आदिवराह एक प्रसिद्ध उपाधि थी, जिसे कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार राजा मिहिर भोज (840-890 ई.) ने धारण किया था। मिहिर भोज के चाँदी के सिक्कों पर यह नाम अंकित मिलता है, जो उत्तरी भारत में बहुतायत से मिले हैं।
भोज प्रथम
भोज प्रथम अथवा 'मिहिरभोज' गुर्जर प्रतिहार वंश का सर्वाधिक प्रतापी एवं महान शासक था। उसने पचास वर्ष (850 से 900 ई.) पर्यन्त शासन किया। उसका मूल नाम 'मिहिर' था और 'भोज' कुल नाम अथवा उपनाम था। उसका राज्य उत्तर में हिमालय, दक्षिण में नर्मदा, पूर्व में बंगाल और पश्चिम में सतलुज तक विस्तृत था, जिसे सही अर्थों में साम्राज्य कहा जा सकता है। भोज प्रथम विशेष रूप से भगवान विष्णु के वराह अवतार का उपासक था, अत: उसने अपने सिक्कों पर आदि-वराह को उत्कीर्ण कराया था।[1]प्रारम्भिक संघर्ष
भोज प्रथम ने 836 ई. के लगभग कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया, जो आगामी सौ वर्षो तक प्रतिहारों की राजधानी बनी रही। उसने जब पूर्व दिशा की ओर अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहा, तो उसे बंगाल के पाल शासक धर्मपाल से पराजित होना पड़ा। 842 से 860 ई. के बीच उसे राष्ट्रकूट शासक ध्रुव ने भी पराजित किया। पाल वंश के शासक देवपाल की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी नारायण को भोज प्रथम ने परास्त कर पाल राज्य के एक बड़े भू-भाग पर अधिकार कर लिया। उसका साम्राज्य काठियावाड़, पंजाब, मालवा तथा मध्य देश तक फैला था।यात्री विवरण
भोज प्रथम के शासन काल का विवरण अरब यात्री सुलेमान के यात्रा विवरण से मिलता है। अरब यात्री सुलेमान उसे 'बरुआ' कहता है। भोज प्रथम के बारे में सुलेमान लिखता है कि-"इस राजा के पास बहुत बड़ी सेना है और अन्य किसी दूसरे राजा के पास उसकी जैसी सेना नहीं है। उसका राज्य जिह्म के आकार का है। उसके पास बहुत अधिक संख्या में घोड़े और ऊंट है। भारत में भोज के राज्य के अतिरिक्त कोई दूसरा राज्य नहीं है, जो डाकुओं से इतना सुरक्षित हो।"
उपाधियाँ
भोज प्रथम ने 'आदिवराह' एवं 'प्रभास' की उपाधियाँ धारण की थीं। उसने कई नामों से, जैसे- 'मिहिरभोज' (ग्वालियर अभिलेख में), 'प्रभास' (दौलतपुर अभिलेख में), 'आदिवराह' (ग्वालियर चतुर्भुज अभिलेखों), चांदी के 'द्रम्म' सिक्के चलवाए थे। सिक्कों पर निर्मित सूर्यचन्द्र उसके चक्रवर्तिन का प्रमाण है। अरब यात्री सुलेमान के अनुसार वह अरबों का स्वाभाविक शत्रु था। उसने पश्चिम में अरबों का प्रसार रोक दिया था।साम्राज्य
गुजरात के सोलंकी एवं त्रिपुरा के कलचुरी के संघ ने मिलकर भोज प्रथम की राजधानी धार पर दो ओर से आक्रमण कर राजधानी को नष्ट कर दिया था। भोज प्रथम के बाद शासक जयसिंह ने शत्रुओं के समक्ष आत्मसमर्पण कर मालवा से अपने अधिकार को खो दिया। भोज प्रथम के साम्राज्य के अन्तर्गत मालवा, कोंकण, ख़ानदेश, भिलसा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, चित्तौड़ एवं गोदावरी घाटी का कुछ भाग शामिल था। उसने उज्जैन की जगह अपने नई राजधानी धार को बनाया।विद्या तथा कला का संरक्षक
भोज प्रथम एक पराक्रमी शासक होने के साथ ही विद्वान एवं विद्या तथा कला का उदार संरक्षक था। अपनी विद्वता के कारण ही उसने 'कविराज' की उपाधि धारण की थी। उसने कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रंथ, जैसे- 'समरांगण सूत्रधार', 'सरस्वती कंठाभरण', 'सिद्वान्त संग्रह', 'राजकार्तड', 'योग्यसूत्रवृत्ति', 'विद्या विनोद', 'युक्ति कल्पतरु', 'चारु चर्चा', 'आदित्य प्रताप सिद्धान्त', 'आयुर्वेद सर्वस्व शृंगार प्रकाश', 'प्राकृत व्याकरण', 'कूर्मशतक', 'शृंगार मंजरी', 'भोजचम्पू', 'कृत्यकल्पतरु', 'तत्वप्रकाश', 'शब्दानुशासन', 'राज्मृडाड' आदि की रचना की। 'आइना-ए-अकबरी' के वर्णन के आधार पर माना जाता है कि, उसके राजदरबार में लगभग 500 विद्धान थे।भोज प्रथम के दरबारी कवियों में 'भास्करभट्ट', 'दामोदर मिश्र', 'धनपाल' आदि प्रमुख थे। उसके बार में अनुश्रति थी कि वह हर एक कवि को प्रत्येक श्लोक पर एक लाख मुद्रायें प्रदान करता था। उसकी मृत्यु पर पण्डितों को हार्दिक दुखः हुआ था, तभी एक प्रसिद्ध लोकोक्ति के अनुसार- उसकी मृत्यु से विद्या एवं विद्वान, दोनों निराश्रित हो गये।
निर्माण कार्य
भोज प्रथम ने अपनी राजधानी धार को विद्या एवं कला के महत्त्वपूर्ण केन्द्र के रूप में स्थापित किया था। यहां पर भोज ने अनेक महल एवं मन्दिरों का निर्माण करवाया, जिनमें 'सरस्वती मंदिर' सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। उसके अन्य निर्माण कार्य 'केदारेश्वर', 'रामेश्वर', 'सोमनाथ सुडार' आदि मंदिर हैं। इसके अतिरिक्त भोज प्रथम ने भोजपुर नगर एवं भोजसेन नामक तालाब का भी निर्माण करवाया था। उसने 'त्रिभुवन नारायण', 'सार्वभौम', 'मालवा चक्रवर्ती' जैसे विरुद्ध धारण किए थे।टीका टिप्पणी और संदर्भ
भोज द्वितीय
- भोज द्वितीय, भोज प्रथम का पौत्र था। उसने गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य पर सिर्फ़ दो-तीन वर्ष (908-10 ई.) की अल्प अवधि तक ही राज्य किया।[1]
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