गुलावठी कस्बा बुलन्दशहर जनपद में अवस्थित है। विप्लव के समय यहाँ क्रांतिकारी सैनिकों एवं ब्रिटिश सेना के मध्य भयंकर संघर्ष हुआ जिसमें अनेक क्रांतिकारी शहीद हुए। इस संघर्ष का उल्लेख विलियम म्यूर के विवरण में मिलता है। 2 अगस्त, 1857 को मेरठ के कमिश्नर विलियम्स ने यहाँ के संबंध में लिखा भी था कि-
'विद्रोहियों ने गुलांवठी पर कब्जा कर रखा है और वे हमारी डाक को बीच में छीन लेते हैं। इसलिए हमारे बहुत से पत्र नहीं पहुँच पाते हैं। यह कस्बा मालागढ़ से मेरठ जाने वाले मार्ग पर अवस्थित हैं। इन विद्रोहियों पर हमारी फ़ौज ने हमला किया जिसमें राइफ़ल सेना और 50 छोटी नालों वाली बंदूकें भी थीं। भयंकर संघर्ष में 620 विद्रोही मारे गए और शेष भाग गए।'
विलियम्स की इस रिपोर्ट के पश्चात् लगभग डेढ़ वर्ष बाद बंदी बनाये गए इस संघर्ष में भागीदारी करने वाले क्रांतिकारी सैनिक 'पीर ज़हूर अली' ने 4 मार्च, 1859 को अपने बयान में इस संघर्ष का दूसरा पक्ष प्रस्तुत किया। वह चौदहवीं बंगाल अनियमित सेना में जमादार पद पर नियुक्त थे। उसने बताया कि-
'हमारी पैदल सेना और अश्वारोही सेना का एक भाग दो तोपें साथ लेकर मालागढ़ की ओर बढ़ा। तीन पड़ावों में हम वहाँ जा पहुँचे। तभी सूचना मिली के अंग्रेजी पल्टन गुलावठी तक पहुँच चुकी है। हम शीघ्र ही वहाँ तोपों सहित जा पहुँचे। शाम के समय दोनों ओर से गोलाबारी शुरू हो गई। यह संघर्ष पाँच से छह घंटे तक चला। अँग्रेज़ी तोपों हमारी तोपों के पाँच या छह गोले दाग़ने के बाद बंद हो गई। उसके बाद वे पीछे हट गए। लेकिन हम खाइयों में रात भर डटे रहे और दूसरे दिन प्रातः हम गाँव में पहुँचे।
फिर यह विदित हुआ कि ब्रिटिश सेना बुलन्दशहर में इकट्ठी हो रही है। नवाब वलीदाद खाँ मालागढ़ से अपनी फ़ौज के साथ बुलन्दशहर गए। हम भी उनकी सहायता के लिए अपनी फ़ौज के साथ बुलन्दशहर पहुँचे।
गुलावठी में हुए संघर्ष के संबंध में अनेक किंवदंतियाँ चली आ रही है कि इस लड़ाई में हज़ारों क्रांतिकारी शहीद हुए थे। काली नदी के तट पर हज़ारों शव जलाये गए और अनेक खेतों में क़ब्र खोदकर दबाये गए। मृतक ब्रिटिश सैनिकों के घोड़े इतनी अधिक संख्या में पकड़े गए कि हर घर में चार-छह घोड़े बँध गए थे।
वस्तुतः उपरोक्त विवरण से यह निष्कर्ष सामने आता है कि गुलावठी में क्रांतिकारियों की मजूबत स्थिति थी। यद्यपि यहाँ हुए संघर्ष में अनेक क्रांतिकारी मारे गए और यह कोई निर्णायक संघर्ष भी सिद्ध नहीं हुआ परंतु क्रांतिकारियों ने ब्रितानियों को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया था।
'विद्रोहियों ने गुलांवठी पर कब्जा कर रखा है और वे हमारी डाक को बीच में छीन लेते हैं। इसलिए हमारे बहुत से पत्र नहीं पहुँच पाते हैं। यह कस्बा मालागढ़ से मेरठ जाने वाले मार्ग पर अवस्थित हैं। इन विद्रोहियों पर हमारी फ़ौज ने हमला किया जिसमें राइफ़ल सेना और 50 छोटी नालों वाली बंदूकें भी थीं। भयंकर संघर्ष में 620 विद्रोही मारे गए और शेष भाग गए।'
विलियम्स की इस रिपोर्ट के पश्चात् लगभग डेढ़ वर्ष बाद बंदी बनाये गए इस संघर्ष में भागीदारी करने वाले क्रांतिकारी सैनिक 'पीर ज़हूर अली' ने 4 मार्च, 1859 को अपने बयान में इस संघर्ष का दूसरा पक्ष प्रस्तुत किया। वह चौदहवीं बंगाल अनियमित सेना में जमादार पद पर नियुक्त थे। उसने बताया कि-
'हमारी पैदल सेना और अश्वारोही सेना का एक भाग दो तोपें साथ लेकर मालागढ़ की ओर बढ़ा। तीन पड़ावों में हम वहाँ जा पहुँचे। तभी सूचना मिली के अंग्रेजी पल्टन गुलावठी तक पहुँच चुकी है। हम शीघ्र ही वहाँ तोपों सहित जा पहुँचे। शाम के समय दोनों ओर से गोलाबारी शुरू हो गई। यह संघर्ष पाँच से छह घंटे तक चला। अँग्रेज़ी तोपों हमारी तोपों के पाँच या छह गोले दाग़ने के बाद बंद हो गई। उसके बाद वे पीछे हट गए। लेकिन हम खाइयों में रात भर डटे रहे और दूसरे दिन प्रातः हम गाँव में पहुँचे।
फिर यह विदित हुआ कि ब्रिटिश सेना बुलन्दशहर में इकट्ठी हो रही है। नवाब वलीदाद खाँ मालागढ़ से अपनी फ़ौज के साथ बुलन्दशहर गए। हम भी उनकी सहायता के लिए अपनी फ़ौज के साथ बुलन्दशहर पहुँचे।
गुलावठी में हुए संघर्ष के संबंध में अनेक किंवदंतियाँ चली आ रही है कि इस लड़ाई में हज़ारों क्रांतिकारी शहीद हुए थे। काली नदी के तट पर हज़ारों शव जलाये गए और अनेक खेतों में क़ब्र खोदकर दबाये गए। मृतक ब्रिटिश सैनिकों के घोड़े इतनी अधिक संख्या में पकड़े गए कि हर घर में चार-छह घोड़े बँध गए थे।
वस्तुतः उपरोक्त विवरण से यह निष्कर्ष सामने आता है कि गुलावठी में क्रांतिकारियों की मजूबत स्थिति थी। यद्यपि यहाँ हुए संघर्ष में अनेक क्रांतिकारी मारे गए और यह कोई निर्णायक संघर्ष भी सिद्ध नहीं हुआ परंतु क्रांतिकारियों ने ब्रितानियों को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया था।
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