मक्खन सिंह गहलौत 8. जिया सिंह गहलौत 9. दौलत सिंह गहलौत 10. जीराज सिंह गहलौत 11. दुर्गा सिंह गहलौत 12. मुसाहब सिंह गहलौत 13. दलेल सिंह गहलौत 14. महाराज सिंह गहलौत।
यद्यपि श्री मेघनाथ सिंह जी ने धौलाना में 1857 की घटना के अनेक बिन्दुओं को उजागर किया है। परन्तु उनकी सत्यता सन्देहजनक है। श्री मेघनाथ सिंह जी स्वयं गहलौत राजपूत परिवार से सम्बन्धित है इसलिए उनके वर्णन में अनेक जगह जाति प्रवाह की झलक दिखायी देती है।
उनका यह सत्यापित करना कि नयी खुदी हुई गंग नहर की पटरी पर पैदल चलकर मेरठ के क्रांतिकारी सैनिकों का धौलाना क्षेत्र से होकर जाना भी सन्देहजनक लगता है, क्योंकि मेरठ में देसी सैनिक क्रांतिकारी घटनाओं को अंजाम देकर मेरठ से रिठानी होते हुए भूड़बराल में शेरशाह सूरि के शासनकाल में निर्मित सराय के सामने से गुजकर क्रमशः बिसोखर, बेगमाबाद, कुम्हेड़ा, फर्रूखनगर (लोनी) होते हुए यमुना पार करके 11 मई की प्रातः दिल्ली पहुँचे। मेरठ से दिल्ली का यह मार्ग बादशाह रास्ता कहलाता था। जबकि धौलाना बादशाही रास्ते से अलग हटकर है। अतः मेरठ के क्रांतिकारी सैनिकों का दिल्ली जाते समय इस क्षेत्र से होकर जाना पूर्णतया सत्य दिखायी नहीं देता।

उनका यह कहना कि 11 मई को धौलाना में क्रांति का प्रस्फूटन और इसी दिन ग्राम में स्थिति पुलिस थाने को क्रांतिकारी ग्रामीणों द्वारा जलाया जाना भी असंगत प्रतीत होता है क्योंकि मेरठ में क्रांति के प्रस्फूटन तक यह क्षेत्र पूर्णतया शान्त ही था। यद्यपि 'गौ-माता' की हत्या के कारण यहाँ ग्रामीणों में अपने धर्म के प्रति डर का माहौल बना हुआ था परन्तु मेरठ से क्रांति की शुरूआत होते ही यहाँ क्रांति प्रस्फूटित नहीं हुई थी। अनुसंधान से इस बिन्दु को बल प्राप्त होता है कि बादशाह बहादुरशाह को मेरठ के क्रांतिकारी सैनिकों द्वारा देश का सम्राट घोषित करने तक यहाँ शान्ति बनी रही। उस समय संचार के माध्यम भी विकसित नहीं थे जिससे मेरठ की क्रांति की उसी समय सूचना धौलाना के ग्रामीणों को मिल जाती। अतः 11मई को ही धौलाना में क्रांति का प्रस्फूटन साक्ष्य संगत प्रतीत नहीं दिखायी देता।
ठाकुर झनकू के द्वारा 12 मई को लाल किले पर यूनियन जैक से स्थान पर केसरिया झण्डा फहराना भी सर्वथा अनैतिहासिक है। क्योंकि यदि यह घटना घटित हुई होती तो ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण होती तथा समकालीन इतिहासकार इसका वर्णन अवश्य करते, परन्तु किसी भी इतिहासकार ने इस घटना का कहीं भी वर्णन नहीं किया। ब्रितानियों द्वारा केवल नाम की समानता पर लाला झनकू को पकड़कर फाँसी देना पुनः सन्देहजनक दिखायी पडता है।
वस्तुतः 1857 की क्रांति के दौरान धौलाना में ईद के मौके पर एक गाय काट दी गयी थी। जिसे यहाँ के ग्रामीणों ने ब्रितानियों का षड्यंत्र माना तथा अपने धर्म पर आघात होना माना। इस घटना से यहाँ धार्मिक दहशत का वातावरण बना हुआ था। मेरठ में 10 मई की घटना की खबर शीघ्र ही आसापस के क्षेत्रों में फैलने लगी थी। क्रांति की सूचना मिलने पर धोलाना के ग्रामीण भी उत्तेजित हो गये। उस उत्तेजित वातावरण में ग्रामीणों ने 'मारो फिरंगी को' के नारे लगाये और वे ग्राम में स्थित पुलिस थाने की दिशा में चल पड़े, जहाँ उन्होंने उसमें आग लगा दी। थानेदार मुबाकर अली मुश्किल से जान बचाकर भागने में सफल हुए और वह निकटवर्ती गाँव ककराना में दिन भर गोबर के बिटोरो में छिपे रहे। रात में वह वहाँ से निकलकर मेरठ पहुँचे तथा उच्च अधिकारियों को धौलाना की स्थिति से अवगत कराया।
कुछ समय पश्चात् डनलप के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना की टुकड़ी धौलाना पहुँच गयी और थानेदार की रिपोर्ट के आधार पर 13 राजपूतों तथा एक अग्रवाल बनिया लाला झनकूमल को गिरफ्तार करके डनलप के सामने लाया गया। क्रांतिकारियों ने बनिये झनकूमल को देखकर उन्होंने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि- "राजपूतों ने ब्रिटिश शासन के विरूद्ध विद्रोह किया यह बात समझ में आती है किन्तु तुमने महाजान होकर, इन विद्रोहियों का साथ दिया, यह बात समझ में नहीं आती। तुम्हारा नाम इनके साथ कैसा आ गया?" लाल झनकू ने जवाब दिया कि "इस क्षेत्र में जब से आपके व्यक्तियों ने मुसलमानों के साथ मिलकर गौ-हत्या करायी तब से मेरे हृदय में गुस्सा पनप रहा था। मैं सब कुछ सहन कर सकता हूँ साब, किन्तु अपने धर्म का अपमान, गौ-माता की हत्या सहन नहीं कर सकता।"
मि. डनलप ने इन 14 क्रांतिकारी ग्रामीणों को फाँसी लगाने का आदेश दिया। परिणामतः गाँव में ही चौपाल पर खड़े दो पीपल के वृक्षों पर उन्हें फाँसी दे दी गयी।
इस क्षेत्र के व्यक्तियों को आतंकित करने तथा आने वाले समय में फिर इस प्रकार की घटना की पुनरावृत्ति न हो यह दिखाने के लिए चौदह कुत्तों को मारकर इन ग्रामीणों के शवों के साथ दफना दिया गया। धौलाना गाँव को बागी घोषित कर दिया तथा ग्रामीणों की सम्पत्ति जब्त करके वफादार गाँव सौलाना के निवासियों को दे दी गयी। पुलिस स्थाने को पिलखुवा स्थानान्तरित कर दिया गया। गाँव में एक ब्रिटिश सैन्य टुकड़ी नियुक्त की गयी जो काफी दिनों तक धौलाना में मार्च करती रही।
इस समस्त कार्यवाही के पश्चात् यहाँ लगान वसूली होने लगी। धौलाना में मारे गये 14 शहीदों के नाम इस प्रकार है- 1. साहब 2. वजीर 3. सुमेर 4. किट्ठा 5. चन्दन 6 मक्खन 7. जिया 8. दौलत 9. जीराज 10. दुर्गा 11. मसाहब 12. दलेल 13. महाराज 14. लाला झनकू
इनमें साहब तथा जिया सगे भाई थे। सन् 1957 में श्री मेघनाथ सिंह सिसौदिया जी ने ठाकुर मानसिंह को साथ लेकर इस स्थान पर शहीद स्मारक बनवाया जो आज भी इन क्रांतिकारी ग्रामीणों की शहादत की याद दिला रहा है।

मेरठ जिले में अवस्थित गाँव घाट पाँचली गुर्जर बहुल है। ऐसी मान्यता है कि धन्नासिंह उर्फ धनसिंह कोतवाल इस गाँव के किसान परिवार से सम्बन्धित थे। मेरठ में 10 मई की संध्या को जैसे ही क्रांति का प्रस्फूटन हुआ धन्ना सिंह ने परोक्षतः किन्तु सक्रिय रूप से उसमें अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। 10 मई, 1857 को मेरठ में क्रांतिकारी सैनिकों के साथ पुलिस ने भी ब्रितानियों के खिलाफ क्रांतिकारी घटनाओं को अंजाम दिया।
यद्यपि विप्लव का प्रस्फुटन 10 मई को सायंकाल 5 व 6 बजे के मध्य हुआ था परन्तु दोपहर से ही विप्लव की अफवाह मेरठ तथा निकटवर्ती गाँवों में फैलनी शुरूहो गयी थी और मेरठ के पास के गाँवों के ग्रामीण मेरठ की सदर कोतवाली क्षेत्र में जमा होने लगे थे। इन गाँवों मे घाट पाँचली, गंगोल, नंगला इत्यादि प्रमुख थे। सदर कोतवाली में उस दिन धन्ना सिंह कार्यवाहक प्रभाती के पद पर कार्यरत थे। व्यक्तित्व, पुलिस विभाग में उच्च पर कार्यरत एवं स्थानीय होने के कारण क्रांतिकारी ग्रामीणों का उनको जल्दी ही विश्वास प्राप्त हो गया।
उन्होंने 10 मई, 1857 को मेरठ की क्रांतिकारी जनता का नेतृत्व किया। इस क्रांतिकारी भीड़ ने रात्रि में दो बजे मेरठ जेल पर हमला कर दिया और जेल तोड़कर 839 कैदियों को छुड़ा कर जेल में आग लगा दी। जेल से छुड़ाये हुए अनेक कैदी भी क्रांति में शामिल हो गये। इससे पहले की पुलिस नेतृत्व में क्रांतिकारी जनता ने मेरठ शहर व कैन्ट क्षेत्र में विप्लवकारी घटनाओं को अंजाम देना शुरू कर दिया था।
क्रांति के दमन के पश्चात् ब्रिटिश सरकार ने 10 मई, 1857 को मेरठ में हुई विप्लवकारी घटनाओं में पुलिस की भूमिका की जांच के लिए मेजर विलियम्स की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया। मेजर विलियम्स ने उस दिन की घटनाओं का विभिन्न गवाहियों के आधार पर गहन अध्ययन किया और इस सम्बन्ध में एक स्मरण पत्र तैयार किया। उसका माना था कि यदि धनसिंह ने अपनी ड्युटी ठीक प्रकार से निभाई होती तो सम्भवतः मेरठ में जनता को भड़कने से रोका जा सकता था। एक गवाही के अनुसार क्रांतिकारियों ने कहा कि धनसिंह ने उन्हें स्वयं आसपास के गाँव से बुलवाया था।
नवम्बर, 1858 में विलियम्स ने विप्लव से सम्बन्धित एक रिपोर्ट नोर्थ वैस्टर्न प्रान्त (आधुनिक उत्तर प्रेदश) सरकार के सचिव को भेजी। इस रिपोर्ट में मेट छावनी से सैनिक विप्लव का मुख्य कारण चर्बी वाले कारतूस और हड्‌डियों के चूर्ण वाले आटे की अफवाह को माना गया। इस रिपोर्ट में अयोध्या से आये एक साधु की संदिग्ध गतिविधियों की ओर भी इशारा किया गया। यह माना गया कि विद्रोही सैनिक, मेरठ की पुलिस व जनता तथा निकटवर्ती गाँवों के ग्रामीण इस साधु के सम्पर्क में थे। मेजर विलियम्स को दी गयी एक गवाही के अनुसार धनसिंह स्वयं उस साधु से उसके सूरजकुण्ड ठिकाने पर मिले थे।
यद्यपि यह नहीं कहा जा सकता है कि यह मुलाकात सरकारी थी अथवा नहीं, परन्तु दोनों में सम्पर्क था, इसे इन्कार नहीं किया जा सकता। इस रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि-
10 मई को जिस समय सैनिकों ने विद्रोह किया, ठीक उसी समय सदर बाजार में पहले से एकत्र भीड़ ने भी विप्लकारी गतिविधियाँ शुरू कर दीं। उस दिन कई स्थानों पर सिपाहियों पर क्रांतिकारी भीड़ का नेतृत्व करते देखा गया।
1857 के विप्लव से पूर्व एक अन्य घटना भी घटित हुई थी जिसके कारण धन्नासिंह तथा पाँचली के ग्रामीण ब्रितानियों से धृणा करने लगे थे। इस घटना से सम्बन्धित किंवदन्ती चली आ रही है कि--
अपैल के महीने में किसान गेहूँ की पकी हुई फसल को उठाने के लिए खेतों में काम कर रहे थे। एक दिन दोपरह के समय दो ब्रिटिश तथा एक मेम गाँव पाँचली के निकट एक आम के बाग में आराम करने के लिए रूक गये। इसी बाग के समीप पाँचली के तीन किसान जिनके नाम मंगत, नरपत और झज्जड़ थे, अपने खेतों में कृषि कार्य कर रहे थे। आराम करते हुए ब्रितानियों ने इन ग्रामीणों को देखकर पानी पिलाने के लिए कहा। किसी कारणवश इन किसानों की ब्रितानियों से कहा-सुनी हो गयी। उन ग्रामीणों ने एक ब्रिटिश तथा मेम को पकड़ लिया जबकि दूसरा ब्रिटिश वहाँ से भागने में सफल रहा। कहा जाता है उन तीनों ग्रामीणों ने उस ब्रिटिश के हाथ-पैर बाँधकर गर्म रेत में डाल दिया और मेम से जबरन दाँय हँकवायी। कुछ समय पश्चात् भागा हुआ ब्रिटिश कुछ सिपाहियों के साथ लौटा लेकिन तब तक वे किसान वहाँ से भाग चुके थे। ब्रितानियों ने धन्नासिंह के पिता मेहरसिंह, जो गाँव के सरपंच थे, को दोषियों को पकड़ने की जिम्मेदारी सोंपी तथा कहा कि यदि वे तीनों किसान पकड़कर उनके हवाले नहीं किये गये तो सजा गाँव वालों को और सरपंच को दी जायेगी। भय के कारण अनेक किसान गाँव से भाग गये। अधिक दाबाव के कारण नरपत और झज्जड़ ने तो समर्पण कर दिया लेकिन मंगत फरार ही रहे। उन दोनों को 30-30 कोड़े की सजा दी गयी तथा जमीन से बेदखल कर दिया गया। मंगत के परिवार के तीन सदस्यों को फाँसी पर लटका दिया गया। सरपंच को मंगत को न पकड़ पाने के आरोप में 6 माह के कारावास की सजा दी गयी।
इस घटना से ग्रामीणों में ब्रितानियों के प्रति अत्यधिक धृणा उत्पन्न हो गयी। अतः जैसे ही मेरठ में क्रांति की शुरूआत हुई धन्नासिंह तथा घाट पाँचली के जुर्जरों ने उसमें बढ़-चढ़ कर भाग लिया।
प्रतिक्रांति के दौरान 14 जुलाई, 1857 को प्रातः 4 बजे घाट पाँचली पर खाकी रिसाले ने तोपों के साथ हमला किया। रिसाले में 56 घुड़सवार, 38 पैदल सिपाही और 10 तोपची थे। इस संघर्ष में अनेक किसान मारे गये। आचार्य दीपांकर द्वारा लिखित 'स्वाधीनता आन्दोल और मेरठ' में घाट पाँचली के 80 व्यक्तियों को फाँसी दिये जाने का वर्णन है।-

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