Wednesday, 9 October 2024

गुर्जर प्रतिहार

 नीलकुण्ड, राधनपुर, देवली तथा करडाह शिलालेख में प्रतिहारों को गुर्जर कहा गया है । राजौरगढ शिलालेख" में वर्णित "गुर्जारा प्रतिहारवन" वाक्यांश से। यह ज्ञात है कि प्रतिहार गुर्जरा वंश से संबंधित थे। सोमदेव सूरी ने सन 959 में यशस्तिलक चम्पू में गुर्जरत्रा का वर्णन किया है।वह लिखता है कि न केवल प्रतिहार बल्कि चावड़ा, चालुक्य, आदि गुर्जर वंश भी इस भूमि की रक्षा करते रहे व गुर्जरत्रा को एक वैभवशाली देश बनाये रखा। ब्रोच ताम्रपत्र 978 ई० गुर्जर कबीला(जाति) का सप्त सेंधव अभिलेख हैं पाल वंशी,राष्ट्रकूट या अरब यात्रियों के रिकॉर्ड ने प्रतिहार शब्द इस्तेमाल नहीं किया बल्कि गुर्जरेश्वर ,गुर्जरराज,आदि गुरजरों परिवारों की पहचान करते हैं।


सिरूर शिलालेख ( :---- यह शिलालेख गोविन्द - III के गुर्जर नागभट्ट - II एवम राजा चन्द्र कै साथ हुए युद्ध के सम्बन्ध मे यह अभिलेख है । जिसमे " गुर्जरान " गुर्जर राजाओ, गुर्जर सेनिको , गुर्जर जाति एवम गुर्जर राज्य सभी का बोध कराता है। ( केरल-मालव-सोराषट्रानस गुर्जरान ) { सन्दर्भ :- उज्जयिनी का इतिहास एवम पुरातत्व - दीक्षित - पृष्ठ - 181 } बादामी के चालुक्य नरेश पुलकेशियन द्वितीय के एहोल अभिलेख में गुर्जर जाति का उल्लेख आभिलेखिक रूप से हुआ है। राजोरगढ़ (अलवर जिला) के मथनदेव के अभिलेख (959 ईस्वी ) में स्पष्ट किया गया है की प्रतिहार वंशी गुर्जर जाती के लोग थे नागबट्टा के चाचा दड्डा प्रथम को शिलालेख में "गुर्जरा-नृपाती-वाम्सा" कहा जाता है, यह साबित करता है कि नागभट्ट एक गुर्जरा था, क्योंकि वाम्सा स्पष्ट रूप से परिवार का तात्पर्य है। महिपाला,विशाल साम्राज्य पर शासन कर रहा था, को पंप द्वारा "गुर्जरा राजा" कहा जाता है। एक सम्राट को केवल एक छोटे से क्षेत्र के राजा क्यों कहा जाना चाहिए, यह अधिक समझ में आता है कि इस शब्द ने अपने परिवार को दर्शाया। भडोच के गुर्जरों के विषय दक्षिणी गुजरात से प्राप्त नौ तत्कालीन ताम्रपत्रो में उन्होंने खुद को गुर्जर नृपति वंश का होना बताया प्राचीन भारत के की प्रख्यात पुस्तक ब्रह्मस्फुत सिद्धांत के अनुसार 628 ई. में श्री चप (चपराना/चावडा) वंश का व्याघ्रमुख नामक गुर्जर राजा भीनमाल में शासन कर रहा था 9वीं शताब्दी में परमार जगददेव के जैनद शिलालेख में कहा है कि गुर्जरा योद्धाओं की पत्नियों ने अपनी सैन्य जीत के परिणामस्वरूप अर्बुडा की गुफाओं में आँसू बहाए। ।


मार्कंदई पुराण,स्कंध पुराण में पंच द्रविडो में गुर्जरो जनजाति का उल्लेख है। अरबी लेखक अलबरूनी ने लिखा है कि खलीफा हासम के सेनापति ने अनेक प्रदेशों की विजय कर ली थी परंतु वे उज्जैन के गुर्जरों पर विजय प्राप्त नहीं कर सका सुलेमान नामक अरब यात्री ने गुर्जरों के बारे में साफ-साफ लिखा है कि गुर्जर इस्लाम के सबसे बड़े शत्रु है जोधपुर अभिलेख में लिखा हुआ है कि दक्षिणी राजस्थान का चाहमान वंश गुर्जरों के अधीन था।


कहला अभिलेख में लिखा हुआ है की कलचुरी वंश गुर्जरों के अधीन था। चाटसू अभिलेख में श्रीहम्मीरमहाकाव्यम् श्रीहम्मीरमहाकाव्ये [ सर्गः अथ चतुर्थः सर्गः


गुर्जर प्रतिहार फोर फादर ऑफ़ राजपूत चीनी यात्री हेन सांग (629-645 ई.) ने भीनमाल का बड़े अच्छे रूप में वर्णन किया है। उसने लिखा है कि “भीनमाल का 20 वर्षीय नवयुवक क्षत्रिय राजा अपने साहस और बुद्धि के लिए प्रसिद्ध है और वह बौद्ध-धर्म का अनुयायी है। यहां के चापवंशी गुर्जर बड़े शक्तिशाली और धनधान्यपूर्ण देश के स्वामी हैं।” हेन सांग (629-645 ई.) के अनुसार सातवी शताब्दी में दक्षिणी गुजरात में भड़ोच राज्य भी विधमान था| भड़ोच राज्य के शासको के कई ताम्र पत्र प्राप्त हुए हैं, जिनसे इनकी वंशावली और इतिहास का पता चलता हैं| इन शासको ने स्वयं को गुर्जर राजाओ के वंश का माना हैं|


कर्नल जेम्स टोड कहते है राजपूताना कहलाने वाले इस विशाल रेतीले प्रदेश राजस्थान में, पुराने जमाने में राजपूत जाति का कोई चिन्ह नहीं मिलता परंतु मुझे सिंह समान गर्जने वाले गुर्जरों के शिलालेख मिलते हैं। पं बालकृष्ण गौड लिखते है जिसको कहते है रजपूति इतिहास तेरहवीं सदी से पहले इसकी कही जिक्र तक नही है और कोई एक भी ऐसा शिलालेख दिखादो जिसमे रजपूत शब्द का नाम तक भी लिखा हो। लेकिन गुर्जर शब्द की भरमार है, अनेक शिलालेख तामपत्र है, अपार लेख है, काव्य, साहित्य, भग्न खन्डहरो मे गुर्जर संसकृति के सार गुंजते है ।अत: गुर्जर इतिहास को राजपूत इतिहास बनाने की ढेरो सफल-नाकाम कोशिशे कि गई। इतिहासकार सर एथेलस्टेन बैनेस ने गुर्जर को सिसोदियास, चौहान, परमार, परिहार, चालुक्य और राजपूत के पूर्वज थे। लेखक के एम मुंशी ने कहा परमार,तोमर चौहान और सोलंकी शाही गुज्जर वंश के थे। स्मिथ ने कहा गुर्जर वंश, जिसने उत्तरी भारत में बड़े साम्राज्य पर शासन किया, और शिलालेख में "गुर्जर-प्रतिहार" के गुर्जर प्रतिहार वंश के शिलालेख सपष्ट रूप में उल्लेख किया गया है, की वे गुर्जर जाति के था।


डॉ के। जमानदास यह भी कहते हैं कि प्रतिहार वंश गुर्जरों से निकला है, और यह "एक मजबूत धारणा उठाता है कि अन्य राजपूत समूह भी गुर्जरा के वंशज हैं।


डॉ० आर० भण्डारकर पड़ीहारों व अन्य अग्निवंशीय राजपूतों की गुर्जरों से उत्पत्ति मानते हैं।


जैकेसन ने गुर्जरों से अग्निवंशी राजपूतों की उत्पत्ति बतलाई है राजपूत गुर्जर साम्राज्य के सामंत थे गुर्जर-साम्राज्य के पतन के बाद इन लोगों ने स्वतंत्र राज्य स्थापित किए इतिहासकार ।


डॉ ऑगस्टस होर्नले का मानना ​​है कि तोमर गुर्जरा (या गुर्जर) के शासक वंश में से एक थे।


लेखक अब्दुल मलिक,जनरल सर कनिंघम के अनुसार, कानाउज के शासकों गुर्जर जाती (गुर्जर पी -213 का इतिहास) 218)। उनका गोत्रा ​​तोमर था ।के.एम.पन्निकर ने"सर्वे ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री "में लिखा है गुर्जरो ने चीनी साम्राज्य फारस के शहंसाह,मंगोल ,तुर्की,रोम ,मुगल और अरबों को खलीफाओं की आंधी को देश में घुसने से रोका और प्रतिहार (रक्षक)की उपाधि पायी,सुलेमान ने गुर्जरो को ईसलाम का बड़ा दुश्मन बताया था।

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प्रसिद्ध प्रतिहारवंश था जो गुर्जरों की शाखा से सम्बन्धित होने के कारण इतिहास में गुर्जर-प्रतिहार कहा जाता है । इस वंश की प्राचीनता पाँचवीं शती तक जाती है । पुलकेशिन् द्वितीय के ऐहोल लेख मेंगुर्जर जाति का उल्लेख सर्वप्रथम हुआ है ।


भगवान लाल इन्द्र जी ने गुर्जर प्रतिहारों को गुजरात से आने वाले गुर्जर बताये। डॉ. कनिंघगम ने प्रतिहारों को कुषाणों के वंशज बताया। स्मिथ स्टैन फोनो ने प्रतिहारों को कुषाणों को वंशज बताया। मुहणौत नैणसी ने गुर्जर प्रतिहारों को 26 शाखाओं में वर्णित किया। सबसे प्राचीन शाखा मण्डोर की मानी जाती है।


सर्वाधिक प्रसिद्ध प्रतिहार वंश जो गुर्जरो की शाखा से संबधित होने के कारण इतिहास में गुर्जर प्रतिहार कहा जाता है |


पुलेकेशिन द्वितीय के ऐहोल लेख में गुर्जर जाति का सर्वप्रथम उलेख हुआ है |


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(रानी लक्ष्मी कुमारी चुडावत )

ने राजस्थान का एक लंबा इतिहास लगभग 800 पृष्ठों पर लिखा है। 10 वीं शताब्दी ईस्वी की एक सत्य घटना पर वह लिखती हैं, देव नारायण गुर्जर ने अपने बिखरे परिवार के सदस्यों को एकत्र किया । उसके चचेरे भाइयों में से एक फर्श कालीन पर बैठा था, देवा नारायण ने उसे बुलाया, हे भाई, वह राजपूतों के बैठने की जगह है, तुम यहाँ सिंहासन के पास आओ। उन्हें लगता है कि गुर्जर वर्ग सभी राजपूतों के लिए एक श्रेष्ठ वर्ग है. ।गुर्जर दुनिया की एक महान जाति है।


गुर्जर ऐतिहासिक काल से भारत पर शासन कर रहे थे, बाद में कुछ गुर्जर की औलाद को मध्यकाल में राजपूत कहा जाता था। राजपूत, मराठा, जाट और अहीर, क्षत्रियों के उत्तराधिकारी हैं। वे विदेशी नहीं हैं। हम सभी को छोड़कर कोई भी समुदाय क्षत्रिय नहीं कहलाता है। उस क्षत्रिय जाति को कैसे खत्म किया जा सकता है जिसमें राम और कृष्ण पैदा हुए थे। हम सभी राजपूत, मराठा, जाट और अहीर सितारे हैं, जबकि गुर्जर क्षत्रिय आकाश में चंद्रमा हैं। गुर्जर की गरिमा मानव शक्ति से परे है ..

(शब्द - ठाकुर यशपाल सिंह राजपूत )


गुर्जर तंवर राजाओ की औलाद से तंवर राजपूत और तोमर राजपूत बने।

(शब्द महेंदर राजपूत)


रघुवंशी(सूर्यवंशी) गुर्जर के शिलालेख


(1) विद्व शाल मंजिका, सर्ग 1, श्लोक 6 में राजशेखर ने कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिरभोज महान के पुत्र महेंद्रपाल को रघुकुल तिलक गुर्जर अर्थात सूर्यवंशी गुर्जर बताया है।

(2) महाराज कक्कुक का घटियाला शिलालेख भी इसे सूर्यवंशी वंश प्रमाणित करता है, अर्थात रघुवंशी गुर्जर।

(3) बाउक प्रतिहार के जोधपुर लेख से भी इनका रघुवंशी होना प्रमाणित होता है(9 वी शताब्दी)।

(4) गुर्जर सम्राट मिहिरभोज महान की ग्वालियर प्रशस्ति। मन्विक्षा कुक्कुस्थ (त्स्थ) मूल पृथवः क्ष्मापल कल्पद्रुमाः। तेषां वंशे सुजन्मा क्रमनिहतपदे धाम्नि वज्रैशु घोरं, राम: पौलस्त्य हिन्श्रं क्षतविहित समित्कर्म्म चक्रें पलाशे:। श्लाध्यास्त्स्यानुजो सौ मधवमदमुषो मेघनादस्य संख्ये, सौमित्रिस्तिव्रदंड: प्रतिहरण विर्धर्य: प्रतिहार आसी। तवुन्शे प्रतिहार केतन भृति त्रैलौक्य रक्षा स्पदे देवो नागभट: पुरातन मुने मुर्तिर्ब्बमूवाभदुतम। अर्थात – सूर्यवंश में मनु, इश्वाकू, कक्कुस्थ आदि राजा हुए, उनके वंश में पौलस्त्य (रावण) को मारने वाले राम हुए, जिनका प्रतिहार उनका छोटा भाई सौमित्र (सुमित्रा नंदन लक्ष्मण) था, उसके वंश में नागभट्ट हुआ।इसी प्रशस्ति के सातवे श्लोक में वत्सराज के लिए लिखा है क़ि उस क्षत्रिय पुंगव (विद्वान्) ने बलपूर्वक भड़ीकुल का साम्राज्य छिनकर इश्वाकू कुल की उन्नति की।

(5) देवो यस्य महेन्द्रपालनृपति: शिष्यों रघुग्रामणी: (बालभारत,1/11)। तेन (महिपालदेवेन) च रघुवंश मुक्तामणिना (बालभारत)। बालभारत में भी महिपालदेव को रघुवंशी एवम् दहाड़ता गुर्जर कहा है।

(6) ओसिया के महावीर मंदिर का लेख जो विक्रम संवत 1013 (ईस्वी 956) का है तथा संस्कृत और देवनागरी लिपि में है, उसमे उल्लेख किया गया है कि- तस्या कार्षात्कल प्रेम्णालक्ष्मण: प्रतिहारताम ततो अभवत प्रतिहार वंशो राम समुव: तदुंदभशे सबशी वशीकृत रिपु: श्री वत्स राजोड भवत। अर्थात लक्ष्मण ने प्रेमपूर्वक उनके प्रतिहारी का कार्य किया, अनन्तर श्री राम से प्रतिहार वंश की उत्पत्ति हुई।उस प्रतिहार वंश में वत्सराज हुआ। (7) 6 वी से 10 वी शतब्दी के गुर्जर शिलालेखो पर सुर्यदेव की कलाकर्तीया भी इनके सुर्यवन्शी होने की पुष्टि करती है। प्राचीन इतिहास में गुर्जर का अर्थ इस महान जाति ने मूल रूप से अपना नाम 'गुरुतार' शब्द से लिया है जैसे कि( पं। छोट लाल शर्मा) (प्रसिद्ध पुरातात्विक और इतिहासकार)। वाल्मीकि द्वारा रामायण में 'महाराजा दशरथ' को 'गुरुदार' कहा जाता था। इसका मतलब है "एक बहुत उच्च श्रेणी राजा" .जिसे गुरुजन में बदल दिया गया था और बाद में गुर्जर में बदल दिया गया था। गुर्जर भारत में सबसे प्राचीन जातियों में से एक हैं ।


बनारस के एक प्रसिद्ध संस्कृत पंडित पंडित वासुदेव प्रसाद ने प्राचीन संस्कृत साहित्य के माध्यम से साबित किया है कि शब्द "गुज्जर या गुर्जर " प्राचीन के नामों के बाद बोली जाने वाली थी, क्षत्रिय अन्य संस्कृत विद्वान राधाकांत का मानना ​​है कि गुज्जर शब्द क्षत्रिय के लिए थे। वैज्ञानिक साक्ष्य ने साबित कर दिया है कि गुज्जर आर्यों से संबंधित है राणा अली हुसैन लिखते हैं कि गुज्जर शब्द गुर्जर या गरजर शब्द से लिया गया है, जिसका प्रयोग रामायण में महर्षि वाल्मीकि द्वारा किया गया है। वाल्मीकि ने रामायण में लिखा है, "गतो दशरत स्वर्ग्यो गार्तारो" - जिसका अर्थ है राजा दशरत जो हमारे बीच क्षत्रिय थे, स्वर्ग के लिए चले गए इस महान जाति ने मूल रूप से अपना नाम 'गुरुतार' शब्द से लिया है जैसे कि पं। छोट लाल शर्मा (प्रसिद्ध पुरातात्विक और इतिहासकार)। वाल्मीकि द्वारा रामायण में 'महाराजा दशरथ' को 'गुरुदार' कहा जाता था। इसका मतलब है "एक बहुत उच्च श्रेणी राजा" .जिसे गुरुजन में बदल दिया गया था और बाद में गुर्जर में बदल दिया गया था। गुर्जर भारत में सबसे प्राचीन जातियों में से एक हैं बनारस के एक प्रसिद्ध संस्कृत पंडित पंडित वासुदेव प्रसाद ने प्राचीन संस्कृत साहित्य के माध्यम से साबित किया है कि शब्द "गुज्जर" प्राचीन के नामों के बाद बोली जाने वाली थी, क्षत्रिय अन्य संस्कृत विद्वान राधाकांत का मानना ​​है कि गुज्जर शब्द क्षत्रिय के लिए थे। वैज्ञानिक साक्ष्य ने साबित कर दिया है कि गुज्जर आर्यों से संबंधित है राणा अली हुसैन लिखते हैं कि गुज्जर शब्द गुर्जर या गरजर शब्द से लिया गया है, जिसका प्रयोग रामायण में महर्षि वाल्मीकि द्वारा किया गया है। वाल्मीकि ने रामायण में लिखा है, "गतो दशरत स्वर्ग्यो गार्तारो" - जिसका अर्थ है राजा दशरत जो हमारे बीच क्षत्रिय थे, स्वर्ग के लिए चले गए।


आर.डी. बनर्जी क्या कहते हैं ?


प्रतिहार , परमार , चालुक्य ,चौहान , तंवर , गहलौत आदि वंशों को पूर्ण गुर्जर तथा गहरवार , चंदेल आदि वंशों को ( गुर्जर पिता व अन्य जातियों की माताओं से उत्पन्न ) अर्द्ध गुर्जर मानने वाले प्रसिद्ध इतिहासकार श्री आर.डी. बनर्जी ने अपनी पुस्तक ‘प्रीहिस्ट्रीक, एनशिएंट एंड हिंदू इंडिया’ के ‘दी ओरिजिन ऑफ दी राजपूतस एंड द राइज ऑफ़ जी गुर्जर एंपायर’ – नामक अध्याय में गुर्जर प्रतिहार सम्राटों द्वारा देश व धर्म की रक्षा में अरब आक्रमण के विरुद्ध किए गए संघर्षों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि ‘गुर्जर प्रतिहारों ने जो नवीन हिंदुओं अर्थात राजपूतों के नेता थे , उत्तर भारत को मुसलमानों द्वारा विजय करके बर्बाद किए जाने से बचाया तथा इसी प्रकार सारी जनसंख्या को मुसलमान बनने से बचा लिया।’

इस टिप्पणी में डॉ आर.डी. बनर्जी द्वारा जो कुछ कहा गया है उसमें दो बातों पर विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है – एक तो वह कहते हैं कि राजपूत नवीन हिंदू थे और उनके नेता गुर्जर थे । दूसरे वह हमें यह भी बताते हैं कि गुर्जरों के शौर्य और पराक्रम के कारण इस्लाम के आक्रांता उत्तर भारत में अपनी योजना में सफल नहीं हो पाए । जिसका परिणाम यह निकला कि उत्तर भारत की जनसंख्या मुसलमान होने से बच गई । जहाँ तक उनके द्वारा राजपूतों को ‘नवीन हिन्दू’ कहे जाने की बात है तो इससे राजपूतों के प्राचीन होने का भ्रम समाप्त हो जाता है और यह बात फिर पुष्ट हो जाती है कि मध्यकाल में राजपूत हमारे सभी क्षत्रिय वर्ण के लोगों का एक प्रतिनिधि शब्द बन गया था। जबकि उत्तर भारत का इस्लामीकरण न होने देने में गुर्जर शासकों के महत्वपूर्ण योगदान को श्री बनर्जी द्वारा स्पष्ट किए जाने से गुर्जर शासकों की वीरता , शौर्य और पराक्रम का हमें पता चलता है । साथ ही साथ गुर्जरों के इस महान कार्य से उनकी देशभक्ति और संस्कृति के प्रति समर्पण का भाव भी स्पष्ट होता है । जिसके चलते इस्लामिक आक्रमणकारी भारतवर्ष में भारतीय लोगों के इस्लामीकरण करने की अपनी योजना को क्रियान्वित नहीं कर सके। सचमुच गुर्जर शासकों का यह कार्य बहुत बड़ा है । जिसके लिए भारत की आने वाली पीढ़ियां भी उनकी ऋणी रहेंगी।


डॉक्टर एल. मुखर्जी की मान्यता


डॉ. एल. मुखर्जी ने ‘भारत के इतिहास’ में लिखा है कि ”गुर्जर प्रतिहार वंश भारत का अंतिम साम्राज्यवादी हिंदू राज्य वंश था , जिसने अरब आक्रान्ताओं का डटकर मुकाबला किया और अपने जीते जी उन्हें भारत में घुसने नहीं दिया।”

डॉ. मुखर्जी की इस टिप्पणी में गुर्जरों को साम्राज्यवादी कहा गया है। यद्यपि हम गुर्जरों को साम्राज्यवादी नहीं मानते । क्योंकि गुर्जर यदि अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहे थे तो वह अपने आर्य पूर्वजों के द्वारा शासित की गई उस भूमि को ही लेने का प्रयास कर रहे थे जो विदेशी आक्रमणकारियों ने किसी समय विशेष पर भारत से जबरन हथिया ली थी या किसी भी कारण से वह भूमि अब भारत के आर्य शासकों के अधीन न रहकर पराधीन हो गई थी। साम्राज्यवादी शासक वह होता है जो दूसरे देश पर इस उद्देश्य से आक्रमण करता है कि वह उसे लूटेगा और वहां के निवासियों के साथ अत्याचार करते हुए उनके धन को हड़पेगा , साथ ही उनकी महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करेगा , बच्चों तथा वृद्धों का वध करेगा और उस देश पर फिर बलात अपना अधिकार कर शासन भी करेगा। भारत के किसी भी हिंदू शासक के भीतर यह दुर्गुण नहीं रहा कि वह साम्राज्यवाद की इस परिभाषा के अनुसार संसार के किसी भी क्षेत्र पर अपना अधिकार करने का प्रयास करता । इसी परम्परा को भारत ने उस समय भी निभाने का प्रयास किया जिस समय उसका विश्व साम्राज्य सिमटना आरम्भ हो गया था।

हमारी दृष्टि में साम्राज्यवादी शासक वह भी होता है जिसका आक्रमित राज्य के लोग स्वाभाविक रूप से विरोध करते हैं अर्थात जिसे आक्रमित राज्य के निवासी अपना शासक नहीं मानते । जबकि गुर्जर शासक यदि कहीं भी अपना साम्राज्य विस्तार कर रहे थे तो स्थानीय लोग उनका स्वागत इसलिए कर रहे थे कि वह मुस्लिम आक्रमणकारियों के अत्याचारों से दु:खी थे । वह नहीं चाहते थे कि उनकी पवित्र भूमि पर एक ऐसा विदेशी शासक आकर शासन करे जो उनसे साम्प्रदायिक विद्वेष रखता हो और साम्प्रदायिक आधार पर उन्हें अपनी तलवार की प्यास बुझाने का माध्यम मानवता हो । भारत के लोगों ने इस्लामिक आक्रमणकारियों से पूर्व कभी साम्प्रदायिकता को किसी शासक के द्वारा उसकी नंगी तलवार से होते जनसंहार के रूप में देखा नहीं था । इसलिए वह ऐसे ही शासक की कामना करते थे जो उनसे पुत्रवत स्नेह करता हो । स्पष्ट है कि जन अपेक्षाओं का सम्मान करते हुए यदि हमारे गुर्जर शासक या उनके पूर्ववर्ती कोई भी शासक ईरान तक शासन करते हुए गए तो वहाँ की हिंदू जनता ने उनका यह सोच कर अभिनंदन किया कि वह उनके दु:खों के हरण करने वाले के रूप में आ रहे हैं ।

आज यदि उस क्षेत्र पर रहने वाले लोगों का पूर्ण इस्लामीकरण हो गया है और उस समय के लोगों की ‘आह’ इतिहास के कूड़ेदान में दबकर रह गई है तो भी हमें वस्तुस्थिति को समझकर उस पर चिंतन , मनन ,लेखन करने की आवश्यकता है ।तभी हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि हमारे गुर्जर शासक साम्राज्यवादी थे या लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ने वाले न्यायप्रिय शासक थे ?

इसके उपरान्त भी डॉक्टर मुखर्जी की इस बात को बहुत ही अधिक प्रमुखता मिलनी चाहिए कि गुर्जर शासकों के कारण अरब आक्रान्ताओं को भारत में प्रवेश करने का अवसर उपलब्ध नहीं हो पाया । गुर्जर शासकों के रहते हुए अरब आक्रान्ता निराश हुए ।


डॉक्टर आर. के. सिन्हा व डॉक्टर राय का मत


डॉक्टर आर.के. सिन्हा व डॉ. राय ने अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ में स्वीकार किया है कि अब गुर्जरों की ऐतिहासिक महानता स्वयं उनके अपने शिलालेखों के आधार पर स्थापित हो गई है । गुर्जर प्रतिहारों द्वारा अरब आक्रांताओं के विरुद्ध देश – धर्म की रक्षा में निरन्तर 250 वर्ष तक लड़े गए सफल युद्धों का उल्लेख करके उसी पुस्तक में डॉक्टर सिन्हा व डॉक्टर राय ने आगे लिखा है कि गुर्जर प्रतिहार सम्राट शक्तिशाली अरब आक्रमणकारियों को 250 वर्ष तक के निरन्तर युद्ध में पराजित करने में सफल न होते तो प्राचीन भारतीय संस्कृति मिट जाती अर्थात मिश्र तथा बेबीलोन आदि की प्राचीन संस्कृतियों की भांति भारत की संस्कृति भी मृतप्राय हो जाती।’

निश्चय ही डॉक्टर सिन्हा व डॉक्टर राय की उपरोक्त सम्मति भी गुर्जर प्रतिहार शासकों की महानता और उनकी देशभक्ति को ही इंगित करती है। सचमुच किसी देश के इतिहास में 250 वर्ष का कालखंड बहुत बड़ा होता है। विशेष रुप से तब जब विदेशी आक्रमणकारी निरन्तर किसी देश को और उस देश की संस्कृति को मिटाने के लिए पल-पल संघर्ष करते रहे हों या प्रयास करते रहे हों । ऐसे में अपने आपको पल-पल देशहित के लिए समर्पित किये रखना भी किसी जाति या शासक वर्ग के लिए बहुत बड़ी बात होती है । इस दृष्टिकोण से गुर्जर प्रतिहार शासकों का भारतीय संस्कृति , सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और धर्म को बचाए रखने में योगदान निश्चय ही अतुलनीय है।


डॉ. ए.सी. बनर्जी का मत


डॉ. ए.सी. बनर्जी ने अपनी ‘हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ नामक पुस्तक में अरब आक्रमणकारियों के भारत विजय करने में असफल रहने का कारण बताते हुए लिखा है कि- ‘निरन्तर आक्रमणों के बावजूद अरब लोग भारत में विजय करने में इसलिए असफल रहे कि गुर्जर प्रतिहार राजपूत उनसे अत्यधिक शक्तिशाली थे।’

वास्तव में यह सत्य है कि सत्य तभी जीतता है जब उसके पीछे शक्ति होती है । यही कारण है कि वीर सावरकर जी जहां ‘सत्यमेव जयते’ को सही मानते थे वहीं ‘शस्त्रमेव जयते’ की बात भी करते थे । गांधीजी की कांग्रेस को ‘सत्यमेव जयते’ का नारा देने वाले पंडित मदनमोहन मालवीय थे जो हिंदू महासभा के नेता थे , परंतु हिंदू महासभा के नेता वीर सावरकर ने ही गांधीजी और उनके साथियों को इस बात के लिए भी प्रेरित किया कि ‘सत्यमेव जयते’ तभी सफल होगा जब ‘शस्त्रमेव जयते’ की परम्परा में विश्वास रखोगे । यह सौभाग्य की बात है कि हम जिस गुर्जर प्रतिहार वंश के शासन काल के बारे में इस समय चर्चा कर रहे हैं उस समय हमारे राष्ट्रीय नेता अर्थात प्रतिहार वंश के शासक ‘सत्यमेव जयते’ के लिए ‘शस्त्रमेव जयते’ को आवश्यक मान रहे थे और उसी के अनुसार अपने राष्ट्र धर्म का निर्वाह कर रहे थे। यही कारण रहा कि उन्होंने जहां देश की एकता और अखंडता को बचाए रखने में सफलता प्राप्त की , वहीं विदेशी आक्रमणकारियों को देश की सीमाओं से बाहर ही रोक दिया । उन्हें भारत की सीमाओं में प्रवेश करने का साहस नहीं हुआ।

डॉक्टर के.एम. पणिक्कर की मान्यता


डॉक्टर के.एम. पणिक्कर ने अपने ‘भारत का इतिहास’ में अरब आक्रमणकारियों के विरुद्ध गुर्जर प्रतिहारों के संघर्ष का उल्लेख करते हुए लिखा है कि गुर्जर प्रतिहारों ने अरब आक्रमणकारियों के समय देश का नेतृत्व संभालकर अरब आक्रमणकारियों से उसके धर्म व संस्कृति की रक्षा का जो कार्य किया उसके लिए भी राष्ट्र की ओर से वे धन्यवाद के पात्र हैं।’

यदि गुर्जर प्रतिहार वंश के शासक उस समय अपने इस राष्ट्रधर्म का निर्वहन नहीं करते तो यह निश्चित रूप से जाना जा सकता है कि आज का भारत हमें कहीं मानचित्र में दिखाई नहीं देता । इसके कितने टुकड़े होते और इसका क्या नाम होता ? – इसकी अब कल्पना भी नहीं की जा सकती । क्योंकि इस्लाम अपनी जिस सोच के आधार पर बढ़ता रहा है उसका अन्तिम परिणाम देशों का विभाजन कर वहाँ पर अपनी शरीयत को लागू करना ही रहा है । आज विश्व भर में जितने भी इस्लामिक देश हैं उन सबके मूल में वहाँ की हँसती खेलती सभ्यता को उजाड़ने का खूनी खेल दिखाई देता है । इस खूनी खेल को भारत में हम केवल गुर्जर प्रतिहार वंश की गौरवपूर्ण उपस्थिति के कारण ही रोकने में सफल हुए थे।


डॉक्टर सत्यकेतु विद्यालंकार का मत


डॉक्टर सत्यकेतु विद्यालंकार ने अपनी पुस्तक ‘भारतवर्ष का इतिहास’ में अरब आक्रमणकारियों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि ‘अरबों के प्रसार को रोकने के लिए गुर्जर सेनाओं की अजेय दीवार खड़ी

थी।’

इस पर हम आगे स्थाई स्थान प्रकाश डालेंगे कि किस प्रकार गुर्जर प्रतिहार वंश के महान प्रतापी शासक गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के पास 36 लाख की सेना थी । जिसका इस्लामिक जगत में बहुत भारी आतंक था । सम्राट मिहिर भोज और उसकी सेना से घबराकर अरब के बड़े-बड़े लुटेरे और डाकू स्वभाव के नेता भारत की ओर कदम रखने से भी घबराते थे।


डॉ रतीभान सिंह नागर का मत


डॉ रतीभान सिंह नागर ने गुर्जर जाति को राजपूतों की उच्च शाखा तथा प्रतिहार व चालूक्य आदि वंशों को उसके उप शाखाएं माना है । उन्होंने ‘हिंदू रतन’ नामक अपनी पुस्तक में लिखा है कि ‘गुर्जरों ने और अरब आक्रमणकारियों के प्रसार को रोककर वस्तुतः देश के प्रतिहारी अर्थात द्वार रक्षक का कार्य किया था।’


गुर्जर वंश का गौरवशाली इतिहास :


राणा अली हसन चौहान क्या कहते हैं ?


शुक्राचार्य नाम का एक आचार्य था उसकी शिक्षाएं अपवित्र घोषित हो गई थीं। उसके शिष्य असुर कहलाते थे और उसे असुर गुरू कहते थे। वह महान ऋषि भृगु का पुत्र था। उसकी पुत्री प्रसिद्ध राजा ययाति से ब्याही गई थी। उसी का पुत्र यदु था जिसकी संतानें आज तक हैं और यादव कहलाती हैं। इसी वंश में श्रीकृष्ण पैदा हुए। एक त्रास दस्यु था जो ऋषि सोमार का ससुर था।

रामायण काल में श्री रामचंद्र, लक्ष्मण प्रतिहार, भरत व शत्रुघ्न रघु के वंशज दशरथ के पुत्र थे यह सब आर्य थे।

संस्कृत तथा यूरोपीय भाषाओं के सामान्य स्रोत या उद्गम की खोज की दौड़ १७८४ ईस्वी में शुरू हुई। आर्यावर्त को आर्यों की मूल मातृभूमि तथा संस्कृत को उनकी भाषा सिद्ध करने के लिए बहुत पुराना तथा विशाल संस्कृत साहित्य है। परन्तु योरोप के लोगों ने भाषा शास्त्र, ऐतिहासिक तथ्यों तथा वास्तविकताओं को बहुत तोड़ा मरोड़ा है। आर्यों को इस उपमहाद्वीप से बाहर का साबित करने के लिए विभिन्न मत प्रतिपादित किए गए परन्तु उनके द्वारा इस विषय में दिए गए तर्क आर्यावर्त को आर्यों का मूलस्थान सिद्ध करने में ही प्रयुक्त हो सकते हैं।

– महाभारत में प्राग्ज्योतिष पुर आसाम, किंपुरुष नेपाल, हरिवर्ष तिब्बत, कश्मीर, अभिसार राजौरी, दार्द, हूण हुंजा, अम्बिस्ट आम्ब, पख्तू, कैकेय, गन्धार, कम्बोज, वाल्हीक बलख, शिवि शिवस्थान-सीस्टान-सारा बलूच क्षेत्र, सिंध, सौवीर सौराष्ट्र समेत सिंध का निचला क्षेत्र दण्डक महाराष्ट्र सुरभिपट्टन मैसूर, चोल, आन्ध्र, कलिंग तथा सिंहल सहित लगभग दो सौ जनपद महाभारत में वर्णित हैं जो कि पूर्णतया आर्य थे या आर्य संस्कृति व भाषा से प्रभावित थे। इनमें से आभीर अहीर, तंवर, कंबोज, यवन, शिना, काक, पणि, चुलूक चालुक्य, सरोस्ट सरोटे, कक्कड़, खोखर, चिन्धा चिन्धड़, समेरा, कोकन, जांगल, शक, पुण्ड्र, ओड्र, मालव, क्षुद्रक, योधेय जोहिया, शूर, तक्षक व लोहड़ आदि आर्य खापें विशेष उल्लेखनीय हैं।


। गुर्जर प्रतिहार का एक जमाने में पूरे देश में एकक्षत्र राज्य था। इस जाति के एक प्रतापी नरेश राजा मिहिरभोज ने ईस्वी सन् 836 से 888 तक कन्नौज में राज किया था। उनके राज्य की सीमाएं पश्चिम में गांधार और काबुल से लेकर पूरब में बर्मा तक फैली थीं। अलीहसन साहब लिखते हैं कि पृथ्वीराज चौहान जैसे वीर गुजर शासकों के पतन के बाद राजपूताने में जो शासक बैठे वे गुर्जर नरेशों की ही संतानें थीं लेकिन उन्होंने चूंकि मुगल व उनके पहले आए तुर्कों न गुर्जरों को उपेक्षित कर रखा था इसलिए उन्होंने खुद को राजपूत कहना शुरू किया यानी राजाओं के पुत्र। बाद में 19वीं सदी में जब अंग्रेजों ने वीरगुर्जरों के विद्रोहों से आजिज आकर उन्हें जरायमपेशा घोषित कर दिया तो राजपूतों ने उनसे अलग दिखने के लिए कर्नल टॉड जैसे मुंशी का सहारा लिया और उसे रिश्वत देकर अपना एक अलग इतिहास लिखाया जिसमें राजपूतों को एक अलग जाति करार दिया गया।


कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी जी क्या कहते हैं ?


कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी गुजरात प्रांत के एक ब्राह्मण लेखक हुए हैं । जो स्वयं स्वतंत्रता सेनानी भी रहे और भारतीय संस्कृति एवं इतिहास पर उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखीं । उन्होंने अपने जीवन में अनुभव किया कि गुर्जरों के बारे में इतिहासकार श्री ओझा , वैद्य और गांगुली की इस मान्यता को निराधार और अनुसार माना कि गुर्जर राजपूत थे। उन्होंने यह स्वीकार किया कि राजपूत जाति का मुस्लिम शासन काल से पूर्व कोई अस्तित्व नहीं मिलता । मुस्लिम काल के पूर्व राजपूत जाति का अस्तित्व ना मिलने के कारण उनको ब्रिटिश इतिहासकारों और उनका अनुसरण करने वाले कुछ भारतीय इतिहासकारों ने गलत ढंग से विदेशी लिखा । उन्हें इतिहासकारों की यह मान्यता भी पूर्णतया निराधार ही प्रतीत हुई कि गुर्जरों आदि विदेशियों को आबू के हवन यज्ञ द्वारा शुद्ध करके राजपूत बनाया गया था तथा उसी समय अर्थात आठवीं शताब्दी के प्रारंभ में राजपूत जाति बन गई थी। श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी का यह विचार था कि यदि गुर्जर विदेशी थे और उनके प्रतिहार , परमार , चालुक्य , चौहान आदि वंश शुद्ध करके राजपूत बना लिए गए थे तो उसके पश्चात भी वे वंश शिलालेखों आदि में स्वयं को गुर्जर क्यों लिखवाते रहे ? कहीं भी उन्होंने अपने आप को राजपूत क्यों नहीं लिखवाया ?।

गुर्जरों का विदेशी होना श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी की राष्ट्रीय भावनाओं के लिए एक प्रकार का कुठाराघात ही था । क्योंकि उसका ऐसा अर्थ निकालने से विदेशी शासकों के इस काल्पनिक मत की ही पुष्टि होती कि भारतीय सदा विदेशियों द्वारा ही शासित रहे हैं।

वर्तमान गुर्जरों के बारे में खोज करने पर श्री मुंशी ने पाया कि कश्मीर , पेशावर , पंजाब , हिमाचल , उत्तर प्रदेश , मध्य प्रदेश , राजस्थान , गुजरात तथा दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश तक फैले हुए गुर्जर सुंदर , सुडौल , बलिष्ठ आर्य आकृति वाले हैं और उन दूरस्थ प्रदेशों में रहते हुए उनकी वेशभूषा , भाषा , रीति – रिवाज एक जैसे हैं । इतना ही नहीं वह हर स्थान पर अपनी गुर्जरी भाषा अर्थात प्राचीन गुर्जरी अपभ्रंश के ही कुछ बदले हुए रूपों को आज भी बोलते हुए अपनाते हैं । जो वर्तमान पश्चिमी राजस्थान की भाषा है । उनका यह भी मत था कि गुर्जरों के लोकगीत आज भी राजस्थान में गुजरात के लोकगीतों जैसे ही हैं । गुर्जरों की यह गुर्जरी भाषा जिसको मध्ययुगीन साहित्य में गुर्जरी अपभ्रंश कहा गया था निश्चय ही आर्य भाषा है । श्री मुंशी के खोज वृत्तांत का सारांश है कि उन्होंने कश्मीर से आंध्र तक के दूरस्थ क्षेत्रों में रहने वाले गुर्जरों की वेशभूषा को राजस्थान में गुजरात से संबंधित बताते हुए गुर्जर महिलाओं को राजस्थानी घाघरा लहंगा पहने देखा था । उन्होंने वर्तमान राजस्थान के राजपूतों के साथ ही गुर्जरों का तुलनात्मक अध्ययन करके दोनों में काफी समानता पाई । श्री मुंशी ने अपने लेखन के माध्यम से गुर्जरों के विदेशी होने की उत्पत्ति के सिद्धांत का खंडन किया। उनके प्रतिहार , परमार , चालुक्य , चौहान आदि वंशों की विदेशी उत्पत्ति का भी खंडन किया और उसी आधार पर राजपूतों की विदेशी उत्पत्ति का भी खंडन किया।


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11 वीं शताब्दी के कवि धनपाल जैन की तिलकमंजरी पुस्तक में भोज परमार गुर्जर राजवंश के प्रमाण वासिष्ठस्म कृतस्मयो वरशतैरस्त्यग्निकुण्डोद्भवो ।भूपालः परमार इत्यभिधया ख्यातो महीमण्डले ॥अद्याप्युद्गतहर्षगद्गदगिरो गायन्ति यस्यार्बुदे ।विश्वामित्रजयोज्झितस्य भुजयोर्विस्फूजितं गुर्जराः ॥३ (हिंदी में अनुवाद) राजा भोज का वश पर वसिष्ठ की स्त्री अरुन्धती रोने लगी ।उसकी ऐसी अवस्था को देख मुनि को क्रोध चढ़ गया और उसने अथर्व मंत्र पढ़ कर आहुति के द्वारा अपने अग्निकुंड से एक वीर उत्पन्न किया ।वह वीर शत्रुओं का नाशकर वसिष्ठ की गाय को वापिस ले आया ।इससे प्रसन्न होकर मुनि ने उसका नाम परमार रखा और उसे एक छत्र देकर राजा बना दिया ।धनपाल ' नामक कवि ने वि० सं० १०७० ( ई० स० १०१३ ) के करीब राजा भोज की आज्ञा से तिलकमञ्जरी नामक गद्य काव्य लिखा था ।उसमें लिखा है : आबू पर्वत पर के गुर्जर लोग , वसिष्ठ के अग्निकुंड से उत्पन्न हुए और विश्वामित्र को जीतनेवाले , परमार नामक नरेश के प्रताप को अब तक भी स्मरण किया करते हैं ।गिरवर ( सिरोही राज्य ) के पाट नारायण के मन्दिर के वि० सं० १३४४ ( ई० सं० १९८७ ) के लेख में इस वंश के मूल पुरुष का नाम उत्पन्न होने के स्थान पर वसिष्ठ की नन्दिनी गाय के हुकार से पल्हव , शक , यवन , आदि म्लेच्छों काउत्पन्न होना लिखा है : तस्या हुंभारवोत्कृष्टाः पल्हवाः शतशो नृप ॥१८ ॥भूय एवासृजद्घोराच्छकाम्यवनमिश्रितान्।


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गुर्जर जाति के क्षत्रिय होने के प्रमाण. ( इ ) पं . वासुदेव प्रसाद शास्त्री : - पं . वासुदेव शास्त्री जी ने गुर्जर शब्द को जातिवाचक स्वीकार करते हुए लिखा है - ' किचं यथा . . . . . . . . . . . . . . . क्षत्रियपि गुर्जरा। गुर्जराणां क्षत्रियाणामभावे गुर्जराख्यो जनपदः कथंस्थात । द्रश्यन्ते हि वंगा अंगा कलिंगादयो जनपदाः क्षत्रिया ख्यैव प्रसिद्धिगताः । स्पष्टं चेदं जनपद शब्दाक्षत्रियादभित्यादि पाणिनी सूत्रः गुर्जर व्याख्या च क्षत्रिये स्वैव मुख्याभवति ब्रह्मणादिषुतु देश सम्बन्धाज्जायते । । तथाहि गुरी उद्यमने इति धातोः सम्पदादित्वाद्भावे विकल्प गुरं शत्रु कलंक शत्रोद्यमनेजरयति नाशयति इति गुर्जराः शब्द कल्यं दूमेऽयेतादर्श व्युत्पत्ति।


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शारीरिक विशिष्टता-गुर्जर जाति की शारीरिक विशेषता की बात करें, तो लम्बा कद,

लम्बोतरा सिर, चौड़ा ललाट, सुडौल बदन, पैनी लम्बी नाक और गेंहुआ रंग के आधार पर

नृवंश विज्ञान और भाषा विज्ञान के विद्वानों ने गुर्जर जाति को विशुद्ध आर्य रक्त से उत्पन्न माना है।

प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता सर हर्बर्ट रिज्ले ने सन् 1901 में प्रकाशित Anthropological Report

जिसे सम्पूर्ण भारतीय जातियों की नस्ल परीक्षा करके तैयार किया गया था, इसमें गुर्जर जाति को

सर्वश्रेष्ठ आर्य नस्ल का सिद्ध किया है। गुर्जरों की नाक का इण्डेक्स 66.8 पाया गया था, जो

भारत के किसी भी अन्य जाति का नहीं था। इससे यह पूरी तरह सिद्ध है कि गुर्जर लोग विशुद्ध

आर्य हैं। उनमें किसी अनार्य जाति या नस्ल का मिश्रण नहीं है। कृपया अधिक से अधिक शेयर करें I

सौजन्य से

जंडेल सिंह गुर्जर बैंसला

ग्वालियर मध्यप्रदेश

गुर्जर प्रतिहार

  नीलकुण्ड, राधनपुर, देवली तथा करडाह शिलालेख में प्रतिहारों को गुर्जर कहा गया है । राजौरगढ शिलालेख" में वर्णित "गुर्जारा प्रतिहार...