Saturday, 22 October 2016

कर्नल जेम्स टोड द्वारा गुर्जर शिलालेखो का विवरण | Inscription of Gurjar History by Rajput Historian James Tod

कर्नल जेम्स टोड द्वारा गुर्जर शिलालेखो का विवरण | Inscription of Gurjar History by Rajput Historian James Tod

कर्नल जेम्स टोड द्वारा गुर्जर शिलालेखो का विवरण | INSCRIPTION OF GURJAR HISTORY BY RAJPUT HISTORIAN JAMES TOD 


• कर्नल जेम्स टोड कहते है कि राजपूताना कहलाने वाले इस विशाल रेतीले प्रदेश अर्थात राजस्थान में, पुराने जमाने में राजपूत जाति का कोई चिन्ह नहीं मिलता परंतु मुझे सिंह समान गर्जने वाले गुर्जरों के शिलालेख मिलते हैं।

• प्राचीन काल से राजस्थान व गुजरात का नाम गुर्जरात्रा (गुर्जरदेश, गुर्जराष्ट्र) था जो अंग्रेजी शासन मे गुर्जरदेश से बदलकर राजपूताना रखा गया।


पं बालकृष्ण गौड द्वारा गुर्जर शिलालेखो का विवरण | Description of Gurjar inscription by Pandit Balkrishna God

पं बालकृष्ण गौड द्वारा गुर्जर शिलालेखो का विवरण | Description of Gurjar inscription by Pandit Balkrishna God

पं बालकृष्ण गौड द्वारा गुर्जर शिलालेखो का विवरण


पं बालकृष्ण गौड लिखते है कि जिसको कहते है रजपूति इतिहास
तेरहवीं सदी से पहले इसकी कही जिक्र तक नही है और कोई एक भी ऐसा शिलालेख दिखादो जिसमे रजपूत शब्द का नाम तक भी लिखा हो। लेकिन गुर्जर शब्द की भरमार है, अनेक शिलालेख तामपत्र है, अपार लेख है, काव्य, साहित्य, भग्न खन्डहरो मे गुर्जर संसकृति के सार गुंजते है ।अत: गुर्जर इतिहास को राजपूत इतिहास बनाने की ढेरो सफल-नाकाम कोशिशे कि गई।
पं बालकृष्ण गौड द्वारा गुर्जर शिलालेखो का विवरण | Description of Gurjar inscription by Pandit Balkrishna God 




• कर्नल जेम्स टोड कहते है कि राजपूताना कहलाने वाले इस विशाल रेतीले प्रदेश अर्थात राजस्थान में, पुराने जमाने में राजपूत जाति का कोई चिन्ह नहीं मिलता परंतु मुझे सिंह समान गर्जने वाले गुर्जरों के शिलालेख मिलते हैं।

• प्राचीन काल से राजस्थान व गुर्जरात का नाम गुर्जरात्रा (गुर्जरदेश, गुर्जराष्ट्र) था जो अंग्रेजी शासन मे गुर्जरदेश से बदलकर राजपूताना रखा गया ।

• कविवर बालकृष्ण शर्मा लिखते है :

चौहान पृथ्वीराज तुम क्यो सो गए बेखबर होकर ।
घर के जयचंदो के सर काट लेते सब्र खोकर ॥
माँ भारती के भाल पर ना दासता का दाग होता ।
संतति चौहान, गुर्जर ना छूपते यूँ मायूस होकर ॥

गुर्जर सम्राट मिहिरकुल हूण | Gurjar Samrat Mihirkul hoon - The Great Emperor of Indian History

गुर्जर सम्राट मिहिरकुल हूण | Gurjar Samrat Mihirkul hoon - The Great Emperor of Indian History



गुर्जर सम्राट मिहिरकुल हूण  - गुर्जर हूण साम्राज्य के सबसे प्रतापी सम्राट

Gurjar Samrat | Gurjar Hoon Empire | Mihirkul Hoon | Gujjar | Medieval History of India | Huna | Hun | Torman | Shiv Worshiper 


Great Shiv Worshiper - Gurjar Samrat Mihirkul Hoon


मध्य में, ४५० इसवी के लगभग, हूण गांधार इलाके के शासक थे, जब उन्होंने वहा से सारे सिन्धु घाटी प्रदेश को जीत लिया| कुछ समय बाद ही उन्होंने मारवाड और पश्चिमी राजस्थान के इलाके भी जीत लिए| ४९५ इसवी के लगभग हूणों ने तोरमाण के नेतृत्व में गुप्तो से पूर्वी मालवा छीन लिया| एरण, सागर जिले में वराह मूर्ति पर मिले तोरमाण के अभिलेख से इस बात की पुष्टि होती हैं| जैन ग्रन्थ कुवयमाल के अनुसार तोरमाण चंद्रभागा नदी के किनारे स्थित पवैय्या नगरी से भारत पर शासन करता था| यह पवैय्या नगरी ग्वालियर के पास स्थित थी|

तोरमाण के बाद उसका पुत्र मिहिरकुल हूणों का राजा बना| मिहिरकुल तोरमाण के सभी विजय अभियानों हमेशा उसके साथ रहता था| उसके शासन काल के पंद्रहवे वर्ष का एक अभिलेख ग्वालियर एक सूर्य मंदिर से प्राप्त हुआ हैं| इस प्रकार हूणों ने मालवा इलाके में अपनी स्थति मज़बूत कर ली थी| उसने उत्तर भारत की विजय को पूर्ण किया और गुप्तो सी भी नजराना वसूल किया| मिहिरकुल ने पंजाब स्थित स्यालकोट को अपनी राजधानी बनाया|मिहिकुल हूण एक कट्टर शैव था| उसने अपने शासन काल में हजारों शिव मंदिर बनवाये| मंदसोर अभिलेख के अनुसार यशोधर्मन से युद्ध होने से पूर्व उसने भगवान स्थाणु (शिव) के अलावा किसी अन्य के सामने अपना सर नहीं झुकाया था| मिहिरकुल ने ग्वालियर अभिलेख में भी अपने को शिव भक्त कहा हैं| मिहिरकुल के सिक्कों पर जयतु वृष लिखा हैं जिसका अर्थ हैं- जय नंदी| वृष शिव कि सवारी हैं जिसका मिथकीय नाम नंदी हैं|

कास्मोस इन्दिकप्लेस्तेस नामक एक यूनानी ने मिहिरकुल के समय भारत की यात्रा की थी, उसने “क्रिस्टचिँन टोपोग्राफी” नामक अपने ग्रन्थ में लिखा हैं की हूण भारत के उत्तरी पहाड़ी इलाको में रहते हैं, उनका राजा मिहिरकुल एक विशाल घुड़सवार सेना और कम से कम दो हज़ार हाथियों के साथ चलता हैं, वह भारत का स्वामी हैं|मिहिरकुल के लगभग सौ वर्ष बाद चीनी बौद्ध तीर्थ यात्री हेन् सांग ६२९ इसवी में भारत आया , वह अपने ग्रन्थ “सी-यू-की” में लिखता हैं की सैंकडो वर्ष पहले मिहिरकुल नाम का राजा हुआ करता था जो स्यालकोट से भारत पर राज करता था | वह कहता हैं कि मिहिरकुल नैसर्गिक रूप से प्रतिभाशाली और बहादुर था|

हेन् सांग बताता हैं कि मिहिरकुल ने भारत में बौद्ध धर्म को बहुत भारी नुकसान पहुँचाया| वह कहता हैं कि एक बार मिहिरकुल ने बौद्ध भिक्षुओं से बौद्ध धर्म के बारे में जानने कि इच्छा व्यक्त की| परन्तु बौद्ध भिक्षुओं ने उसका अपमान किया, उन्होंने उसके पास, किसी वरिष्ठ बौद्ध भिक्षु को भेजने की जगह एक सेवक को बौद्ध गुरु के रूप में भेज दिया| मिहिरकुल को जब इस बात का पता चला तो वह गुस्से में आग-बबूला हो गया और उसने बौद्ध धर्म के विनाश कि राजाज्ञा जारी कर दी| उसने उत्तर भारत के सभी बौद्ध बौद्ध मठो को तुडवा दिया और भिक्षुओं का कत्ले-आम करा दिया| हेन् सांग कि अनुसार मिहिरकुल ने उत्तर भारत से बौधों का नामो-निशान मिटा दिया|

गांधार क्षेत्र में मिहिरकुल के भाई के विद्रोह के कारण, उत्तर भारत का साम्राज्य उसके हाथ से निकल कर, उसके विद्रोही भाई के हाथ में चला गया| किन्तु वह शीघ्र ही कश्मीर का राजा बन बैठा| कल्हण ने बारहवी शताब्दी में “राजतरंगिणी” नामक ग्रन्थ में कश्मीर का इतिहास लिखा हैं| उसने मिहिरकुल का, एक शक्तिशाली विजेता के रूप में ,चित्रण किया हैं| वह कहता हैं कि मिहिरकुल काल का दूसरा नाम था, वह पहाड से गिरते है हुए हाथी कि चिंघाड से आनंदित होता था| उसके अनुसार मिहिरकुल ने हिमालय से लेकर लंका तक के इलाके जीत लिए थे| उसने कश्मीर में मिहिरपुर नामक नगर बसाया| कल्हण के अनुसार मिहिरकुल ने कश्मीर में श्रीनगर के पास मिहिरेशवर नामक भव्य शिव मंदिर बनवाया था| उसने गांधार इलाके में ७०० ब्राह्मणों को अग्रहार (ग्राम) दान में दिए थे| कल्हण मिहिरकुल हूण को ब्राह्मणों के समर्थक शिव भक्त के रूप में प्रस्तुत करता हैं|


मिहिरकुल ही नहीं वरन सभी हूण शिव भक्त थे| हनोल ,जौनसार –बावर, उत्तराखंड में स्थित महासु देवता (महादेव) का मंदिर हूण स्थापत्य शैली का शानदार नमूना हैं, कहा जाता हैं कि इसे हूण भट ने बनवाया था| यहाँ यह उल्लेखनीय हैं कि भट का अर्थ योद्धा होता हैं |

हर हर महादेव का जय घोष भी हूणों से जुडा प्रतीत होता है क्योकि हूणों कि दक्षिणी शाखा को हारा-हूण कहते थे, संभवत हारा-हूण से ही हारा/हाडा गोत्र कि उत्पत्ति हुई हैं| हाडा लोगों के आधिपत्य के कारण ही कोटा-बूंदी इलाका हाडौती कहलाता हैं राजस्थान का यह हाडौती सम्भाग कभी हूण प्रदेश कहलाता था| आज भी इस इलाके में हूणों गोत्र के गुर्जरों के अनेक गांव हैं| यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रसिद्ध इतिहासकार वी. ए. स्मिथ, विलियम क्रुक आदि ने गुर्जरों को श्वेत हूणों से सम्बंधित माना हैं| इतिहासकार कैम्पबेल और डी. आर. भंडारकर गुर्जरों की उत्त्पत्ति श्वेत हूणों की खज़र शाखा से मानते हैं | बूंदी इलाके में रामेश्वर महादेव, भीमलत और झर महादेव हूणों के बनवाये प्रसिद्ध शिव मंदिर हैं| बिजोलिया, चित्तोरगढ़ के समीप स्थित मैनाल कभी हूण राजा अन्गत्सी की राजधानी थी, जहा हूणों ने तिलस्वा महादेव का मंदिर बनवाया था| यह मंदिर आज भी पर्यटकों और श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करता हैं| कर्नल टाड़ के अनुसार बडोली, कोटा में स्थित सुप्रसिद्ध शिव मंदिर पंवार/परमार वंश के हूणराज ने बनवाया था|

इस प्रकार हम देखते हैं की हूण और उनका नेता मिहिरकुल भारत में बौद्ध धर्म के अवसान और शैव धर्म के विकास से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं|

== Part - 2 ==

स्कंदगुप्त के काल में ही हूणों ने कंबोज और गांधार अर्थात बौद्धों के गढ़ संपूर्ण अफगानिस्तान पर अधिकार करके फिर से हिन्दू राज्य को स्थापित कर दिया था। लगभग 450 ईस्वीं में उन्होंने सिन्धु घाटी क्षेत्र को जीत लिया। कुछ समय बाद ही उन्होंने मारवाड़ और पश्चिमी राजस्थान के इलाके भी जीत लिए। 495 ईस्वीं के लगभग हूणों ने तोरमाण के नेतृत्व में गुप्तों से पूर्वी मालवा छीन लिया। एरण, सागर जिले में वराह मूर्ति पर मिले तोरमाण के अभिलेख से इस बात की पुष्टि होती है। जैन ग्रंथ 'कुवयमाल' के अनुसार तोरमाण चंद्रभागा नदी के किनारे स्थित पवैय्या नगरी से भारत पर शासन करता था।

इतिहासकारों के अनुसार पवैय्या नगरी ग्वालियर के पास स्थित थी। तोरमाण के बाद उसका पुत्र मिहिरकुल हूणों का राजा बना। (मिहिरकुल भारत में एक ऐतिहासिक श्वेत हुण शासक था। ये तोरामन का पुत्र था। तोरामन भारत में हुण शासन खा संस्थापक था। मिहिरकुल 510 ई। में गद्दी पर बैठा। संस्कृत में मिहिरकुल का अर्थ है - 'सूर्य के वंश से', अर्थात सूर्यवंशी।मिहिरकुल का प्रबल विरोधी नायक था यशोधर्मन। कुछ काल के लिए अर्थात् 510 ई। में एरण (तत्कालीन मालवा की एक प्रधान नगरी) के युद्ध के बाद से लेकर लगभग 527 ई। तक, जब उसने मिहिरकुल को गंगा के कछार में भटका कर क़ैद कर लिया था, उसे तोरमाण के बेटे मिहिरकुल को अपना अधिपति मानना पड़ा था। क़ैद करके भी अपनी माँ के कहने पर उसने हूण-सम्राट को छोड़ दिया था।).......... मिहिरकुल तोरमाण के सभी विजय अभियानों में हमेशा उसके साथ रहता था। उसने उत्तर भारत की विजय को पूर्ण किया और बौद्ध धर्मावलंबी गुप्तों से भी कर वसूल करना शुरू कर दिया। तोरमाण के बाद मिहिरकुल ने पंजाब स्थित स्यालकोट को अपनी राजधानी बनाया। मिहिरकुल हूण एक कट्टर शैव था। उसने अपने शासनकाल में हजारों शिव मंदिर बनवाए और बौद्धों के शासन को उखाड़ फेंका। उसने संपूर्ण भारतवर्ष में अपने विजय अभियान चलाए और वह बौद्ध, जैन और शाक्यों के लिए आतंक का पर्याय बन गया था, वहीं विक्रमादित्य और अशोक के बाद मिहिरकुल ही ऐसा शासन था जिसके अधीन संपूर्ण अखंड भारत आ गया था। उसने ढूंढ-ढूंढकर शाक्य मुनियों को भारत से बाहर खदेड़ दिया।

मिहिरकुल इतना कट्टर था कि जिसके बारे में बौद्ध और जैन धर्मग्रंथों में विस्तार से जिक्र मिलता है। वह भगवान शिव के अलावा किसी के सामने अपना सिर नहीं झुकाता था। यहां तक कि कोई हिन्दू संत उसके विचारों के विपरीत चलता तो उसका भी अंजाम वही होता, जो शाक्य मुनियों का हुआ। मिहिरकुल के सिक्कों पर 'जयतु वृष' लिखा है जिसका अर्थ है- जय नंदी। इन्दिकप्लेस्तेस नामक एक यूनानी ने मिहिरकुल के समय भारत की यात्रा की थी। उसने 'क्रिश्चियन टोपोग्राफी' नामक अपने ग्रंथ में लिखा है कि हूण भारत के उत्तरी पहाड़ी इलाकों में रहते हैं, उनका राजा मिहिरकुल एक विशाल घुड़सवार सेना और कम से कम 2 हजार हाथियों के साथ चलता है, वह भारत का स्वामी है।

मिहिरकुल के लगभग 100 वर्ष बाद चीनी बौद्ध तीर्थ यात्री ह्वेनसांग 629 ईस्वी में भारत आया, वह अपने ग्रंथ सी-यू-की में लिखता है कि कई वर्ष पहले मिहिरकुल नाम का राजा हुआ करता था, जो स्यालकोट से भारत पर राज करता था। ह्वेनसांग बताता है कि मिहिरकुल ने भारत में बौद्ध धर्म को बहुत भारी नुकसान पहुंचाया। ह्वेनसांग के अनुसार मिहिरकुल ने भारत से बौद्धों का नामो-निशान मिटा दिया। क्यों? इसके पीछे भी एक कहानी है। वह यह कि बौद्धों के प्रमुख ने मिहिरकुल का घोर अपमान किया था। उसकी क्रूरता के कारण ही जैन और बौद्ध ग्रंथों में उसे कलिराज कहा गया है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने लिखा है कि राजा बालादित्य ने तोरमाण के पुत्र मिहिरकुल को कैद कर लिया था, पर बाद में उसे छोड़ दिया था। यह बालादित्य के लिए नुकसानदायक सिद्ध हुआ।

मिहिरकुल ने हिमालय से लेकर लंका तक के इलाके जीत लिए थे। उसने कश्मीर में मिहिरपुर नामक नगर बसाया। कल्हण के अनुसार मिहिरकुल ने कश्मीर में श्रीनगर के पास मिहिरेश्वर नामक भव्य शिव मंदिर बनवाया था। उसने फिर से भारत में सनातन हिन्दू धर्म की स्थापना की थी। यदि शंकराचार्य, गुरुगोरक्षनाथ और मिहिरकुल नहीं होते तो भारत का प्रमुख धर्म बौद्ध ही होता और हिन्दुओं की हालत आज के बौद्धों जैसी होती। सवाल यह उठता है कि लेकिन क्या यह सही हुआ? ऐसा नहीं हुआ होता यदि बौद्ध भिक्षु देश गद्दारी नहीं करते। उस दौर में मिहिरकुल को कल्कि का अवतार ही मान लिया गया था, क्योंकि पुराणों में लिखा था कि कल्कि आएंगे और फिर से सनातन धर्म की स्थापना करेंगे। मिहिरकुल ने यही तो किया?

जैन व बौद्ध ग्रंथो ने मिहिरको कल्की अवतार माना है कल्की अवतार के बारे मै लिखा है वो तलवार ले कर बौद्ध जैन मलेच्छ को खत्म करेगे लेकिन मलेच्छ तो उस समय थे नही लेकिन मिहिर ने बौद्ध जैन को खत्म कर के कल्की अवतार  काम जरुर किया था

शुंग वंश के पतन के बाद सनातन हिन्दू धर्म की एकता को फिर से एकजुट करने का श्रेय गुप्त वंश के लोगों को जाता है। गुप्त वंश की स्थापना 320 ई। लगभग चंद्रगुप्त प्रथम ने की थी और 510 ई। तक यह वंश शासन में रहा। इस वंश में अनेक प्रतापी राजा हुए। नृसिंहगुप्त बालादित्य (463-473 ई।) को छोड़कर सभी गुप्तवंशी राजा वैदिक धर्मावलंबी थे। बालादित्य ने बौद्ध धर्म अपना लिया था। आरंभ में इनका शासन केवल मगध पर था, पर बाद में संपूर्ण उत्तर भारत को अपने अधीन कर लिया था। इसके बाद दक्षिण में कांजीवरम के राजा ने भी आत्मसमर्पण कर दिया था। गुप्त वंश के सम्राटों में क्रमश: श्रीगुप्त, घटोत्कच, चंद्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, रामगुप्त, चंद्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त प्रथम (महेंद्रादित्य) और स्कंदगुप्त हुए। स्कंदगुप्त के समय हूणों ने कंबोज और गांधार (उत्तर अफगानिस्तान) पर आक्रमण किया था। हूणों ने अंतत: भारत में प्रवेश करना शुरू किया। हूणों का मुकाबला कर गुप्त साम्राज्य की रक्षा करना स्कन्दगुप्त के राज्यकाल की सबसे बड़ी घटना थी। स्कंदगुप्त और हूणों की सेना में बड़ा भयंकर मुकाबला हुआ और गुप्त सेना विजयी हुई। हूण कभी गांधार से आगे नहीं बढ़ पाए, जबकि हूण और शाक्य जाति के लोग उस समय भारत के भिन्न- भिन्न इलाकों में रहते थे। स्कंदगुप्त के बाद उत्तराधिकारी उसका भाई पुरुगुप्त (468-473 ई।) हुआ। उसके बाद उसका पुत्र नरसिंहगुप्त पाटलीपुत्र की गद्दी पर बैठा जिसने बौद्ध धर्म अंगीकार कर राज्य में फिर से बौद्ध धर्म की पताका फहरा दी थी। उसके पश्चात क्रमश: कुमारगुप्त द्वितीय तथा विष्णुगुप्त ने बहुत थोडे़ समय तक शासन किया। 477 ई। में बुद्धगुप्त, जो शायद पुरुगुप्त का दूसरा पुत्र था, गुप्त-साम्राज्य का अधिकारी हुआ। ये सभी बौद्ध हुए। इनके काल में बौद्ध धर्म को खूब फलने और फूलने का मौका मिला। बुद्धगुप्त का राज्य अधिकार पूर्व में बंगाल से पश्चिम में मालवा तक के विशाल भू-भाग पर था। यह संपूर्ण क्षेत्र में बौद्धमय हो चला था। यहां शाक्यों की अधिकता थी। सनातन धर्म का लोप हो चुका था। जैन और बौद्ध धर्म ही शासन के धर्म हुआ करते थे।

== Part - 3 ===

 कल्कि पुराण में लिखा भी हैं कि कल्कि आएंगे और अनिश्वरवादी धर्मों (जैन और बौद्ध) का नाश कर देंगे। क्या मिहिरकुल ने ऐसा नहीं किया था?कश्मीरी ब्राह्मण विद्वान कल्हण के अनुसार मिहिरकुल वैदिक धर्म का अनुयायीथा। वह अनीश्वरवादियों के विरुद्ध लड़ाई लड़ता था। कल्हण ने 'राजतरंगिणी' नामक ग्रंथ में मिहिरकुल का वर्णन शिवभक्त के रूप में किया है। कल्हण कहताहै कि मिहिरकुल ने कश्मीर में मिहिरेश्वर शिव मंदिर का निर्माण करवाया।हूणों के शासन से पहले कश्मीर ही नहीं, वरन पूरे भारत में बौद्ध धर्म प्रबल था।भारत में बौद्ध धर्म के अवसान और सनातन धर्म के संरक्षण एवं विकास में मिहिरकुल हूण की एक प्रमुख भूमिका है। मिहिरकुल का शासन ईरान से लेकर बर्मा औरकश्मीर से लेकर श्रीलंका तक था।कुछ विद्वानों के अनुसार मिहिरकुल को कल्कि मानना इसलिए ठीक नहीं होगा, क्योंकिहूण तो विदेशी आक्रांता थे। उनको तो इतिहास में विधर्मी माना गया है। 'विधर्मी' का अर्थ होता है ऐसे व्यक्ति जिसने या जिसके पूर्वजों ने हिन्दू धर्म को त्यागकर दूसरों का धर्म अपना लिया हो।लेकिन ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार हूणविदेशी नहीं थे। उन्हें प्राचीनकाल मेंयक्ष कहा जाता था। वे सभी धनाढ्य लोग थे। हूण, कुषाण और शक सभी मूलत: भारतीय ही थे। ये सभी भारत से निकलकर बाहर गए औरफिर पुन: भारत में आकर राज करने लगे।इतिहासकारों के अनुसार वराह हूण और कुषाण लगभग 360 ई. में भारत के पश्चिमोत्तर में एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति बनकर उभरे थे। उन्होंने पंजाब से मालवा तक अपना शासन स्थापित कर लिया था।श्वेत हूण भी 5वीं शताब्दी में पश्चिमोत्तर भारत के शासक थे। 500 ई. लगभग जब तोरमाण ओर मिहिरकुल के नेतृत्व में जब हूणों ने मध्यभारत में साम्राज्य स्थापित किया, तब वे वैदिक धर्म और संस्कृति का एक हिस्सा थे, जबकि गुप्त सम्राट बालादित्य बौद्ध धर्म का अनुयायी था। इससे पहले मौर्य वंश भी बौद्ध धर्म के अनुयायी थे अतः हूणों और गुप्तों का टकराव दो भारतीय ताकतों का टकराव था।भारत के प्रथम शक्तिशाली हूण सम्राट तोरमाण के शासनकाल के पहले ही वर्ष का अभिलेख मध्यभारत के एरण नामक स्थान से वाराह मूर्ति से मिला है। हूणों के देवता वाराह थे।कालांतर में हूणों से संबंधित माने जाने वाले गुर्जरों के प्रतिहार वंश ने मिहिरभोज के नेतृत्व में उत्तर भारत में अंतिम हिन्दू साम्राज्य का निर्माणकिया और हिन्दू संस्कृति के संरक्षण में हूणों जैसी प्रभावी भूमिका निभाई।तोरमाण हूण की तरह गुर्जर-प्रतिहार सम्राट मिहिरभोज भी वाराह का उपासक था और उसने आदि वाराह की उपाधि भी धारण की थी। जाटों, गुर्जर-प्रतिहारों ने 7वीं शताब्दी से लेकर 10वीं शताब्दी तक अरब आक्रमणकारियों से भारत और उसकी संस्कृति की जो रक्षा की उससे सभी इतिहासकार परिचित हैं।समकालीन अरब यात्री सुलेमान ने गुर्जर सम्राट मिहिरभोज को भारत में इस्लाम का सबसे बड़ा दुश्मन करार दिया था, क्योंकिभोज राजाओं ने 10वीं सदी तक इस्लाम को भारत में घुसने नहीं दिया था। मिहिरभोज के पौत्र महिपाल को आर्यवृत्त का महान सम्राट कहा जाता था। गुर्जर संभवतः हूणों और कुषाणों की नई पहचान थी।अतः हूणों और उनके वंशज गुर्जरों ने हिन्दू धर्म और संस्कृति के संरक्षण एवं विकास में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इस कारण से इनके सम्राट मिहिरकुलहूण औरमिहिरभोज गुर्जर को समकालीन हिन्दू समाज द्वारा अवतारी पुरुष के रूप में देखा जाना आश्चर्य नहीं होगा। निश्चित ही इन सम्राटों ने हिन्दू समाज को बाहरी और भीतरी आक्रमण से निजाद दिलाई थी इसलिए इनकी महानता के गुणगान करना स्वाभाविक ही था। लेकिन मध्यकाल में भारत के उन महान राजाओं के इतिहास को मिटाने का भरपूर प्रयास किया गया जिन्होंने यहां के धर्म और संस्कृति की रक्षा की। फिर अंग्रेजों ने उनके इतिहास को विरोधामासी बनाकर उन्होंने बौद्ध सम्राटों को महान बनाया। सचमुच सम्राट मिहिरकुल सम्राट अशोक से भी महान थे। जारी...

=== Part - 4 ======

काश सम्राट मिहिरकुल ने ब्राह्मणों को संरक्षण दिया नही होता!
हूण सम्राट मिहिरकुल महान शिव भक्त था| मंदसोर अभिलेख के अनुसार यशोधर्मन से युद्ध होने से पूर्व उसने भगवान स्थाणु (शिव) के अलावा किसी अन्य के सामने अपना सिर नहीं झुकाया था| कर्नल टाड के अनुसार बडोली, राजस्थान के प्रसिद्ध मंदिर का निर्माण हूणराज मिहिरकुल ने कराया था| इसी प्रकार मिहिरकुल हूण ने भारत में कश्मीर स्थित मिहिरेश्वर नामक प्रसिद्ध शिव मंदिर सहित हजारो शिव मंदिरों का निर्माण कराया था| मिहिरकुल के सिक्कों पर जयतु वृष लिखा हैं | वृष शिव कि सवारी हैं जिसका नाम नंदी हैं| कल्हण कृत राजतरंगिणी के अनुसार मिहिरकुल हूण ने ब्राह्मणों को सात सौ गांव दान में दिए| कल्हण हूण सम्राट मिहिरकुल को ब्राह्मणों के समर्थक शिव भक्त के रूप में प्रस्तुत करता हैं|
बौद्ध चीनी यात्री हेन सांग ने भारत में बौद्ध धर्म के अवसान के लिए मिहिरकुल हूण को जिम्मेदार माना हैं| हेन सांग के अनुसार मिहिरकुल ने बौद्ध धर्म के विनाश कि राजाज्ञा जारी कर दी थी| उसने उत्तर भारत के सभी बौद्ध बौद्ध मठो को तुडवा दिया और भिक्षुओं का कत्ले-आम करा दिया| हेन् सांग कि अनुसार मिहिरकुल ने उत्तर भारत से बौधों का नामो-निशान मिटा दिया|
ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान में मिहिरकुल हूण अति महत्त्व पूर्ण भूमिका हैं| मिहिरकुल हूण द्वारा ग्रंथ जैन ओर बौद्ध धर्म के अनुयायियों के दमन ओर ब्राह्मण धर्म के संरक्षण की नीति का भारतीय समाज क्या प्रभाव हुआ इसका समुचित मूल्यांकन किये जाने की आवशकता हैं|

==== Part - 5 ====

डाँ सुशील भाटी जी के ब्लाँग जनइतिहास से साभार

ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार भगवान विष्णु के दस अवतारों की संकल्पना ग्यारहवी शताब्दी के पूर्वार्ध तक अपना निश्चित आकार ले चुकी थी| भगवान विष्णु के दस अवतार माने जाते हैं- मतस्य, क्रुमु, वाराह, नरसिंह, वामन, पशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध ओर कल्कि|  पुराणों के अनुसार कल्कि अवतार भगवान विष्णु के दस अवतारों में अंतिम हैं जोकि भविष्य में जन्म लेकर कलयुग का अंत करके सतयुग का प्रारंभ करेगा| अग्नि पुराण ने कल्कि अवतार का चित्रण तीर-कमान धारण किये हुए  एक घुडसवार के रूप में किया हैं| कल्कि पुराण के अनुसार वह हाथ में चमचमाती हुई तलवार लिए सफ़ेद घोड़े पर सवार होकर, युद्ध ओर विजय के लिए निकलेगा तथा बोद्ध, जैन ओर म्लेछो को पराजित करेगा|
परन्तु कुछ पुराण ओर कवि कल्कि अवतार के लिए भूतकाल का प्रयोग करते हैं| वायु पुराण के अनुसार कल्कि अवतार कलयुग के चर्मौत्कर्ष पर जन्म ले चुका हैं| मतस्य पुराण, बंगाली कवि जयदेव (1200 ई.) ओर चंडीदास के अनुसार भी कल्कि अवतार की घटना हो चुकी हैं| अतः कल्कि एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व हो सकता हैं|

जैन पुराणों में भी एक कल्कि नामक भारतीय सम्राट का वर्णन हैं| जैन विद्वान गुणभद्र नवी शताब्दी के उत्तरार्ध में लिखता हैं कि कल्किराज का जन्म महावीर के निर्वाण के एक हज़ार वर्ष बाद हुआ| जिन सेन ‘उत्तर पुराण’ में लिखता हैं कि कल्किराज ने 40 वर्ष राज किया और 70 वर्ष की आयु में उसकी मृत्यु हुई|  कल्किराज अजितान्जय का पिता था, वह बहुत निरंकुश शासक था, जिसने दुनिया का दमन किया और निग्रंथो के जैन समुदाय पर अत्याचार किये| गुणभद्र के अनुसार उसने दिन में एक बार दोपहर में भोजन करने वाले जैन निग्रंथो के भोजन पर भी टैक्स लगा दिया जिससे वो भूखे मरने लगे | तब निग्रंथो को कल्कि की क्रूर यातनाओ से बचाने के लिए एक दैत्य का अवतरण हुआ जिसने वज्र (बिजली) के प्रहार से उसे मार दिया ओर अनगिनत युगों तक असहनीय दर्द ओर यातनाये झेलने के लिए रत्नप्रभा नामक नर्क में भेज दिया|

प्राचीन जैन ग्रंथो के वर्णनों के अनुसार कल्कि एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं जिसका शासनकाल महावीर की मृत्यु (470 ईसा पूर्व) के एक हज़ार साल बाद, यानि कि गुप्तो के बाद, छठी शताब्दी ई. के प्रारभ में, होना चाहिए चाहिए| गुप्तो के बाद अगला शासन हूणों का था| जैन ग्रंथो में वर्णित कल्कि का समय और कार्य हूण सम्राट मिहिरकुल के साथ समानता रखते हैं| अतः कल्कि राज ओर मिहिरकुल (502- 542 ई.) के एक होने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता| इतिहासकार के. बी. पाठक ने सम्राट मिहिरकुल हूण की पहचान कल्कि के रूप में की हैं, वो कहते हैं कि कल्किराज मिहिरकुल को दूसरा नाम है|

जैन ग्रंथो ने कल्किराज के उत्तराधिकारी का नाम अजितान्जय बताया हैं| मिहिरकुल हूण के उत्तराधिकारी का नाम भी अजितान्जय था|

चीनी यात्री बौद्ध भिक्षु हेन सांग मिहिरकुल की मृत्यु के लगभग 100 वर्ष बाद भारत आया| उसके द्वारा लिखित सी यू की नामक वृतांत इस मामले में कुछ और प्रकाश डालता हैं| वह कहता हैं कि मिहिरकुल कि मृत्यु के समय भयानक तूफ़ान आया और ओले बरसे, धरती कांप उठी तथा चारो ओर गहरा अँधेरा छा गया| बौद्ध पवित्र संतो ने कहा कि अनगिनत लोगो को मारने ओर बुध के धर्म को उखाड फेकने के कारण मिहिरकुल गहरे नर्क में जा गिरा जहाँ वह अंतहीन युगों तक सजा भोगता रहेगा|  जैन धर्म पर प्रहार करने वाले निरंकुश कल्कि के गहरे नर्क में जाने ओर अनगिनत युगों तक दुःख ओर यातनाये झेलने का वर्णन,  बौद्ध धर्म पर प्रहार करने वाले निरंकुश मिहिरकुल के नर्क में गिरने के वर्णन से बहुत मेल खाता हैं| अतः जैन ग्रन्थ में वर्णित कल्कि राज के मिहिरकुल होने की सम्भावना प्रबल  हैं|
ब्राह्मण ग्रन्थ अग्नि पुराण ने कल्कि अवतार का चित्रण तीर-कमान धारण करने वाला एक घुडसवार के रूप में किया हैं| कल्कि पुराण के अनुसार वह हाथ में चमचमाती हुई तलवार लिए सफ़ेद घोड़े पर सवार होकर, युद्ध ओर विजय के लिए निकलेगा तथा  बोद्ध, जैन ओर म्लेछो को पराजित कर धर्म (ब्राह्मण/हिंदू धर्म) की पुनर्स्थापना करेगा|  इतिहास में हूण कल्कि की तरह श्रेष्ठ घुडसवार ओर धनुर्धर के रूप में विख्यात हैं तथा  कल्किराज/  मिहिरकुल हूण ने भी कल्कि की तरह  जैन  ओर बोद्ध धर्म के अनुयायियों का दमन किया था|  कश्मीरी ब्राह्मण विद्वान कल्हण के अनुसार मिहिरकुल ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था| कल्हण ने राजतरंगिणी नामक ग्रन्थ में मिहिरकुल का वर्णन ब्राह्मण समर्थक शिव भक्त के रूप में किया हैं| कल्हण कहता हैं कि मिहिरकुल ने कश्मीर में मिहिरेश्वर शिव मंदिर का निर्माण करवाया ओर ब्राह्मणों को 700 गांव (अग्रहार) दान में दिए| हूणों के शासन से पहले कश्मीर ही नहीं वरन पूरे भारत में बौद्ध धर्म प्रबल था| भारत में बौद्ध धर्म के अवसान ओर ब्राह्मण धर्म के संरक्षण एवं विकास में मिहिरकुल हूण की एक प्रमुख भूमिका हैं|
मिहिरकुल की संगति कल्कि अवतार के साथ करने में एक कठनाई ये हैं कि कुछ इतिहासकार हूणों को विधर्मी संस्कृति का विदेशी आक्रांता मानते हैं| किन्तु हूणों को विधर्मी ओर विदेशी नहीं कहा जा सकता हैं| ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार हारा हूण (किदार कुषाण) लगभग 360 ई. में भारत के पश्चिमीओत्तर में स्थापित राजनेतिक शक्ति थे| श्वेत हूण भी पांचवी शताब्दी में पश्चिमीओत्तर भारत के शासक थे| 500 ई. लगभग जब तोरमाण ओर मिहिरकुल के नेतृत्व में जब हूणों ने मध्य भारत में साम्राज्य स्थापित किया तब वो ब्राह्मण संस्कृति ओर धर्म का एक हिस्सा थे, जबकि गुप्त सम्राट बालादित्य बौद्ध धर्म का अनुयायी था| अतः हूणों ओर गुप्तो टकराव राजनैतिक सर्वोच्चता ओर साम्राज्य के लिए दो भारतीय ताकतों का संघर्ष था| भारत के प्रथम हूण सम्राट तोरमाण के शासन काल के पहले ही वर्ष का अभिलेख मध्य भारत के एरण नामक स्थान से वाराह मूर्ति से मिला हैं| हूणों के कबीलाई देवता वाराह का सामजस्य भगवान विष्णु के वाराह अवतार के साथ कर उसे ब्राह्मण धर्म में अवशोषित किया जा चुका था|  कालांतर में हूणों से सम्बंधित माने जाने वाले गुर्जरों के प्रतिहार वंश ने मिहिर भोज के नेतृत्व में उत्तर भारत में अंतिम हिंदू साम्राज्य का निर्माण किया ओर ब्राह्मण संस्कृति के संरक्षण में हूणों जैसी प्रभावी भूमिका निभाई| गुर्जर प्रतिहारो की राजधानी कन्नौज संस्कृति का उच्चतम केंद्र होने के कारण महोदय कहलाती थी|  तोरमाण हूण के तरह गुर्जर-प्रतिहार सम्राट मिहिरभोज भी वाराह का उपासक था ओर उसने आदि वाराह की उपाधि भी धारण की थी| संभवतः आम समाज के द्वारा मिहिरभोज को भगवान विष्णु का वाराह अवतार माना जाता था| गुर्जर- प्रतिहारो ने सातवी शताब्दी से लेकर दसवी शताब्दी तक अरब आक्रमणकारियों से भारत ओर उसकी संस्कृति की जो रक्षा की उससे सभी इतिहासकार परिचित हैं| समकालीन अरब यात्री सुलेमान ने गुर्जर सम्राट मिहिरभोज को भारत में इस्लाम का सबसे बड़ा शत्रु कहा हैं| मिहिरभोज ने आदि वाराह की उपाधि आर्य धर्म ओर संस्कृति के रक्षक होने के नाते ही धारण की थी| मिहिरभोज के पौत्र महिपाल को उसके गुरु राजशेखर ने आर्यवृत्त का सम्राट कहा हैं|  गुर्जर सभवतः हूणों ओर कुषाणों की नयी पहचान थी|
अतः हूणों ओर उनके वंशज गुर्जरों ने ब्राह्मण/हिंदू धर्म ओर संस्कृति के संरक्षण एवं विकास में अति महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इस कारण से इनके सम्राट मिहिरकुल हूण ओर मिहिरभोज गुर्जर को समकालीन ब्राह्मण/हिंदू समाजो द्वारा अवतारी पुरुष के रूप में देखा गया हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं हैं|

==== Part 6 ====

पांचवी शताब्दी के मध्य में, ४५० इसवी के लगभग, हूण गांधार इलाके  के शासक  थे, जब उन्होंने वहा से सारे सिन्धु घाटी प्रदेश को जीत लिया| कुछ समय बाद ही उन्होंने मारवाड और पश्चिमी राजस्थान के इलाके भी जीत लिए| ४९५ इसवी के लगभग हूणों ने तोरमाण के नेतृत्व में गुप्तो से पूर्वी मालवा छीन लिया| एरण, सागर जिले में वराह मूर्ति पर मिले तोरमाण के अभिलेख से इस बात की पुष्टि होती हैं| जैन ग्रन्थ कुवयमाल के अनुसार तोरमाण चंद्रभागा नदी के किनारे स्थित पवैय्या  नगरी से भारत पर शासन करता था| यह पवैय्या नगरी ग्वालियर के पास स्थित थी|

तोरमाण के बाद उसका पुत्र मिहिरकुल हूणों का राजा बना| मिहिरकुल तोरमाण के सभी विजय अभियानों हमेशा उसके साथ रहता था|  उसके शासन काल के पंद्रहवे वर्ष का एक अभिलेख ग्वालियर एक सूर्य मंदिर से प्राप्त हुआ हैं| इस प्रकार हूणों ने मालवा इलाके  में अपनी स्थति मज़बूत कर ली थी| उसने उत्तर भारत की विजय को पूर्ण किया और गुप्तो सी भी नजराना वसूल किया| मिहिरकुल ने पंजाब स्थित स्यालकोट को अपनी राजधानी बनाया|मिहिकुल हूण एक कट्टर शैव था|  उसने अपने शासन काल में हजारों शिव मंदिर बनवाये| मंदसोर अभिलेख के अनुसार यशोधर्मन से युद्ध होने से पूर्व उसने भगवान स्थाणु (शिव) के अलावा किसी अन्य के सामने अपना सर नहीं झुकाया था| मिहिरकुल ने ग्वालियर अभिलेख में भी अपने को शिव भक्त कहा हैं| मिहिरकुल के सिक्कों पर जयतु वृष लिखा हैं जिसका अर्थ हैं- जय नंदी| वृष शिव कि सवारी हैं जिसका मिथकीय नाम नंदी हैं|

कास्मोस इन्दिकप्लेस्तेस नामक एक यूनानी ने मिहिरकुल के समय भारत की यात्रा की थी, उसने “क्रिस्टचिँन टोपोग्राफी” नामक अपने ग्रन्थ में लिखा हैं की हूण भारत के उत्तरी पहाड़ी इलाको में रहते हैं, उनका राजा मिहिरकुल एक विशाल घुड़सवार सेना और कम से कम दो हज़ार हाथियों के साथ चलता हैं, वह भारत का स्वामी हैं|मिहिरकुल के लगभग सौ वर्ष बाद चीनी बौद्ध तीर्थ यात्री हेन् सांग ६२९ इसवी में भारत आया , वह अपने ग्रन्थ “सी-यू-की” में लिखता हैं की सैंकडो वर्ष पहले  मिहिरकुल नाम का राजा हुआ करता था जो स्यालकोट से भारत पर  राज  करता था | वह  कहता हैं कि मिहिरकुल नैसर्गिक रूप से प्रतिभाशाली और बहादुर था|

हेन् सांग बताता हैं कि मिहिरकुल ने भारत में बौद्ध धर्म को बहुत भारी नुकसान पहुँचाया| वह कहता हैं कि एक बार मिहिरकुल ने बौद्ध भिक्षुओं से  बौद्ध धर्म के बारे में जानने कि इच्छा व्यक्त की| परन्तु बौद्ध भिक्षुओं ने उसका अपमान किया, उन्होंने उसके पास, किसी वरिष्ठ बौद्ध भिक्षु को भेजने की जगह एक सेवक को बौद्ध गुरु के रूप में  भेज दिया| मिहिरकुल को जब इस बात का पता चला तो वह गुस्से में आग-बबूला हो गया और उसने बौद्ध धर्म के विनाश कि राजाज्ञा जारी कर दी| उसने उत्तर भारत के  सभी बौद्ध बौद्ध मठो को तुडवा दिया और भिक्षुओं का कत्ले-आम करा दिया| हेन् सांग कि अनुसार मिहिरकुल ने उत्तर भारत से बौधों का नामो-निशान मिटा दिया|

गांधार क्षेत्र में मिहिरकुल के भाई के विद्रोह के कारण, उत्तर भारत का साम्राज्य उसके हाथ से निकल कर, उसके विद्रोही भाई के हाथ में चला गया| किन्तु वह शीघ्र ही कश्मीर का राजा बन बैठा| कल्हण ने बारहवी शताब्दी में “राजतरंगिणी” नामक ग्रन्थ में कश्मीर का इतिहास लिखा हैं| उसने मिहिरकुल का, एक शक्तिशाली विजेता के रूप में ,चित्रण किया हैं| वह कहता हैं कि मिहिरकुल काल का दूसरा नाम था, वह पहाड से गिरते है हुए हाथी कि चिंघाड से आनंदित होता था| उसके अनुसार मिहिरकुल ने हिमालय से लेकर लंका तक के इलाके जीत लिए थे| उसने कश्मीर में मिहिरपुर नामक  नगर बसाया| कल्हण के अनुसार मिहिरकुल ने कश्मीर में श्रीनगर के पास मिहिरेशवर नामक भव्य शिव मंदिर बनवाया था| उसने गांधार इलाके में ७०० ब्राह्मणों को अग्रहार (ग्राम) दान में दिए थे| कल्हण मिहिरकुल हूण को ब्राह्मणों के समर्थक शिव भक्त के रूप में प्रस्तुत करता हैं|

मिहिरकुल ही नहीं वरन सभी हूण शिव भक्त थे| हनोल ,जौनसार –बावर, उत्तराखंड में स्थित महासु देवता (महादेव) का मंदिर हूण स्थापत्य शैली का शानदार नमूना हैं, कहा जाता हैं कि इसे हूण भट ने बनवाया था| यहाँ यह उल्लेखनीय हैं कि भट का अर्थ योद्धा होता हैं |

हाडा लोगों के आधिपत्य के कारण ही कोटा-बूंदी इलाका हाडौती कहलाता हैं राजस्थान का यह हाडौती सम्भाग कभी हूण प्रदेश कहलाता था| आज भी इस इलाके में हूणों गोत्र के गुर्जरों  के अनेक गांव हैं| यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रसिद्ध इतिहासकार वी. ए. स्मिथ, विलियम क्रुक आदि ने गुर्जरों को श्वेत हूणों से सम्बंधित माना हैं| इतिहासकार कैम्पबेल और डी. आर. भंडारकर गुर्जरों की उत्त्पत्ति श्वेत हूणों की खज़र शाखा से मानते हैं | बूंदी इलाके  में रामेश्वर महादेव, भीमलत और झर महादेव हूणों के बनवाये प्रसिद्ध शिव मंदिर हैं| बिजोलिया, चित्तोरगढ़ के समीप स्थित मैनाल कभी हूण राजा अन्गत्सी की राजधानी थी, जहा हूणों ने तिलस्वा महादेव का मंदिर बनवाया था| यह मंदिर आज भी पर्यटकों और श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करता हैं| कर्नल टाड़ के अनुसार बडोली, कोटा में स्थित सुप्रसिद्ध शिव मंदिर पंवार/परमार वंश के हूणराज ने बनवाया था|

इस प्रकार हम देखते हैं की हूण और उनका नेता मिहिरकुल भारत में बौद्ध धर्म के अवसान और शैव धर्म के विकास से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं|
  सन्दर्भ ग्रन्थ

1.  K C Ojha, History of foreign rule in Ancient India,  Allahbad, 1968.
2. Prameswarilal Gupta, Coins, New Delhi, 1969.
3. R C Majumdar, Ancient Iindia.
4. Rama Shankar Tripathi, History of Ancient India, Delhi, 1987.
5. Atreyi Biswas, The Political History of Hunas in India, Munshiram Manoharlal Publishers, 1973.
6. Upendera Thakur, The Hunas in India.
7. Tod, Annals and Antiquities of Rajasthan, vol.2
8. J M Campbell, The Gujar, Gazeteer of Bombay Presidency, vol.9, part.2, 1896
9. D R Bhandarkarkar Gurjaras, J B B R A S, Vol.21, 1903
10. Tod, Annals and Antiquities of Rajasthan, edit. William Crooke, Vol.1, Introduction
11. P C Bagchi, India and Central Asia, Calcutta, 1965
12. V A Smith, Earley History of India                                                    
13. K B PATHAK, COMMEMORATIVE ESSAYS, NEW LIGHT ON GUPTA ERA AND MIHIRKULA, P215 http://www.archive.org/stream/commemorativeess00bhanuoft/commemorativeess00bhanuoft_djvu.txt
14.  KRISHNA CHANDRA SAGAR, FOREIGN INFLUENCE ON ANCIENT INDIA http://books.google.co.in/books?

भोजेश्वर मंदिर | Bhojeshwar Mandir

भोजेश्वर मंदिर | Bhojeshwar Mandir

गुर्जर महाराजा भोज परमार का भोजेश्वर मंदिर 

भोजेश्वर मंदिर | गुर्जर महाराजा | भोज परमार | परमार गुर्जर वंश | राजा भोज | भोजपुर | परमार वंश 
 भोजपुर शिव मंदिर | बेतवा नदी | पार्वती गुफा | गुर्जर प्रतिहार राजवंश
भोजेश्वर मंदिर | राजा भोज

भोजेश्वर मंदिर' मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से 32 किलोमीटर की दूरी पर रायसेन ज़िले की गोहरगंज तहसील में है l इस मंदिर को यदि उत्तर भारत का सोमनाथ भी कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। भोजपुर गाँव में पहाड़ी पर यह विशाल शिव मंदिर स्थापित है। भोजपुर मंदिर तथा उसके शिवलिंग की स्थापना धार के प्रसिद्ध गुर्जर महाराजा भोज परमार द्वारा की गई थी। अत: गुर्जर महाराजा भोज के नाम पर ही इस स्थान को भोजपुर और मंदिर को भोजपुर मंदिर या 'भोजेश्वर मंदिर' कहा गया। बेतवा नदी के किनारे बना उच्च कोटि की वास्तुकला का यह नमूना राजा भोज के मुख्य वास्तुविद और अन्य विद्वान वास्तुविदों के सहयोग से तैयार हुआ। मन्दिर की विशालता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसका चबूतरा 35 मीटर लम्बा है।भोजपुर के शिव मंदिर की प्रसिद्धि यहाँ स्थापित शिवलिंग की वजह से और भी अधिक है। पुरातत्व विभाग द्वारा इस मंदिर को विश्व धरोहर में शामिल कराने के प्रयास जारी हैं। कला और संस्कृति के दृष्टि से यहाँ की धरती प्राचीन काल से ही महत्त्वपूर्ण रही है। स्थापत्य कला में भी भोजपुर नामक स्थान पर भोजेश्‍वर के नाम से विख्यात शिव मंदिर काफ़ी महत्त्वपूर्ण रहा है, जिस कारण इसे "पूर्व का सोमनाथ" कहा गया। मध्य काल के आरंभ में गुर्जर महाराजा भोज परमार ने 1010-1053 ई. में भोजपुर की स्थापना की तथा यहाँ पर भगवान शिव का एक भव्य मंदिर भी बनवाया। इस नगर को प्रसिद्धि देने में भोजपुर के भोजेश्वर शिव मंदिर का भी प्रमुख योगदान रहा है। यह मंदिर निर्माण कला का अदभुत उदाहरण है। मंदिर वर्गाकार है, जिसका बाह्य विस्तार बहुत बडा है। मंदिर चार स्तंभों के सहारे पर खड़ा है। देखने पर इसका आकार हाथी की सूंड के समान लगता है। यह मंदिर तीन भागों में विभाजित है। इसका निचला हिस्सा अष्टभुजाकार है, जिसमें फलक बने हुए हैं। शिव मंदिर के प्रवेश द्वार के दोनों पार्श्वों में दो सुंदर प्रतिमाएँ स्थापित हैं, जो सभी को आकृष्ट करती हैं। भोजपुर के शिव मंदिर का प्रसिद्धि शिवलिंग जिसकी ऊँचाई 18 फीट और गोलाई 7.5 फीट है


• भोजेश्वर मंदिर के निकट बेतवा नदी के किनारे बना बाँध :

राजा भोज के भोजेश्वर मंदिर के निकट बेतवा नदी के किनारे बना बाँध

भोजपुर शिव मंदिर' या 'भोजेश्वर मंदिर' मध्य प्रदेश के शिव मंदिरों में से मुख्य मंदिर है। इस मंदिर का विशाल एवं भव्य रूप देखकर हर कोई इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता। भोजेश्वर मंदिर के पश्चिम में कभी एक बहुत बड़ी झील हुआ करती थी। उस झील उस पर एक बाँध भी बना हुआ था, लेकिन अब सिर्फ उसके अवशेष ही यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। बाँध का निर्माण बहुत ही बुद्धिमतापूर्वक किया गया था। दो तरफ़ से पहाड़ियों से घिरी झील को अन्य दो ओर से बालुकाइम के विशाल पाषाण खंडों की मदद से भर दिया गया था। ये पाषाण खंड चार फीट लंबे और 2.5 फीट मोटे थे। छोटा बाँध लगभग 44 फीट ऊँचा था और उसका आधार तल तगभग 300 फीट चौड़ा तथा बड़ा बाँध 24 फीट ऊँचा और ऊपरी सतह पर 100 फीट चौड़ा था। उल्लेखनीय है कि यह बाँध तकरीबन 250 मील के जल प्रसार को रोके हुए था। इस झील को होशंगशाह ने (1405-1434 ई.) में नष्ट करवा दिया।

• भोजेश्वर मंदिर की पार्वती गुफा :



भोजेश्वर मंदिर की पार्वती गुफा | Parvati Cave of Bhojeshwar Temple

गौंड किंवदंती के अनुसार होशंगशाह की फौज को इस बाँध को काटने में तीन महीना का समय लग गया था। कहा जाता है कि इस अपार जलराशि के समाप्त हो जाने के कारण मालवा के जलवायु में परिवर्तन आ गया था। एक अन्य किंवदंती के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इस झील के समाप्त हो जाने के कारण मालवा की जलवायु में भी परिवर्तन हो गया था। इस प्रसिद्घ स्थल पर वर्ष में दो बार वार्षिक मेले का आयोजन किया जाता है, जो 'मकर संक्रांति' व 'महाशिवरात्रि पर्व' के समय होता है। इस धार्मिक उत्सव में भाग लेने के लिए दूर दूर से लोग यहाँ पहुँचते हैं। एक समय था, जब भोजपुर से भोपाल तक फैली झील के अन्तिम छोर पर भोजेश्वर मन्दिर खडा दिखाई देता था। मन्दिर निर्माण के लिये जिस पत्थर का प्रयोग किया गया था, उसे भोजपुर के ही पथरीले क्षेत्रों से प्राप्त किया गया था। मन्दिर के समीप और दूर तक पत्थरों और चट्टानों की कटाई के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। 'अर्ली स्टोन टेम्पल्स ऑफ़ ओडिसा' की लेखिका विद्या देहेजिया के अनुसार भोजपुर के शिव मन्दिर और भुवनेश्वर के 'लिंगराज मन्दिर' व कुछ और मन्दिरों के निर्माण में समानता दिखाई देती है। मन्दिर से कुछ दूर बेतवा नदी के किनारे पर माता पार्वती की गुफ़ा है। क्योंकि गुफ़ा नदी के दूसरी ओर है, इसलिये नदी पार जाने के लिये नौकाएँ उपलब्ध हैं। यद्यपि भोजपुर का प्रसिद्ध शिव मन्दिर वीरान पथरीले इलाके में खडा है, परन्तु आज भी यहाँ आने वाले श्रद्धालुओं की भीड़ में कोई कमी नहीं आई है। प्रतिवर्ष 'महाशिवरात्रि' पर यहाँ लगने वाला मेला देखने लायक़ होता है।

गुर्जर सम्राट मिहिर भोज, भोजपुरी भाषा और भोजपुर (बिहार) के बीच का संबंध

गुर्जर महाराजा भोज परमार | Gurjareshwar Raja Bhoj Parmar

गुर्जर राजा भोज परमार 

गुर्जरेश्वर | राजा भोज परमार | परमार वंश | भोज परमार । पंवार । भोजेश्वर मंदिर । महाराजा भोज परमार | इतिहास


Raja Bhoj Parmar | राजा भोज परमार
गुर्जर महाराजा भोज परमार मालवा के 'परमार' अथवा 'पवार वंश' का नौवाँ यशस्वी राजा था।परमार वंश गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य के अधीन गुर्जर वंश था।राजा भोज ने 1018-1060 ई. तक शासन किया। उसकी राजधानी धार थी। भोज परमार ने 'नवसाहसाक' अर्थात 'नव विक्रमादित्य' की पदवी धारण की थी। भोज ने बहुत-से युद्ध किए और पूर्णत: अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की, जिससे सिद्ध होता है कि उसमें असाधारण योग्यता थी। यद्यपि उसके जीवन का अधिकांश समय युद्धक्षेत्र में बीता, तथापि उसने अपने राज्य की उन्नति में किसी प्रकार की बाधा न उत्पन्न होने दी। राजा भोज ने मालवा के नगरों व ग्रामों में बहुत-से मंदिर बनवाए, यद्यपि उनमें से अब बहुत कम का पता चलता है। भोज स्वयं एक विद्वान था और कहा जाता है कि उसने धर्म, खगोल विद्या, कला, कोश रचना, भवन निर्माण, काव्य, औषधशास्त्र आदि विभिन्न विषयों पर पुस्तकें लिखीं, जो अब भी वर्तमान हैं।

• परिचय

भोज परमार गुर्जर वंश के नवें राजा थे। परमार वंशीय गुर्जर राजाओं ने मालवाकी राजधानी 'धारा नगरी' (धार) से आठवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया। राजा भोज वाक्पति मुंज के छोटे भाई सिंधुराज का पुत्र था। रोहक इसका प्रधानमंत्री और भुवनपाल मंत्री था। कुलचंद्र, साढ़ तथा तरादित्य इसके सेनापति थे, जिनकी सहायता से भोज ने राज्य संचालन सुचारु रूप से किया।
साम्राज्य विस्तार
अपने चाचा वाक्पति मुंज की ही भाँति भोज भी पश्चिमी भारत में एक साम्राज्य स्थापित करना चाहता था और इस इच्छा की पूर्ति के लिये इसे अपने पड़ोसी राज्यों से हर दिशा में युद्ध करना पड़ा। मुंज की मृत्यु शोकजनक परिस्थिति में हो जाने से परमार बहुत ही उत्तेजित थे और इसीलिये भोज बदला लेने के विचार से दक्षिण की ओर सेना लेकर चढ़ाई करने को प्रेरित हुआ। उसने दाहल के कलचुरीगांगेयदेव तथा तंजौर[2] के राजेंद्र चोल से संधि की ओर साथ ही साथ दक्षिण पर आक्रमण भी कर दिया, परंतु तत्कालीन राजा गुर्जरेश चालुक्य जयसिंह  द्वितीय ने बहादुरी से सामना किया और अपना राज्य बचा लिया। सन 1044 ई. के कुछ समय बाद जयसिंह के पुत्र सोमेश्वर द्वितीय ने परमार गुर्जरो से फिर शत्रुता कर ली और मालव राज्य पर आक्रमण कर भोज को भागने के लिये बाध्य कर दिया। धारानगरी पर अधिकार कर लेने के बाद उसने आग लगा दी, परंतु कुछ ही दिनों बाद सोमेश्वर ने मालव छोड़ दिया और भोज ने राजधानी में लोटकर फिर सत्ताधिकार प्राप्त कर लिया। सन 1018 ई. के कुछ ही पहले भोज ने इंद्ररथ नामक एक व्यक्ति को, जो संभवत: कलिंग के गांग राजाओं का सामंत था, पराजित किया।
भोज परमार ने राजस्थान में शाकंभरी के विरुद्ध भी युद्ध की घोषणा की और तत्कालीन राजा वीर्यराम को हराया। इसके बाद उसने चाहमानों के ही कुल के अनहिल द्वारा शालित नदुल नामक राज्य को जीतने की धमकी दी, परंतु युद्ध में परमार हार गए और उनके प्रधान सेनापति साढ़ को जीवन से हाथ धोना पड़ा। भोज ने गुजरात के चालुक्यों से भी, जिन्होंने अपनी राजधानी अनहिलपट्टण में बनाई थी, बहुत दिनों तक युद्ध किया। चालुक्य मूलराज प्रथम के पुत्र चामुण्डराय को वाराणसी जाते समय मालवा में भोज के हाथों अपमानित होना पड़ा था। उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी बल्लभराज को इस पर बड़ा क्रोध आया और उसने इस अपमान का बदला लेने की सोची। उसने भोज के विरुद्ध एक बड़ी सेना तैयार की और भोज पर आक्रमण कर दिया, परंतु दुर्भाग्यवश रास्ते में ही चेचक से उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद वल्लभराज के छोटे भाई दुर्लभराज ने सत्ता की बागडोर अपन हाथों में ली। कुछ समय बाद भोज ने उसे भी युद्ध में हराया। दुर्लभराज के उत्तराधिकारी भीम के राज्यकाल में भोज ने अपने सेनापति कुलचंद्र को गुजरात के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजा। कुलचंद्र ने पूरे प्रदेश पर विजय प्राप्त की तथा उसकी राजधानी अनहिलपट्टण को लूटा। भीम ने एक बार आबू पर आक्रमण कर उसके राजा परमार ढंडु को हराया था, जब उसे भागकर चित्रकूट में भोज की शरण लेनी पड़ी थी। जैसा के विदित है कि सन 1055 ई. के थोड़े ही पहले भीम ने कलचुरी कर्ण से संधि करके मालवा पर आक्रमण कर दिया था, परंतु भोज के रहते वे उस प्रदेश पर अधिकार न पा सके।

• रचनाएँ

भोज परमार ने कई विषयों के अनेक ग्रंथों का निर्माण किया था। वह बहुत अच्छा कवि, दार्शनिक और ज्योतिषी भी था। 'सरस्वतीकंठाभरण', 'शृंगारमंजरी', 'चंपूरामायण', 'चारुचर्या', 'तत्वप्रकाश', 'व्यवहारसमुच्चय' आदि अनेक ग्रंथ उसी के द्वारा लिखे हुए बतलाए जाते हैं। उसकी सभा सदा बड़े-बड़े पंडितों से सुशोभित रहती थी। उनकी पत्नी का नाम 'लीलावती' था, जो बहुत बड़ी विदुषी महिला थी। भोज परमार ने ज्ञान के सभी क्षेत्रों में रचनाएँ कीं। उसने लगभग 84 ग्रन्थों की रचना की थी। उनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं-
1. 'राजमार्तण्ड' (पतंजलि के योगसूत्र की टीका)
2. 'सरस्वतीकण्टाभरण' (व्याकरण)
3. 'सरस्वतीकठाभरण' (काव्यशास्त्र)
4. 'शृंगारप्रकाश' (काव्यशास्त्र तथा नाट्यशास्त्र)
5. 'तत्त्वप्रकाश' (शैवागम पर)
6. 'वृहद्राजमार्तण्ड' (धर्मशास्त्र)
7. 'राजमृगांक' (चिकित्सा)
डॉ. महेश सिंह ने भोज परमार की रचनाओं को विभिन्न विषयों के अन्तर्गत वर्गीकृत किया है-
1. धर्मशास्त्र, राजधर्म तथा राजनीति - भुजबुल (निबन्ध) , भुपालपद्धति, भुपालसमुच्चय या कृत्यसमुच्चय, चाणक्यनीतिः या दण्डनीतिः, व्यवहारसमुच्चय, युक्तिकल्पतरु, पुर्तमार्तण्ड, राजमार्तण्ड, राजनीति
2. संकलन - सुभाषितप्रबन्ध
3. शिल्प - समराङ्गणसूत्रधार
4. खगोल एवं ज्योतिष - आदित्यप्रतापसिद्धान्त, राजमार्तण्ड, राजमृगाङ्क, विद्वज्ञानवल्लभ (प्रश्नविज्ञान)
5. संगीत - संगीतप्रकाश
6. दर्शन - राजमार्तण्ड (योगसूत्र की टीका), राजमार्तण्द (वेदान्त), सिद्धान्तसंग्रह, सिद्धान्तसारपद्धति, शिवतत्त्व या शिवतत्त्वप्रकाशिका
7. प्राकृत काव्य - कुर्माष्टक
8. संस्कृत काव्य एवं गद्य - चम्पूरामायण, महाकालीविजय, शृंगारमञ्जरी, विद्याविनोद
9. व्याकरण - शब्दानुशासन
10. कोश - नाममालिका
11. चिकित्साविज्ञान - आयुर्वेदसर्वस्व, राजमार्तण्ड या योगसारसंग्रह राजमृगारिका, शालिहोत्र, विश्रान्त विद्याविनोद
महानता
* जब भोज जीवित थे, तब उनकी महानता के बारे में कहा जाता था कि-
अद्य धारा सदाधारा सदालम्बा सरस्वती।पण्डिता मण्डिताः सर्वे भोजराजे भुवि स्थिते॥
अर्थात "आज जब भोजराज धरती पर स्थित हैं तो धारा नगरी सदाधारा (अच्छे आधार वाली) है; सरस्वती को सदा आलम्ब मिला हुआ है; सभी पंडित आदृत हैं।"
* जब भोज परमार का देहान्त हुआ तो कहा गया कि-
अद्य धारा निराधारा निरालंबा सरस्वती।पण्डिताः खण्डिताः: सर्वे भोजराजे दिवं गते॥
अर्थात "आज भोजराज के दिवंगत हो जाने से धारा नगरी निराधार हो गयी है; सरस्वती बिना आलम्ब की हो गयी है और सभी पंडित खंडित हैं।"
पराजय तथा मृत्यु
भोज ने भोजपुर में एक विशाल सरोवर का निर्माण कराया था, जिसका क्षेत्रफल 250 वर्ग मील से भी अधिक विस्तृत था।
यह सरोवर पन्द्रहवीं शताब्दी तक विद्यमान था, जब उसके तटबन्धों को कुछ स्थानीय शासकों ने काट दिया।

 Dam in bank of betva River near Bhojeshwar Temple

अपने शासन काल के अंतिम वर्षों में भोज परमार को पराजय का अपयश भोगना पड़ा। गुजरात के चालुक्यराजा तथा चेदि नरेश की संयुक्त सेनाओं ने लगभग 1060 ई. में भोज परमार को पराजित कर दिया। इसके बाद ही उनकी मृत्यु हो गई।
गुर्जर प्रतिहार राजवंश के अधीन कई गुर्जर वंश आते थे।
जिनमे मुख्य चौहान वंश, चालुक्य वंश, परमार वंश, तंवर/तोमर वंश, गुहिल वंश, मैत्रक वंश, चंदेल वंश,चप वंश, खटाणा वंश, भडाणा वंश आदि, इन गुर्जर वंशो मे आपस मे युध्द होते रहते थे लेकिन बाहरी आक्रमणो के समय ये सब एक हो जाते थे।
गुर्जर प्रतिहार राजवंश के अघीन गुर्जर वंश | Gurjar Dynasties under Gurjara Pratihara 

गुर्जर सम्राट मिहिर भोज, भोजपुरी भाषा और भोजपुर (बिहार) के बीच का संबंध

गुर्जर सम्राट मिहिर भोज, भोजपुरी भाषा और भोजपुर (बिहार) के बीच का संबंध

गुर्जर सम्राट मिहिर भोज, भोजपुरी भाषा और भोजपुर (बिहार) के बीच का संबंध

उगता भारत ब्यूरो | इतिहास के पन्नो से | स्वर्णिम इतिहास | गुर्जर सम्राट मिहिर भोज | भोजपुरी भाषा और भोजपुर (बिहार) के बीच का संबंध |



Gurjar Samrat Mihir Bhoj | गुर्जर सम्राट मिहिर भोज

भोजपुर,बिहार जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, भोजपुरी भाषा बोलने वाला सांस्कृतिक क्षेत्र है। बिहार के अलावा पूर्वी उत्तर-प्रदेश का कुछ क्षेत्र भी इस सांसकृतिक पॉकेट का अभिन्न हिस्सा है।बिहार शायद एक अनोखा राज्य है जो अपने अलग-अलग सांस्कृतिक भू-भागों में अलग-अलग सांस्कृतिक धरोहरों के लिए विख्यात है। भोजपुरी क्षेत्र निष्कर्षत: लोक-संस्कृति प्रधान रहा है। भोजपुर क्षेत्र की सीमा को विद्वानों ने उत्तर में हिमालय पर्वतमाला की तराई, दक्षिण मध्यप्रान्त का जसपुर राज्य, पूर्व में मुजफ्फपुर की उत्तरी-पश्चिमी भाग और पश्चिम में बस्ती तक के विस्तार को माना है। इस प्रकार इसका क्षेत्रफल लगभग पच्चास वर्गमील है।

पृथ्वीसिंह मेहता अपनी पुस्तक बिहार एक ऐतिहासिक दिग्दर्शन में लिखते है कि गुर्जर प्रतिहार वंश के शासक गुर्जर सम्राट मिहिर भोज ने अपने नाम से भोजपुर किले की स्थापना की। लेखक पृथ्वीसिंह मेहता का मत है कि कन्नोज के गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज ने भोजपुर बसाया था। भोजपुर राजा भोज का बसाया है, यह बात जनता में आजतक प्रचलित है, लेकिन कन्नोज के गुर्जर सम्राट मिहिर भोज को भूल जाने के कारण लोग आज धार (मालवा) के राजा भोज परमार को उसका संस्थापक मान बैठे हैं। मालवा का राजा भोज परमार महमूद गजनवी का समकालीन था और बिहार से उसका कोई सम्बन्ध न था। उत्तरी भारत में के लगभग 836 ई0 गुर्जर सम्राट रामभद्र का बेटा गुर्जर सम्राट मिहिर भोज गद्दी पर बैठा। भोज के गद्दी पर बैठते ही स्थिति बदल गयी। देवपाल को हराकर उसने शीध्र ही कन्नौज वापस ले लिया और भिन्नमाल की जगह कन्नौज को ही अपना राजधानी बनाया। हिमालय में काश्मीर की सीमा तक का प्रदेश जीतकर ने अपने राज्य में शामिल कर लिया और अपनी पश्चिमी सीमा वहाँ मुलतान के अरब राज्य तक पहुँचा दी।

पूरब में गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के राज्य की सीमा बिहार तक थी। राजा देवपाल से उसने पश्चिमी बिहार (प्राचीन मल्ल देश) छीन लिया।गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के ग्वालियर प्रशस्ति (इपिग्राफिका इंडिका-भाग 12 , पृ0 156 ) से यह स्पष्ट होता है कि इसने धर्मपाल के पुत्र देवपाल को हराया था, साथ ही सारन जिले के दिवा-दुवौली ( इण्डियन एंटिक्वेरी – भाग 12 , पृष्ठ 112 ) नामक गाँव से पाये गये ताम्रपत्र से भी यह बात सिद्ध होती है कि प्रतिहार भोज का राज्य गोरखपुर तथा सारन तक था। पृथ्वीसिंह मेहता यह भी लिखते हैं कि पालों कि रोकथाम के लिए उन्होने शाहबाद जिले में अपने नाम से भोजपुर की स्थापना की। उसी भोजपुर नाम से आज पश्चिमी बिहार की जनता और उनकी बोली भोजपुरी कहलाती है। पृथ्वीसिंह मेहता का विचार अधिक प्रामाणिक है , क्योंकि कम से कम गुर्जर सम्राट मिहिर भोज का राज्य सारन तक तो रहा। इसकी संभावना भी है कि उसने पालों की रोकथाम के लिए भोजपुर में किले की स्थापना की गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के भोजपुर में किला बनवाने की बात ही सबसे अधिक कही जाती है।
प्रस्तुति : राकेश आर्य (बागपत)
http://www.ugtabharat.com/relation-of-mihir-bhoj-and-bhojpuri-language-and-bhojpur/

चंदेल गुर्जर वंश | History of Chandel Gurjar Dynasty

चंदेल गुर्जर वंश | History of Chandel Gurjar Dynasty

चन्देल गुर्जर वंश का इतिहास

चंदेल | चंदीला | चन्देल वंश । भारतीय वंश । Chandel Dynasty | Chandila, Chandel Clan | History 


चन्देल गुर्जर वंश मध्यकालीन भारत का प्रसिद्ध गुर्जर राजवंश था। जिसने 08वीं से 12वीं शताब्दी तक स्वतंत्र रूप से यमुना और नर्मदा के बीच, बुंदेलखंड तथा उत्तर प्रदेश के दक्षिणी-पश्चिमी भाग पर राज किया। चंदेल वंश के शासकों का बुंदेलखंड के इतिहास में विशेष योगदान रहा है। उन्‍होंने लगभग 400 साल तक बुंदेलखंड पर शासन किया। चन्देल गुर्जर शासको न केवल महान विजेता तथा सफल शासक थे, अपितु कला के प्रसार तथा संरक्षण में भी उनका महत्‍वपूर्ण योगदान रहा। चंदेल गुर्जरो का शासनकाल आमतौर पर बुंदेलखंड के शांति और समृद्धि के काल के रूप में याद किया जाता है। चंदेलकालीन स्‍थापत्‍य कला ने समूचे विश्‍व को प्रभावित किया उस दौरान वास्तुकला तथा मूर्तिकला अपने उत्‍कर्ष पर थी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं खजुराहो के मंदिर।
खजुराहो का कंदरीय महादेव मंदिर
Khujrao Temple of Chandel Gurjar Dynasty | खुजराहो का मंदिर


• उत्पत्ति एवं परिचय 

इस वंश की उत्पत्ति का उल्लेख कई लेखों में है। कीर्तिवर्मन् के देवगढ़ शिलालेख में और चाहमान गुर्जर पृथ्वीराज तृतीय के लेख में "चन्देल" शब्द का प्रयोग हुआ है। गुर्जर वंश में नृप नंनुक हुआ जिसके पुत्र वा पति और पौत्र जयशक्ति तथा विजयशक्ति थे। विजय के बाद क्रमश: राहिल, हर्ष, यशोवर्मन् और धंग , गुर्जर राजा हुए। वास्तव में गुर्जर सम्राट नंनुक से ही इस वंश का आरंभ होता है और अभिलेख तथा किंवदंतियों से प्राप्त विवरणों के आधार पर उनका संबंध आरंभ से ही खजुराहो से रहा तथा गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य के अधीन रहे। अरब इतिहास के लेखक कामिल ने भी इनको "कजुराह" में रखा है। धंग से इस वंश के संस्थापक नंनुक की तिथि निकालने के लिय यदि हम प्रत्येक पीढ़ी के लिये 20-25 वर्ष का काल रखें तो धंग से छह पीढ़ी पहले नंनुक की तिथि से लगभग 120 वर्ष पूर्व अर्थात् 954 ई. - 120 = 834 ई. (लगभग 830 ई.) के निकट रखी जा सकती है। "महोबा खंड" में चंद्रवर्मा के अभिषेक की तिथि 225 सं. रखी गई है। यदि गुर्जर नरेश नंनुक का विरुद अथवा दूसरा नाम मान लिया जाय और इस तिथि को हर्ष संवत् में मानें तो नंनुक की तिथि (606 + 225) अथवा 831 ई. आती है। अत: दोनों अनुमानों से नंनुक का समय 831 ई. माना जा सकता है।

वाक्पति ने विंध्या के शत्रुओं को हराकर अपना राज्य विस्तृत किया। तृतीय गुर्जर नरेश जयशक्ति ने अपने ही नाम से अपने राज्य का नामकरण जेजाकभुक्ति किया। कदाचित् यह गुर्जर प्रतिहार सम्राट् मिहिर भोज का सामंत राजा था और यही स्थिति उसके भाई विजयशक्ति तथा पुत्र राहिल की भी थी। हर्ष और उसके पुत्र यशोवर्मन् के समय परिस्थिति बदल गई। गुर्जरों और राष्ट्रकूटों के बीच निरंतर युद्ध से अन्य शक्तियाँ भी ऊपर उठने लगीं। इसके अतिरिक्त गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के पुत्र महेंद्रपाल के बाद कन्नौज के सिंहासन के लिये गुर्जर सम्राट भोज द्वितीय तथा क्षितिपाल में संघर्ष हुआ। खजुराहो के एक लेख में हर्ष अथवा उसके पुत्र यशोवर्मन् द्वारा पुन: क्षितिपाल को सिंहासन पर बैठाने का उल्लेख है- (पुनर्येन श्री क्षितिपालदेव नृपसिंह: सिंहासने स्थापित:।)

 हर्ष के पुत्र यशोवर्मन् के समय चंदेलों का गौड़, कोशल, मिथिला, मालव, चेदि, के साथ संघर्ष का संकेत है।प्रशस्तिकार ने उसकी प्रशंसा बढ़ा चढ़ाकर की हो तब भी इसमें संदेह नहीं कि चंदेल गुर्जर राज्य धीरे धीरे शक्तिशाली बन रहा था। धंग के खजुराहों लेख में गुर्जर प्रतिहार सम्राट विनायकपाल का उल्लेख मिलता है। 
चंदेल गुर्जर शासको में धंगदेव सबसे प्रसिद्ध तथा शक्तिशाली राजा हुआ और इसने 50 वर्ष (950 से 1000 ई.) तक राज किया। उसके लंबे राज्यकाल में खजुराहो के दो प्रसिद्ध मंदिर विश्वनाथ तथा पार्श्वनाथ बने। पंजाब के राजा जयपाल की सहायता के लिये अजमेर और कन्नौज के गुर्जर राजाओं के साथ उसने गजनी के शासक सुबुक्तगीन के विरुद्ध सेना भेजी। उसके पुत्र गंड (1001-1017) ने भी अपने पिता की भाँति 'गुर्जर राजा आनंदपाल खटाणा' की महमूद गजनी के विरुद्ध सहायता की। महमूद के कन्नौज पर आक्रमण और राज्यपाल के हार के विरोध में गंड के पुत्र विद्याधर ने कन्नौज के राजा का वध कर डाला, पर 1023 ई. में गंड को स्वयं कालिंजर का गढ़ महमूद को दे देना पड़ा। महमूद के लौटने पर यह पुन: चंदेलों के पास आ गया। गंड के समय कदाचित् जगदंबी नामक वैष्णव मंदिर तथा चित्रगुप्त नामक सूर्यमंदिर बने। गंड के पुत्र विद्याधर (लगभग 1019-1029) को इब्नुल अथीर नामक मुसलमान लेखक ने अपने समय का सबसे शक्तिशाली राजा कहा है। उसके समय चंदेल गुर्जरो ने कलचुरी और परमारों गुर्जरो पर विजय पाई और 1019 तथा 1022 में महमूद का मुकाबला किया। चंदेल गुर्जर राज्य की सीमा विस्तृत हो गई थी। कहा जाता है कि कंदरीय महादेव का विशाल मंदिर भी इसी ने बनवाया
गुर्जर नरेश विद्याधर के बाद चन्देल राज्य की कीर्ति और शक्ति घटने लगी। गुर्जर नरेश विजयपाल चन्देल (लगभग 1029-51) इस युग का प्रमुख चंदेल राजा हुआ। कीर्तिवर्मन् (1070-95) तथा मदनवर्मन् (लगभग 1029-1162) भी प्रमुख चंदेल राजा हुए। कलचुरी सम्राट् दाहिले की विजय से 1040-70 तक के लंबे काल के लिये चंदेलों की शक्ति क्षीण हो गई थी। विल्हण ने कर्ण को कालिंजर का राजा बताया है।गुर्जर राजा कीर्तिवर्मन् ने चंदेलों की खोई हुई शक्ति और कलचुरियों द्वारा राज्य के जीते हुए भाग को पुन: लौटाकर अपने वंश की लुप्त प्रतिष्ठा स्थापित की। उसने सोने के सिक्के
 भी चलाए जिसमें कलचुरि आंगदेव के सिक्कों का अनुकरण किया गया है। केदार मिश्र द्वारा रचित "प्रबोधचंद्रोदय" (1065 ई.) इसी चंदेल गुर्जर सम्राट् के दरबार में खेला गया था। इसमें वेदांतदर्शन के तत्वों का प्रदर्शन है। यह कला का भी प्रेमी था और खजुराहों के कुछ मंदिर इसके शासनकाल में बने। कीर्तिवर्मन् के बाद सल्लक्षण बर्मन् या हल्लक्षण वर्मन्, जयवर्मनदेव तथा पृथ्वीवर्मनदेव ने राज्य किया। अंतिम चन्देल गुर्जर सम्राट्, जिसका वृत्तांत "चंदरासो" में उल्लिखित है, परमर्दिदेव अथवा परमाल (1165-1203) था। इसका चौहान वंश के गुर्जर सम्राट् पृथ्वीराज  से संघर्ष हुआ और 1208 में कुतबुद्दीन ने कालिंजर का गढ़ इससे जीत लिया, जिसका उल्लेख मुसलमान इतिहासकारों ने किया है। चंदेल गुर्जर राज्य की सत्ता समाप्त हो गई पर शासक के रूप में इस वंश का अस्तित्व कायम रहा। 16वीं शताब्दी में स्थानीय शासक के रूप में चंदेल गुर्जर राजा बुंदेलखंड में राज करते रहे पर उनका कोई राजनीतिक प्रभुत्व न रहा।

• शासन, संस्कृति एवं कला 

चंदेल शासन परंपरागत आदर्शों पर आधारित था। गुर्जर सम्राट यशोवर्मन् के समय तक चंदेल गुर्जर नरेश अपने लिये किसी विशेष उपाधि का प्रयोग नहीं करते थे। धंग ने सर्वप्रथम परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर, परममाहेश्वर, गुर्जरेश्वर, कालंजराधिपति, का विरुद धारण किया। कलचुरि नरेशों के अनुकरण पर परममाहेश्वर श्रीमद्वामदेवपादानुध्यात तथा त्रिकलिंगाधिपति और गाहड़वालों के अनुकरण पर परमभट्टारक इत्यादि समस्त राजावली विराजमान विविधविद्याविचारवाचस्पति और कान्यकुब्जाधिपति का प्रयोग मिलता है।
हम्मीरवर्मन् की साहि उपाधि संभवत: मुस्लिम प्रभाव के कारण थी; गुर्जर राजवंश के अन्य व्यक्तियों को भी शासन में अधिकार के पद मिलते थे। कुछ अभिलेखों से प्रतीत होता है कि कुछ मंत्रियों को उनके पद का अधिकार वंशगत रूप में प्राप्त हुआ था। मंत्रियों के लिये मंत्रि, सचिव और अमात्य का प्रयोग बिना किसी विशेष अंतर के किया गया है। मंत्रिमुख्य के अतिरिकत अधिकारियों में सांधिविग्रहिक, प्रतिहार, कंचुकि, कोशाधिकाराधिपति, भांडागाराधिपति, अक्षपटलिक, कोट्टपाल, विशिष, सेनापति, हस्त्यश्वनेता, पुरबलाध्यक्ष आदि के नाम आते हैं। शासन के कुछ कार्य पंचकुल और धर्माधिकरण जैसे बोर्डो के हाथ में था। राज्य विषय, मंडल, पत्तला, ग्रामसमूह और ग्रामों में विभक्त था। शासन में सामंत व्यवस्था कुछ रूपों में उपस्थित थी। एक अभिलेख में एक मंत्री को मांडलिक भी कहा गया है। विशिष्ट सैनिक सेवा के लिये गाँव दिए जाते थे। युद्ध में मरे सैनिकों के लिये किसी प्रकार के पेंशन अथवा मृत्युक वृत्ति की भी व्यवस्था थी। चंदेल गुर्जर राज्य की भौगोलिक और प्राकृतिक दशा के कारण दुर्गों (किला) का विशेष महत्व था और उनकी ओर विशेष ध्यान दिया जाता था। अभिलेखों में राज्य द्वारा लिए गए करों की सूची में भाग, भोग, कर, हिरण्य, पशु, शुल्क और दंडादाय का उल्लेख है।
गुर्जरो मे मिहिर, गुर्जरेश्वर, गुर्जर नरेश, गुर्जर परमेश्वर, गुर्जरेश, का भी उपयोग मिलता है। कीर्तिवर्मन् पहला चंदेल गुर्जर नरेश था जिसने सिक्के बनवाए।
चंदेल गुर्जर राज्य में पौराणिक धर्म की जनप्रियता बढ़ रही थी। चंदेल गुर्जर राजा और उनके मंत्री तथा अन्य अधिकारियों के द्वारा प्रतिमा और मंदिर के निर्माण के कई उल्लेख मिलते हैं। विष्णु के अवतारों में वराह, वामन, नृसिंह, राम और कृष्ण की पूजा का अधिक प्रचलन था। चंदेल गुर्जर राज्य से हनुमान की दो विशाल प्रतिमाएँ मिली हैं और कुछ चंदेल गुर्जर सिक्कों पर उनकी आकृति भी अंकित हैं किंतु विष्णु की तुलना में शिव की पूजा का अधिक प्रचार था। धंग के समय से चंदेल गुर्जर नरेश शैव बन गए। शिवलिंग के साथ ही शिव की आकृतियाँ भी प्राप्त हुई हैं। शिव के विभिन्न स्वरूपों के परिचायक उनके अनेक नाम अभिलेखों में आए हैं। शक्ति अथवा देवी के लिये भी अनेक नामों का उपयोग हुआ है। अजयगढ़ में अष्टशक्तियों की मूर्तियाँ अंकित हैं। सूर्य की पूजा भी जनप्रिय थी। गणेश और ब्रह्मा की मूर्तियाँ यद्यपिं मिली हैं लेकिन उनके पूजकों के पथक् संप्रदायों के अस्तित्व का प्रमाण नहीं मिलता। अन्य देवता जिनके उल्लेख हैं या जिनकी प्रतिमाएँ मिलती हैं। उनके नाम हैं- लक्ष्मी, सरस्वती, इंद्र, चंद्र और गंगा। बुद्ध, बोधिसत्व और तारा की कुछ प्रतिमाएँ मिलती हैं। हिंदु धर्म की भाँति जैन धर्म का भी प्रचार था, विशेष रूप से वैश्यों में। किंतु सांप्रदायिक कटुता के उदाहरण नहीं मिलते। चंदेल गुर्जर नरेशों की नीति इस विषय में उदार थी।
चंदेल गुर्जर राज्य अपनी कलाकृतियों के कारण भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध हैं। चंदेल मंदिरों में से अधिकांश खजुराहों में हैं। कुछ महोबा में भी हैं। इनका निर्माण मुख्यत: 10वीं शताब्दी के मध्य से 11वीं शताब्दी के मध्य के बीच हुआ है। ये शैव, वैष्णव और जैन तीनों ही धर्मों के हैं। इन मंदिरों में अन्य क्षेत्रों की प्रवत्तियों का प्रभाव भी ढूँढ़ा जा सकता है किंतु प्रधान रूप से इनमें चंदेल कलाकार की मौलिक विशेषताएँ दिखलाई पड़ती हैं। एक विद्वान् का कथन है कि भवन-निर्माण-कला के क्षेत्र में भारतीय कौशल को खजुराहों के मंदिरों में सर्वोच्च विकास प्राप्त हुआ है। ये मंदिर विशालता के कारण नहीं बल्कि अपनी भव्य योजना और समानुपातिक निर्माण के लिये प्रसिद्ध हैं। मंदिर के चारों ओर कोई प्राचीर नहीं होती। मंदिर ऊँचे चबूतरे (अधिष्ठान) पर बना होता है। इसमें गर्भगृह, मंडप, अर्धमंडप, अंतराल और महामंडल होते हैं। इक मंदिरों की विशेषता इनके शिखर हैं जिनके चारों ओर अंग शिखरों की पुनरावृत्ति रहती है।
इन मंदिरों की मूर्तिकला भी इनकी विशेषता है। इन मूर्तियों की केवल संख्या ही स्वंय उल्लेखनीय है। इनके निर्माण में सूक्ष्म कौशल के साथ ही अद्भुत सजीवता दिखलाई पड़ती है। इन कृतियों के विषय भी विविध हैं : प्रधान देवी देवता, परिवारदेवता, गौण देवता, दिक्पाल, नवग्रह, सुरसुंदर, नायिका, मिथुन, पशु और पुष्पलताएँ तथा रेखागणितीय आकृतियाँ। इन मंदिरों में मिथुन आकृतियों की इतनी अधिक संख्या में उपस्थिति का कोई सर्वमान्य हल नहीं बतलाया जा सकता। महोबा से प्राप्त चार बौद्ध प्रतिमाएँ अतीव सुंदर हैं। इनमें से सिंहनाद अवलोकितेश्वर की मूर्ति तो भारतीय मूर्तिकला के सर्वोत्कृष्ट नमूनों में से एक है।
साहित्य के क्षेत्र में कोई विशेष उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई। कुछ चंदेल अभिलेखकाव्य की दृष्टि से अच्छे हैं। चंदेल गुर्जरो के कुछ मंत्रियों और अधिकारियों को लेखों में कवि, बालकवि, कवींद्र, कविचक्रवर्तिन् आदि कहा गया है जिससे चंदेल गुर्जर राजाओं की कवियों को प्रश्रय देने की नीति का बोध होता है।
• चंदेल गुर्जर शासक
Chandel Gurjar Rulers 


* नन्नुक (831 -45) (संस्थापक)
* वाक्पति (845 -870)
* जयशक्ति चन्देल और विजयशक्ति चन्देल (870 -900)
* राहिल (900 -???)
* हर्ष चन्देल (900-925)
* यशोवर्मन् (925-950)
* धंगदेव (950-1003)
* गंडदेव (1003–1017)
* विद्याधर (1017–1029)
* विजयपाल (1030–1045)
* देववर्मन (1060-1070)
* कीरतवर्मन (1070-1100)
* सल्लक्षनवर्मन (1100-1115)
* जयवर्मन (1115-1120)
* प्रथ्वीवर्मन (1120-1129)
* मदनवर्मन (1129–1162)
* यशोवर्मन II (1165-1203)
* परर्मार्दिदेव (1203-1208)

गुर्जर सम्राट पुलकेशिन चालुक्या द्वितीय | Gurjar Samrat Pulkesin Chalukya

गुर्जर सम्राट पुलकेशिन चालुक्या द्वितीय | Gurjar Samrat Pulkesin Chalukya

गुर्जर सम्राट पुलकेशिन चालुक्य द्वितीय 

गुर्जर सम्राट । पुलकेशिन । चालुक्या वंश । गुर्जर । गुर्जर देश । गुर्जरात्रा । गुजरात । सौलंकी 
Gurjar Samrat Pulkesin Chalukya | चालुक्य

सत्याश्रय, श्रीपृथ्वीवल्लभ , परमेश्वर परमभट्टारक जैसी उपाधियाँ पाने वाले यह गुर्जर सम्राट भारतीय इतिहास में एक महान शासक माने जाते हैं।
इतिहासकारो का मानना है कि हूण गुर्जरो के विखण्डन से चालुक्य, प्रतिहार, चौहान, तंवर,चेची,सोलंकी,चप या चपराणा, चावडा आदि राजवंश व गुर्जर कुषाण साम्राज्य के विखण्डन से मैत्रक, गहलोत,परमार,हिन्दुशाही खटाणा, भाटी आदि नये राजवंश जन्म लेते हैं।
गुर्जरो के इतिहास लेखक यानी भाट भी यहीं बताते हैं
चालुक्य राजवंश भी गुर्जर हूण राजवंश की शाखा माना जाता है। चालुक्य साम्राज्य को ही सर्वप्रथम गुर्जरत्रा, गुर्जरात,गुर्जराष्ट्र व गुर्जर देश से सम्बोधित किया गया जो कि इनके गुर्जर होने का बडा प्रमाण है।
चालुक्य राजवंश की नींव विष्णुवर्धन ने रखी। पुलकेशिन चालुक्य भी इसी राजवंश का सबसे महान शासक सिद्ध हुआ।
पुलकेशिन व हर्षवर्धन दोनो समकालीन थे, महान सम्राट थे, यौद्धा थे, न्यायप्रिय,उदारशील,प्रजावत्सल शासक थे। दोनो को ही बराबर माना जाता है।
जहाँ हर्षवर्धन उत्तर भारत के एकछत्र राजा थे वहीं पश्चिमोत्तर व दक्षिणी भारत के गुर्जर सम्राट पुलकेशिन थे।
गुर्जर चालुक्य राजवंश की राजधानी आन्ध्र प्रदेश की बादामी थी। चालुक्य गुर्जर स्वयं को गुर्जर सम्राट ,गुर्जराधिराज, गुर्जर नरपति, गुर्जरेन्द्र व गुर्जर नरेश से सम्बोधित करते थे ।
राजा तो ये आन्ध्र प्रदेश के थे तो आन्ध्रपति या आन्ध्र नरेश लिख सकते थे। इनका शाही निशान वराह था जो कि गुर्जर हूण व गुर्जर प्रतिहारो का भी शाही निशान था । इनके सिक्के हूण गुर्जरो के सिक्को की नकल है व उन सिक्को का नाम भी हूण ही है।
गुर्जर सम्राट पुलकेशिन चालुक्य सम्राट कीर्तिवर्मन के पुत्र थे। राजा बनने के लिये।इनका विवाद अपने चाचा सम्राट मंगलेश से भी हुआ क्योंकि कीर्तिवर्मन की मृत्यु के बाद अल्पायु पुलकेशिन के संरक्षण का भार चाचा मंगलेश को सौंपा गया था। मंगलेश राजगद्दी पर स्वयं बैठना चाहते थे, इस विवाद में मारे गये।
चालुक्य साम्राज्य गुर्जर मण्डल का सबसे बडा राज्य था। इस गुर्जर गणराज्य या मण्डल में गुर्जरो के मैत्रक, चप या चावडा, प्रतिहार आदि बडे छोटे कई गुर्जर राज्य संयुक्त होकर रहते थे।

पुलकेशिन का वास्तविक नाम ऐरेया था,राज्यरोहण के समय पुलकेशिन द्वितीय नाम रखा गया। इनका शासनकाल 609ई० से 642 ई० माना जाता है।
इन्होने लाट,सौराष्ट्र जीतकर गुर्जरत्रा की सीमा को विस्तार देना शुरू किया। कोंकण के मौर्य, पल्लव,गंग,चोल,कदंब आदि राजवंशो को हराकर।पूरे दक्षिणी भारत में गुर्जरत्रा साम्राज्य खडा कर दिया ।

गुर्जर सम्राट पुलकेशिन चालुक्य की सबसे बडी उपलब्धि कन्नौज के प्रतापी सम्राट हर्षवर्धन को नर्मदा के कछारो में हराना था। इस प्रकार उन्होने सम्राट हर्षवर्धन के विजयरथ को रोक लिया। यह युद्ध पूरे गुर्जरत्रा ने लडा था जिसमें कई गुर्जर नरेश शामिल थे।

इस युद्ध के बाद गुर्जर सम्राट पुलकेशिन ने परमेश्वर की उपाधि धारण की।
हर्षवर्धन को उत्तरपथ का स्वामी होने के कारण उत्तरपथेश्वर कहा जाता था व हर्षवर्धन को पराजित करके पुलकेशिन को दक्षिणपथ का स्वामी होने के कारण दक्षिणपथेश्वर कहा गया।
इसी समय चीनी यात्री हवेनसांग भारत आता है वह गुर्जर सम्राट पुलकेशिन की बहुत प्रशंसा करता है व हर्षवर्धन व पुलकेशिन को समान शासक बताता है। वह लिखता है कि पुलकेशिन एक न्यायप्रिय, सभी धर्मो का संरक्षणकर्त्ता,उदार,बुद्धिमान,प्रजावत्सल व कलाव साहित्य का अनुरागी शासक है।
पुलकेशिन की मृत्यु पल्लव नरेश नरसिहँवर्मन से युद्ध करते हुए ६४२ ई० में होती है। इनके बाद इनका तीसरा पुत्र विक्रमादित्य प्रथम राजसिँहासन पर बैठता है।

गुर्जरो का साम्राज्य (640 ई.) | Gurjar Empires in 640 A.D.

गुर्जरो का साम्राज्य (640 ई.) | Gurjar Empires in 640 A.D.

गुर्जरो का साम्राज्य  (640 ई.)

Gurjar Empire at Harsha Times

हर्ष के समय गुर्जरो का ही ऐसा राज्य था जो कि हर्ष के आदिपत्य से बाहर था

मिस्टर ए.वी.हेवेल आर्यन रूल इन इंडिया के पृष्ठ  191 पर लिखते हे।
" Before the end of his region.  Harsha 's  rule was suprime in Aryawat from sea to sea, as south as Narmada river.  Excepts over the Kingdom of GURJARS. Which included Rajasthan,Northan Gujrat and part of the Pun jab. "

अनुवाद :

" हर्ष का साम्राज्य तमाम आर्यावर्त मे फैल चुका था । समुद्र के एक किनारे से नर्मदा के दक्षिण तक हर्ष का ही राज्य था। सिर्फ राजस्थान, उत्तरीय  गुजरात व पजांब मे गुर्जरो का राज्य उससे बाहर था ।"

सम्राट मिहिर भोज गुर्जर प्रतिहार

राष्ट्ररक्षक वीर गुर्जर - सम्राट मिहिर भोज गुर्जर प्रतिहार

राष्ट्ररक्षक वीर गुर्जर  - सम्राट मिहिर भोज गुर्जर प्रतिहार

Gurjar Samrat Mihir Bhoj | गुर्जर सम्राट मिहिर भोज
गुर्जर प्रतिहार राजाओ द्वारा अरब के प्रबल विरोध का ही ये परिणाम था कि रेगिस्तान प्रायद्वीप से निकल कर एक झपाटै मे पशिच्म मे सूदूर स्पेन तक इस्लामी साम्राज्य का विस्तार कर डालने वाली विश्व विजयनी अरब सेनाओ को भारत मे सिंध मे आकर थम जाना पडा ओर अगले तीन सो वर्षो तक वे इस प्रदेश मे सफलता न पा सकी ।
प्रतिहार गुर्जरो का समस्त राष्ट्र ऋणी है क्योकि उन्होंने भारत की सकंट काल मे रक्षा की ।
अब सिंध मे अरबो का अधिकार केवल मन्सूरा ओर मुल्तान इन दो स्थानो पर ही रह गया । जंहा पर उन्होने गुर्जर सम्राट के आक्रमणों से बचने के लिये "अल महफूज " नामक रक्षा -प्रकार बनवाये थे। ओर उन्ही मे छिपकर गुर्जरो के हमलो से अपनी रक्षा करते थे।इन दोनो स्थानो को छोडकर शेष समस्त सिंध गुर्जर साम्राज्य मे मिला लिया गया था ।
इसके लिये गुर्जेशवर सम्राट ने सैनिक अभियान भेजकर अरब सेनाओ को पराजित किया । सिंध का अरब शासक शासक इमरान -बिन-मूसा गुर्जरो की सेनाओ से पूरी तरह पराजित हुआ ओर इस प्रकार गुर्जर साम्राज्य की सीमाऐ सिंधु नदी से सैकडो मील पश्चिम तक पहुंच गयी थी । इस प्रकार भारत अगली शताब्दीयो तक अरब आक्रमणों से मुक्त हो गया ।
गुर्जर सम्राट मिहिर भोज का राज्य काबुल से रांची व आसाम तक हिमालय से नर्मदा नदी व आंध्र तक, काठियावाड से बगांल तक सुदृढ सुसंगठित ओर धन - धान्य पूर्ण था ।

• संदर्भ :
हरियाणा के प्राचीन लक्षण स्थान, स्वामी ओउमानन्द सरस्वती -- पृष्ठ - 93

भड़ाना देश व भड़ाना राजवंश | Bhadana Gurjar Dynasty



भड़ाना देश व भड़ाना राजवंश | Bhadana Gurjar Dynasty


History & Kings of Bhadana Gurjar Dynasty 

भारतीय इतिहास लेखन में बहुत से राजवंशों और समुदायों को अपेक्षित स्थान नहीं मिल पाया है। ऐसे राजवंशों का उल्लेख यदाकदा इतिहास के संदर्भ ग्रन्थों में मिल जाता है, परन्तु इनके संगठित एवं क्रमबद्ध इतिहास का प्रायः अभाव है। ऐसा ही एक राजवंश है, ‘भड़ाना वंश’।

भड़ाना जिन्हें सामान्य तौर पर समकालीन ग्रन्थों में ‘भड़ानक’ कहा गया है, ग्यारहवीं व बारहवीं शताब्दी में एक विस्तृत क्षेत्र पर शासन करते थे। ‘भड़ानक’ मुख्य रूप से मथुरा, अलवर, भरतपुर, धौलपुर, करौली क्षेत्र में निवास करते थे और यह क्षेत्र इनके राजनीतिक आधिपत्य के कारण ‘भड़ाना देश’ अथवा ‘भड़ानक देश’ कहलाता था। सम्भवतः भड़ानकों की बस्तियाँ दिल्ली के दक्षिण में फरीदाबाद जिले तक थीं, जहाँ आज भी ये बड़ी संख्या में निवास करते हैं। फरीदाबाद जिले में भड़ानों के बारह गांव आबाद हैं। इतिहासकार दशरथ शर्मा के अनुसार जब शाकुम्भरी के राजा पृथ्वीराज चौहान ने भड़ाना देश पर आक्रमण किया, उस समय पर इस राज्य की पूर्वी सीमा पर चम्बल नदी एवं कछुवाहों का ग्वालियर राज्य था,  पूर्वोत्तर दिशा में इसकी सीमाएँ यमुना नदी एवं गहड़वालों के कन्नौज राज्य तक थी। इसकी अन्य सीमाएँ शाकुम्भरी के चौहान गुर्जर राज्य से मिलती थी। भड़ाना या भड़ानक देश एक पर्याप्त विस्तृत राज्य था। स्कन्द पुराण के विवरण के अनुसार भड़ाना देश में 1,25,000 ग्राम थे। समकालीन चौहान गुर्जर राज्य में भी इतने ग्राम न थे।1

समकालीन विद्वान सिद्धसैन सूरी ने भी भड़ानक देश का लगभग यही क्षेत्र बताया है, उसने कहा है कि यह कन्नौज और हर्षपुर (शेखावटी में हरस) के बीच स्थित है। उसने कमग्गा (मथुरा के चालीस मील पश्चिम में कमन) और सिरोहा (ग्वालियर के निकट) का भड़ानक देश के पवित्र जैन स्थलों के रूप में उल्लेख किया है।2 सम्भवतः कमग्गा और सिरोहा इस राज्य के प्रमुख नगर थे। इनके अतिरिक्त अपभ्रंश पाण्डुलिपि ‘‘सम्भवनाथ चरित’’ के लेखक तेजपाल ने भड़ाना देश में स्थित श्रीपथ नगर का वर्णन किया है। इतिहासकार दशरथ शर्मा के अनुसार यह नगर इस राज्य की राजधानी था। इस श्रीपथ नगर की पहचान आधुनिक बयाना से की जाती है।3 इतिहासकारों के अनुसार पूर्व मध्यकालीन अपभ्रंश भाषा में भड़ानक को भयानया कहा गया है, और भयानया शब्द से ही उत्तर मध्यकाल में बयाना शब्द की उत्पत्ति हुई है। इस प्रकार से आधुनिक बयाना ही भड़ाना देश का केन्द्र बिन्दु था। बयाना से 14 मील दक्षिण में ताहनगढ़ का मजबूत किला स्थित है जो इस राज्य की रक्षा छावनी थी।

भड़ाना समुदाय के विषय में हमें अनेक समकालिक साहित्यिक एवं अभिलेखीय स्रोतों से जानकारी प्राप्त होती है। कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार सम्राट महिपाल के दरबारी कवि राजशेखर ने अपने ग्रन्थ ‘काव्यमीमांशा’ में उन्हें अपभ्रंश भाषा बोलने वाला कहा है। इस अपभ्रंश भाषा को सूरसेनी अपभ्रंश भी कहा जाता है, क्योंकि भड़ाना देश एवं प्राचीन सूरसेनी जनपद का क्षेत्र लगभग एक ही था। यह सूरसेनी अपभ्रंश ही आधुनिक ब्रजभाषा की जननी है।

भड़ानक या भड़ाना देश के राजनीतिक इतिहास के विषय में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी है। सम्भवतः यह राज्य ग्यारहवीं एवं बारहवीं शताब्दी में स्थिर रहा। बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भड़ानकों का शाकुम्भरी के चौहानों से राजनीतिक संघर्ष चला। चौहान दिग्विजय की भावना से प्रेरित थे और उत्तर भारत में एक साम्राज्य का निर्माण करना चाहते थे। इसलिए उनका उत्तर भारत की अन्य राजनीतिक शक्तियों के साथ युद्ध अवश्यंभावी था। उस समय उत्तर भारत में कन्नौज के गहढ़वाल़, बुन्देलखण्ड के चन्देल गुर्जर, मालवा के परमार गुर्जर, गुजरात के चालुक्य गुर्जर एवं भड़ाना गुर्जर उत्तर भारत में प्रमुख राजनीतिक शक्ति थे। चौहान गुर्जरो का इन सभी से युद्ध हुआ परन्तु सम्भवतः सबसे पहले उनका युद्ध भड़ानकों के साथ ही हुआ।

चौहानों ने भड़ाना देश पर कम से कम दो बार आक्रमण किया। भड़ानकों पर प्रथम आक्रमण के विषय में हमें चौहान गुर्जर राजा सोमेश्वर के सन् 1169ई0 के ‘बिजौलिया अभिलेख’ से पता चलता है। इस समय भड़ाना देश पर कुमार पाल प्रथम अथवा उसके उत्तराधिकारी अजय पाल का शासन था।4 अजय पाल एक शक्तिशाली एवं सम्प्रभुता सम्पन्न शासक था और वह महाराजाधिराज की उपाधि धारण करते था। उनके शासनकाल की जानकारी हमें उनकी महाबन प्रशस्ति (सन् 1150 ई0) से ज्ञात होती है। उनकी महाराजाधिराज की उपाधि से ऐसा प्रतीत होता है कि उनके अधीन अनेक छोटे राजा थे और वे एक विस्तृत क्षेत्र पर शासन करते थे। चौहानों और भड़ानकों में भीषण युद्ध हुआ परन्तु यह युद्ध निर्णायक साबित न हो सका, हालांकि बिजोलिया अभिलेख में चौहानों ने अपनी विजय का दावा किया है। अजयपाल के बाद हरिपाल भड़ाना राज्य का उत्तराधिकारी हुआ, एक अभिलेख के अनुसार 1170 ई0 में शासन कर रहा था।5

हरिपाल के पश्चात् साहन पाल उनका उत्तराधिकारी हुआ। उसका एक अभिलेख भरतपुर स्टेट के आघातपुर नामक स्थान से प्राप्त होता है। साहन पाल के शासन काल में चौहान गुर्जरो ने पृथ्वीराज तृतीय के नेतृत्व में दूसरी बार भड़ानकों पर आक्रमण किया। इस आक्रमण का उल्लेख समकालीन जैन विद्वान् जिनपाल ने 1182 ई0 में लिखित अपने ग्रन्थ ‘खरतारगच्च पत्रावली’ में किया है। जैन विद्वान् ने भड़ानकों की शक्तिशाली गज सेना की प्रशंसा की है, वह लिखता है कि भड़ानकों ने अपनी शक्तिशाली गज सेना के साथ भीषण युद्ध किया।6 भड़ानक बहादुरी से लड़े परन्तु चौहान विजयी रहे। इस हार के कारण भड़ानों की शक्ति क्षीण होने लगी।

साहन पाल के पश्चात् कुमार पाल द्वितीय भड़ानक देश की गद्दी पर बैठा। वह इस राज्य का अन्तिम शासक था। उसके शासनकाल में सन् 1192 ई0 में मौहम्मद गौरी ने भड़ाना राज्य पर आक्रमण किया और त्रिभुवन नगरी को जीत लिया।7 इस आक्रमण से भड़ानक देश का पतन हो गया और कुछ समय पश्चात् हम बयाना को दिल्ली सल्तनत के अंग के रूप में देखते हैं।

भड़ाना राज्य की ज्ञात वंशावली में, कुमार पाल प्रथम (12वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध), महाराजाधिराज अजयपाल (1150 ई0), हरिपाल (1170ई0), सोहन पाल (1196 ई0), कुमार पाल द्वितीय थे। भड़ाना राज्य का यदि मूल्यांकन किया जाये तो हम कह सकते हैं कि यह एक विस्तृत राज्य था जो कि दिल्ली के दक्षिण में अलवर, भरतपुर, मथुरा, करौली एवं धौलपुर क्षेत्र में फैला हुआ था। ‘स्कन्द पुराण’ के अनुसार इसमें 1,25,000 ग्राम थे। इस राज्य का शासक महाराजाधिराज की उपाधि धारण करता था। भड़ानक राज्य की गणना समकालीन शक्तिशाली राज्यों से की जा सकती है। जैन विद्वान ने भड़ानों की शक्तिशाली गज सेना की प्रशंसा की है। भड़ानक राज्य दो शताब्दियों तक स्थिर रहा और उसने तत्कालीन भारतीय राजनीति को प्रचुर मात्रा में प्रभावित किया।

भड़ानक या भड़ाना राज्य के पतन हो जाने पर भी भड़ानकों की शक्ति पूरी तरह समाप्त नहीं हुई और वो आने वाले समय में भी अपने साहस और बहादुरी की पहचान बनाये रहे।

बारहवीं शताब्दी के अन्त में तराईन के द्वितीय युद्ध में चौहान गुर्जरो की तुर्कों से हार के फलस्वरूप उत्तर भारत में तुर्कों की सल्तनत की स्थापना हुई। तुर्क मध्य एशिया के निवासी थे और भारत में उनका शासन एक विदेशी शासन था। इस विदेशी शासन के प्रति गुर्जरो ने अनेक विद्रोह किये। भड़ानकों अथवा भड़ानों ने भी संगठित होकर दो बार विदेशी सल्तनत का विरोध किया। समकालीन मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार सुल्तान बलबन (1246-84 ई0) के शासनकाल में दिल्ली के समीप मेवातियों और भड़ाना गुर्जरो ने जोरदार विद्रोह किया था। बलबन ने बड़ी निर्दयता एवं क्रूरता से इस विद्रोह का दमन किया, हजारों मेवाती और भड़ाने मारे गए। आज भी दिल्ली के दक्षिण में फरीदाबाद से लेकर भरतपुर तक मुस्लिम मेव व भड़ाने गूजरों की आबादी बहुसंख्या में है।

फरीदाबाद के भड़ानकों ने सुल्तान शेरशाह सूरी (1540-45 ई0) के शासन काल में दूसरी बार सशस्त्र विद्रोह किया। इस बार विद्रोह की कमान स्वयं भड़ानों के हाथों में थी। दिल्ली की सीमा के निकट फरीदाबाद जिले के पाली और पाखल  ग्रामों के भड़ानों ने इस विद्रोह में प्रमुख भूमिका निभाई। पाली और पाखल के भड़ानों ने मजबूत गढियों का निर्माण कर अपने सैन्य संगठन को शक्तिशाली बना लिया था। भड़ानकों का साहस इतना बढ़ गया था कि उन्होंने दिल्ली के दरवाजों तक हमले किये। जिस समय शेरशाह सूरी दिल्ली की किले बन्दी कर उत्तर भारत में अपने पैर जमा रहा था उस समय भड़ानकों ने उसे बहुत परेशान किया। एक बार भड़ानकों ने शेरशाह के सैन्य शिविर पर छापा मार हमला बोल कर उसके हाथियों को छीन लिया और इन हाथियों को अरावली पहाडियों में छिपा दिया। जहाँ इन हाथियों को छिपाया गया था वह स्थान आज भी हथवाला के नाम से जाना जाता है। भड़ानकों में हाथियों के प्रति आसक्ति शायद उनकी गज सेना की परम्परा की देन थी। भड़ानकों के बढ़ते साहस ने सुल्तान को विचलित कर दिया। भड़ाना अपना खोया हुआ वैभव पाना चाहते थे। विद्रोह इतना शक्तिशाली था कि सुल्तान शेरशाह सूरी ने उसकी गम्भीरता को समझते हुए स्वयं शाही सेना की कमान सम्भाली और पाली और पारवल पर हमला बोल दिया। भड़ाने वीरता और साहस से लड़े परन्तु शाही सेना बहुत बड़ी और बेहतर रूप से संगठित थी, उसके पास तोपें थीं। अन्त में तोपों की सहायता से गढिया गिरा दी गई। हजारों भड़ाने मारे गए। आर0बी0 रसैल ने इस विषय में लिखा है
"The Gurjars of Pali and Pahal became exceedingly audacious while Sher Shah was fortifying Delhi and he marched to the hills and expelled them so that not a vestige was left."8पाली और पारवल ग्राम जिन्हें बाद में पुनः बसाया गया आज भी फरीदाबाद जिलें मौजूद हैं और वहाँ भड़ाना गोत्र के गुर्जर निवास करते हैं जिनकी जुबां पर आज भी उनके पूर्वजों के बलिदान की कहानी है।
         
1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में फरीदाबाद जिले के गुर्जरों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। फरीदाबाद और सोहना क्षेत्र के अन्य गुर्जरों के साथ भड़ाना गुर्जरों ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध अनेक क्रान्तिकारी घटनाओं को अंजाम दिया। क्रान्ति की विफलता के बाद अन्य देशभक्त गुर्जरों के साथ अनेक भड़ाना वीरों को भी फाँसी दी गई।

• References (संदर्भ) 


1.      Page no. 101-102, Early Chauhan Dynasty, Dashrath Sharma, Jodhpur, 1992.

2.      Catalogue of MSS in Pattan Bhandara I.G.Os, p. 156, Verse 22 as quoted by Dashrath Sharma.

3.      Ibid, page 102-103, Dashrath Sharma.

4.      See his Mohaban Prasasti of the year, V. 1207, Epigraphica India pp. 289ff and II 276ff.

5.      Epigraphica Indica Vol. II page 275.

6.      Page 28 Singhi Jain Granth Mala edition as quoted by Dashrath Sharma.

7.      Taj-ul-Ma sir, Ed. II, pp. 204-43 as quoted by Dashrath Sharma.

8.      Page no. 170, Tribe and Caste of CentralProvince, Vol. 3, by R.V. Russel, Landon, 1916.

गुर्जर प्रतिहार

  नीलकुण्ड, राधनपुर, देवली तथा करडाह शिलालेख में प्रतिहारों को गुर्जर कहा गया है । राजौरगढ शिलालेख" में वर्णित "गुर्जारा प्रतिहार...