Brajadulal Chattopadhyay 1994; page number 60-
प्रारंभिक मध्ययुगीन साहित्य बताता है कि इस नवगठित राजपूत में कई जातियों के लोग शामिल थे।
भारतीय तथा यूरोपीय विद्वानों ने इस ऐतिहासिक तथ्य का पूर्णतः पता लगा लिया है कि जिस काल में इस जाति का भारत के राजनैतिक क्षेत्र में पदार्पण हुआ था,उस काल में यह एक नवागन्तुक जाति समझती जाती थी।
बंगाल के अद्वितीय विद्वान स्वर्गीय श्री रमेशचंद्र दत्त महोदय अपने Civilization in Ancient India नामक प्रसिद्ध ग्रंथ के भाग-२ , प्रष्ठ १६४ में लिखते है-
आठवीं शताब्दी के पूर्व राजपूत जाति हिंदू आर्य नहीं समझी जाती थी।देश के साहित्य तथा विदेशी पर्यटकों के भृमण वृत्तान्तों में उनके नाम का उल्लेख हम लोगों को नहीं मिलता और न उनकी किसी पूर्व संस्कृति के चिन्ह देखने में आते हैं।डॉक्टर एच० एच० विल्सन् ने यह निर्णय किया है कि ये(राजपूत)उन शक आदि विदेशियों के वंशधर है जो विक्रमादित्य से पहले,सदियों तक भारत में झुंड के झुंड आये थे।
विदेशी जातियां शीघ्र ही हिंदू बन गयी।वे जातियाँ अथवा कुटुम्ब जो शासक पद को प्राप्त करने में सफल हुए हिंदुओं की राज्यशासन पद्धति में क्षत्रिय बनकर तुरन्त प्रवेश कर गए।इसमें कोई संदेह नहीं कि उत्तर के परिहार तथा अनेक अन्य राजपूत जातियों का विकास उन बर्बर विदेशियों से हुआ है, जिनकी बाढ़ पाँचवीं तथा छठी शताब्दीयों में भारत में आई थी।
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