इस मंदिर का निर्माण गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य के सबसे प्रतापी शासक गुर्जर सम्राट मिहिरभोज के शासन काल मे तेल के व्यापार धन से हुआ था। तेल के व्यापीरीयों को समर्पित यह मंदिर तेली का मंदिर कहलाता है।तेल व्यापारी से संबंधित एक कहावत बहोत ही मशूहर है। कहा राजा भोज कहां गंगु तेली ग्वालियर किले पर स्थित समस्त स्मारकों में यह मंदिर सबसे उंचा है। इसकी उंचाई करीब 30 मीटर है। मंदिर की भवन योजना में गर्भग्रह तथा अंतराज प्रमुख हैं। इसमें प्रवेश के लिए पूर्व पूर्व की ओर से सीढियां हैं। मंदिर की एक विशेषता इसकी गजपृष्टाकार छत है, जोकि द्रविड शैली में बनी हुई है। उत्तर भारत में यह भवन निर्माण कला विरले ही देखने को मिलती है। मंदिर की साज सज्जा विभिन्न उत्तर भारतीय मंदिरों की साज सज्जा के समान है। इसकी बाहरी दीवारें विभिन्न प्रकार की मूर्तिकला से सुसज्ज्जित हैं। अत: इस मंदिर में उत्तर भारतीय एवं दक्षिण भारतीय वास्तुकला का सम्मिश्रण देखने को मिलता है। मंदिर के पूर्वी भाग में निर्मित दो मंडपकिाएं एवं प्रवेश द्वार सन 1881 में अंग्रेजों के शासन काल में मेजर कीथ द्वारा बनवाए गए थे।
समूचे उत्तर भारत में द्रविड़ आर्य स्थापत्य शैली का समन्वय यहीं ग्वालियर किले पर तेली मंदिर के रूप में देखने को मिलता है । लगभग सौ फुट की ऊंचाई लिये किले का यह सर्वाधिक ऊंचाई वाला प्राचीन मंदिर है। गंगोलाताल के समीप बना यह मंदिर विशाल जगती पर स्थापित है । शिखर ऊपर की संकरा एवं बेलन की तरह गोलाई लिये हुये है । मंदिर का प्रवेश द्वार पूर्व की ओर है । भीतर आयताकार गर्भगृह में छोटा मंडप है । निचले भाग में 113 लघु देव प्रकोष्ठ हैं जिनमें देवी-देवताओं की मान्य प्रतिमाएें थीं । मंदिर के चारों ओर की बाह्य दिवारों पर विभिन्न आकार प्रकार के पशु-पक्षी, फूल-पत्ते, देवी-देवताओं की अलंकृत आकृतियां हैं । कहीं-कहीं आसुरी शक्तियों वाली आकृतियां एवं प्रणय मुद्रा में प्रतिमाएॅ भी अंकित हैं । प्रवेश द्वार के एक तरफ कछुए पर यमुना व दूसरी तरफ मकर पर विराजमान गंगा की मानवाकृतियां हैं । आर्य द्रविड़ शैली युक्त इस मंदिर का वास्तुशिल्प अद्वितीय है । मंदिर के शिखर के दोनों ओर चैत्य गवाक्ष बने हैं तथा मंदिर के अग्रभाग में ऊपर की ओर मध्य में गरूढ़ नाग की पूंछ पकड़े अंकित है ।
उत्तर भारतीय अलंकरण से युक्त इस मंदिर का स्थापत्य दक्षिण द्रविड़ शैली का है । वर्तमान में इस मंदिर में कोई मूर्ति नहीं है । पर दरअसल यह एक विष्णु मंदिर था । कुछ इतिहासकार इसे शैव मंदिर मानते हैं । सन 1231 में यवन आक्रमणकारी इल्तुमिश द्वारा मंदिर के अधिकांश हिस्से को ध्वस्त कर दिया गया था । तब 1881–1883 ई. के बीच अंग्रेज हुकमरानों ने मंदिर के पुरातात्विक महत्व को समझते हुये मेजर कीथ के निर्देशन में किले पर स्थित अन्य मंदिरों, मान महल(मंदिर)के साथ-साथ तेली का मंदिर का भी सरंक्षण करवाया था । मेजर कीथ ने इधर-उधर पड़े भग्नावशेषों को संजोकर तेली मंदिर के समक्ष विशाल आकर्षक द्वार भी बनवा दिया । द्वार के निचले हिस्से में लगे दो आंग्ल भाषी शिलालेखों में संरक्षण कार्य पर होने वाले खर्च का भी उल्लेख किया है।
वर्तमान में मंदिर का केवल पूर्वी प्रवेश द्वार है। मूल मंदिर को दिल्ली के सुलतानों के शासन काल में ध्वस्त कर दिया गया था । हालांकि बाद में ब्रिटिश काल में हुये मरम्मत से मंदिर का मूल स्वरूप नष्ट हो गया है, फिर भी मेजर कीथ मंदिरों के संरक्षण कार्य का बीड़ा उठाने के लिये प्रसंशा के पात्र हैं ।
No comments:
Post a Comment