10 मई को मेरठ से शुरू क्रांति जल्दी ही उत्तरी भारत के अनेक क्षेत्रों में फैल गई। बरेली में खान बहादुर खान ने क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया और स्वयं को नवाब घोषित कर दिया। 1 जून को मि. विलियम्स ने कप्तान क्रेगी तथा 40 घुड़सवारों के साथ मेरठ से बरेली प्रस्थान किया। 3 जून को दोपहर के समय गंगा तथा मुरादाबाद के मध्य, मेरठ से लगभग 46 मील की दूरी पर अंग्रेज सैनिक टुकड़ी यह कह कर रोक दी गई की 'बरेली' में भी विद्रोह शुरू हो गया है तथा बरेली जेल से अधिक संख्या में क़ैदी भाग निकले हैं और वे अमरोहा दिशा में बढ़ने लगे हैं।
सूचना प्राप्त होने के बाद 18 जून के आस-पास मुरादनगर के जज विल्सन को कारबाईन वाले दल के साथ गढ़मुक्तेश्वर का पुल तोड़ने भेजा गया ताकि बरेली के विद्रोही मेरठ न पहुँच सके। इससे पूर्व 3 जून को नालों के पुल को तोड़ने के लिए मैसर्स विल्सन, सान्डर्स, जे. एस. कैम्पबैल, डॉ. केनन ने कोशिश की लेकिन वे पुल न तोड़ सके। यद्यपि उन्होंने नावों को वहाँ से हटवा दिया। यूरोपियन दल ने एक ऊँट सवारों की रेजिमेंट लेकर अन्य सिपाहियों के साथ गढ़मुक्तेश्वर की ओर आगे बढ़ना आरंभ कर दिया। मेरठ में क्रांतिकारियों के विषय में दो राय थी- प्रथम, उन्हें गढ़मुक्तेश्वर न पहुँचने दिया जाए, परंतु वह केवल कुछ समय तक ही टाला जा सकता था। द्वितीय, क्रांतिकारियों को गंगा पार कर लेने दी जाए और गंगा पार करने के उपरांत कहीं पर भी उनके साथ संघर्ष किया जाए। इस समय क्रांतिकारियों के दमन के लिए मेरठ में पर्याप्त सैन्य बल उपलब्ध नहीं था। मेरठ से 500 से अधिक सैनिक नहीं लाये जा सकते थे।
मेरठ के कमांडिंग ऑफ़िसर से यह प्रार्थना की गई कि बागपत की ओर राइ कैम्प से 500 सैनिक अधिक भेज दें, परंतु यह माँग अस्वीकार कर दी गई। कमांडिंग ऑफ़िसर ने यह आदेश दिया कि वे क्रांतिकारियों के साथ संघर्ष की कोई कार्यवाही न करें और आत्मरक्षा तक ही सीमित रहें। इस आदेश ने क्रांतिकारियों की स्थिति मज़बूत कर दी। बरेली ब्रिगेड के क्रांतिकारियों ने गढ़ क्षेत्र के निवासियों की मदद से गंगा पार करके गंगा घाट पर अधिकार कर लिया। बरेली से आकर गढ़मुक्तेश्वर में पड़ाव डालने वाली पलटनों में 18वीं पल्टन और 68वीं पल्टन सबकी अगुआ थी। इस प्रकार गढ़मुक्तेश्वर क्रांतिकारी सैनिकों का केंद्र बन गया।
ब्रितानियों के अख़बार 'हरकारा' में इस घटना का आंकलन उस समय इस तरह से किया गया था- 'मुरादाबाद, शाहजहाँ पुर और सीतापुर से आए सैनिकों के साथ बरेली के सैनिक गढ़मुक्तेश्वर में मिल गये हैं। वे सभी अपने-अपने स्थानों से तमाम सरकारी धन लूटकर यहाँ पड़ाव डाल चुके हैं। कल ऐसे 5 हज़ार सैनिक गढ़मुक्तेश्वर पहुँचे, जिनके पास चाल लाख पौंड स्टर्लिंग के बराबर चाँदी के रूपये बताये जाते हैं, जो बैलगाड़ियों और छकड़ों में लदे हुए हैं। उन्होंने गंगा जैसी बड़ी नदी गढ़मुक्तेश्वर में निकटवर्ती स्थानों के आम देहातियों की मदद से पार कर ली। आश्चर्य तो यह है कि उस समय हमारे एक हज़ार युरोपियन मेरठ में थे परंतु वे अपनी बनाईं खन्दकों में बैठे सिर्फ़ अपनी रक्षा और चौकीदारी मात्र करते थे। इतना ही नहीं, विद्रोही गढ़मुक्तेश्वर में पड़ाव डाले रहे और सैन्य सामग्री दिल्ली की और भेजते रहे, साथ ही ऐसे झूठे संदेश भेजते रहे कि वे मेरठ पर हमला करने वाले हैं। इससे वहाँ के ब्रितानी डर के कारण अपनी छावनी की सुरक्षा में लगे रहे। उन्होंने गढ़मुक्तेश्वर की ओर बढ़ने की बिल्कुल भी कोशिश नहीं की। यदि गंगा घाट पर उन्हें हम हरा देते तो सारे ज़िले की जनता घबरा जाती। इससे दिल्ली का घेरा डालने और उसे फिर से अपने अधिकार में लेने में भी हमें मदद मिलती।'
क्रांतिकारियों ने गढ़ में बड़ी मात्रा में तोड़-फोड़ की और अधिकांश सरकारी सम्पत्ति को नष्ट कर दिया। यहाँ से क्रांतिकारी बाबूगढ़ छावनी की ओर गये। बाबूगढ़ पहुँचकर उन्होंने दुकानों में तोड़-फोड़ करके उनमें आग लगा दी। उन्होंने छावनी पर भी हमला किया और सेना के घोड़ों तक को लूट लिया।
सूचना प्राप्त होने के बाद 18 जून के आस-पास मुरादनगर के जज विल्सन को कारबाईन वाले दल के साथ गढ़मुक्तेश्वर का पुल तोड़ने भेजा गया ताकि बरेली के विद्रोही मेरठ न पहुँच सके। इससे पूर्व 3 जून को नालों के पुल को तोड़ने के लिए मैसर्स विल्सन, सान्डर्स, जे. एस. कैम्पबैल, डॉ. केनन ने कोशिश की लेकिन वे पुल न तोड़ सके। यद्यपि उन्होंने नावों को वहाँ से हटवा दिया। यूरोपियन दल ने एक ऊँट सवारों की रेजिमेंट लेकर अन्य सिपाहियों के साथ गढ़मुक्तेश्वर की ओर आगे बढ़ना आरंभ कर दिया। मेरठ में क्रांतिकारियों के विषय में दो राय थी- प्रथम, उन्हें गढ़मुक्तेश्वर न पहुँचने दिया जाए, परंतु वह केवल कुछ समय तक ही टाला जा सकता था। द्वितीय, क्रांतिकारियों को गंगा पार कर लेने दी जाए और गंगा पार करने के उपरांत कहीं पर भी उनके साथ संघर्ष किया जाए। इस समय क्रांतिकारियों के दमन के लिए मेरठ में पर्याप्त सैन्य बल उपलब्ध नहीं था। मेरठ से 500 से अधिक सैनिक नहीं लाये जा सकते थे।
मेरठ के कमांडिंग ऑफ़िसर से यह प्रार्थना की गई कि बागपत की ओर राइ कैम्प से 500 सैनिक अधिक भेज दें, परंतु यह माँग अस्वीकार कर दी गई। कमांडिंग ऑफ़िसर ने यह आदेश दिया कि वे क्रांतिकारियों के साथ संघर्ष की कोई कार्यवाही न करें और आत्मरक्षा तक ही सीमित रहें। इस आदेश ने क्रांतिकारियों की स्थिति मज़बूत कर दी। बरेली ब्रिगेड के क्रांतिकारियों ने गढ़ क्षेत्र के निवासियों की मदद से गंगा पार करके गंगा घाट पर अधिकार कर लिया। बरेली से आकर गढ़मुक्तेश्वर में पड़ाव डालने वाली पलटनों में 18वीं पल्टन और 68वीं पल्टन सबकी अगुआ थी। इस प्रकार गढ़मुक्तेश्वर क्रांतिकारी सैनिकों का केंद्र बन गया।
ब्रितानियों के अख़बार 'हरकारा' में इस घटना का आंकलन उस समय इस तरह से किया गया था- 'मुरादाबाद, शाहजहाँ पुर और सीतापुर से आए सैनिकों के साथ बरेली के सैनिक गढ़मुक्तेश्वर में मिल गये हैं। वे सभी अपने-अपने स्थानों से तमाम सरकारी धन लूटकर यहाँ पड़ाव डाल चुके हैं। कल ऐसे 5 हज़ार सैनिक गढ़मुक्तेश्वर पहुँचे, जिनके पास चाल लाख पौंड स्टर्लिंग के बराबर चाँदी के रूपये बताये जाते हैं, जो बैलगाड़ियों और छकड़ों में लदे हुए हैं। उन्होंने गंगा जैसी बड़ी नदी गढ़मुक्तेश्वर में निकटवर्ती स्थानों के आम देहातियों की मदद से पार कर ली। आश्चर्य तो यह है कि उस समय हमारे एक हज़ार युरोपियन मेरठ में थे परंतु वे अपनी बनाईं खन्दकों में बैठे सिर्फ़ अपनी रक्षा और चौकीदारी मात्र करते थे। इतना ही नहीं, विद्रोही गढ़मुक्तेश्वर में पड़ाव डाले रहे और सैन्य सामग्री दिल्ली की और भेजते रहे, साथ ही ऐसे झूठे संदेश भेजते रहे कि वे मेरठ पर हमला करने वाले हैं। इससे वहाँ के ब्रितानी डर के कारण अपनी छावनी की सुरक्षा में लगे रहे। उन्होंने गढ़मुक्तेश्वर की ओर बढ़ने की बिल्कुल भी कोशिश नहीं की। यदि गंगा घाट पर उन्हें हम हरा देते तो सारे ज़िले की जनता घबरा जाती। इससे दिल्ली का घेरा डालने और उसे फिर से अपने अधिकार में लेने में भी हमें मदद मिलती।'
क्रांतिकारियों ने गढ़ में बड़ी मात्रा में तोड़-फोड़ की और अधिकांश सरकारी सम्पत्ति को नष्ट कर दिया। यहाँ से क्रांतिकारी बाबूगढ़ छावनी की ओर गये। बाबूगढ़ पहुँचकर उन्होंने दुकानों में तोड़-फोड़ करके उनमें आग लगा दी। उन्होंने छावनी पर भी हमला किया और सेना के घोड़ों तक को लूट लिया।
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